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अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में हुए आतंकवादी हमले में जितने लोग मारे गए, उतने इंसान तो रोज दूषित पानी पीने से मर जाते हैं। हमारे देश में 20 करोड़ लोग ऐसे हैं, जो दूषित पानी पीते हैं। पानी के लिए झगड़े, फसाद होते रहे हैं, पर अब जल्द ही युद्ध भी होने लगेंगे। इस क्षेत्र में दबे पांव बहुराष्ट्रीय कंपनियां आ रही हैं, जिससे हालात और भी खराब होने वाले हैं। सरकार इस दिशा में इन्हीं विदेशी कंपनियों के अधीन होती जा रही है। इस कार्य में विश्व बैंक की अहम भूमिका है। उत्तर प्रदेश में यह परंपरा है कि कन्या द्वारा जब कुएं की पूजा की जाती है, तभी लग्न विधि पूर्ण मानी जाती है। अब तो कुओं की संख्या लगातार घट रही है। इसलिए गांवों में कुएं के बदले टैंकर की ही पूजा करवाकर लग्न विधि पूर्ण कर ली जाती है। लोगों ने समय की जरुरत को समझा और ऐसा करना शुरू किया। पर पानी की बचत करनी चाहिए, इस तरह का संदेश देने के लिए कोई परंपरा अभी तक शुरू नहीं हो पाई है। अगर शुरू हो भी गई हो तो उसे अमल में नहीं लाया गया है। जब तक हमें पानी सहजता से मिल रहा है, तब तक हम इसकी अहमियत नहीं समझ पाएंगे। हमारे देश में पानी की समस्या दिनों-दिन गंभीर रूप लेती जा रही है। देश में कुल 20 करोड़ ऐसे लोग हैं, जिन्हें पीने के लिए शुद्ध पानी नहीं मिल रहा है। पेयजल के जितने भी स्त्रोत हैं, उसमें से 80 प्रतिशत स्त्रोत उद्योगों द्वारा छोड़ा गया रसायनयुक्त गंदा पानी मिल जाने के कारण प्रदूषित हो गए हैं। देश को जब आजादी मिली, तब देश की जल वितरण व्यवस्था पूरी तरह से प्रजा के हाथ में थी। हरेक गांव की ग्राम पंचायत तालाबों और कुओं की देखभाल करती थी।
ग्रामीण नदियों को प्रकृति का वरदान समझते थे। इसलिए उसे गंदा करने की सोचते भी नहीं थे। आजादी क्या मिली, सभी नदियों पर बांध बनाने का काम शुरू हो गया। लोगों ने इसे विकास की दिशा में कदम माना, लेकिन यह कदम अनियमितताओं के चलते तानाशाहीपूर्ण रवैए में बदल गया। नदियां प्रदूषित होती गई। अब इन नदियों को प्रदूषणमुक्त करने की योजना बनाई जा रही है। इसकी जवाबदारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को दी जा रही है। देश की प्रजा का अरबों रुपये अब इन कंपनियों के पास चला जाएगा। कुछ संपन्न देशों में नदियों की देखभाल निजी कंपनियां कर रही हैं। विश्व की दस बड़ी कंपनियों में से चार कंपनियां तो पानी का ही कारोबार कर रही हैं। इन कंपनियों में जर्मनी की आरडब्ल्यूई, फ्रांस की विवाल्डो और स्वेज लियोन तथा अमेरिका की एनरॉन कॉरपोरेशन का समावेश होता है। एनरॉन तो अब दीवालिया हो चुकी है, लेकिन इसके पहले उसने विभिन्न देशों में पानी का ही धंधा कर करीब 80 अरब डॉलर की कमाई कर चुकी है। हमारे देश में पानी की तंगी होती है। लोग पानी के लिए तरसते हैं, उसमें भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का स्वार्थ है। दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में जल वितरण व्यवस्था की जिम्मेदारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देने की पूरी तैयारी हो चुकी है। इन कंपनियों के एजेंट की भूमिका विश्व बैंक निभा रहा है। किसी भी शहर की म्युनिसिपैलिटी अपनी जल योजना के लिए विश्व बैंक के पास कर्ज मांगने जाती है तो विश्व बैंक की यही शर्त होती है कि इस योजना में जल वितरण व्यवस्था की जवाबदारी निजी कंपनियों को सौंपनी होगी।
महाराष्ट्र सरकार ने 2003 में एक आदेश के तहत अपनी नई जल नीति की घोषणा की थी। इस नीति के अनुसार सभी जल परियोजनाएं निजी कंपनियों को देने का निर्णय लिया गया है। विधानसभा में इस विधेयक को पारित भी कर दिया गया। इस विधेयक के अनुसार महाराष्ट्र स्टेट वॉटर रेग्युलेटरी अथॉरिटी की रचना की गई, इसका कार्य नदियों के बेचे जाने वाले पानी का भाव तय करना है। इस तरह से पिछले 5 वर्षो से सरकार राज्य की नदियां बेचने के मामले में कानूनी रूप से कार्यवाही कर रही है। जल योजना के तहत अभी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियों पर अपना कब्जा जमा लिया है। हमारी सरकार निजीकरण के लालच में बदहवास हो गई है। अब जल वितरण व्यवस्था के तहत ये कंपनियां अधिक कमाई के चक्कर में पानी की कीमत इतना अधिक बढ़ा देंगी कि गरीबों की जीना ही मुश्किल हो जाएगा। वह फिर गंदा पानी पीने लगेगा और बीमारी से मरेगा। क्योंकि ये कंपनियां नागरिकों को शुद्ध पानी देने की कोई गारंटी नहीं देती।
लेखक महेश परिमल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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