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तो बस आंखों में ही रह जाएगा पानी

जागरण मेहमान कोना
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हर साल बारिश के मौसम में हम रोमांचित हो उठते हैं। बारिश का यह मौसम कहीं रौद्र रूप में होता है तो कहीं रूठा हुआ। बाढ़ और सूखा प्रकृति के दो पहलू हैं, बिल्कुल धूप और छांव की तरह, लेकिन क्या हमने कभी यह जानने की कोशिश की है कि बारिश का इतना सारा पानी आखिर जाता कहां है? इसका कुछ हिस्सा तो भाप बनकर उड़ जाता है और कुछ समुद्र में चला जाता है। कभी सोचा आपने कि यदि इस पानी को अभी सहेजकर न रखा गया तो भविष्य में क्या होगा और कैसे पूरी होगी हमारी पानी की आवश्यकता। दुनिया के 1.4 अरब लोगाों को पीने का शुद्ध पानी नहीं मिल पा रहा है। हम यह भूल जाते हैं कि प्रकृति जीवनदायी संपदा यानी पानी हमें एक चक्र के रूप में प्रदान करती है और इस चक्र को गतिमान रखना हमारी जिम्मेदारी है। इस चक्र के थमने का अर्थ है हमारी जिंदगी का थम जाना। प्रकृति के खजाने से हम जितना पानी लेते हैं उसे वापस भी हमें ही लौटाना होता है। पानी के बारे में एक नहीं, कई चौंकाने वाले तथ्य हैं जिसे जानकर लगेगा कि सचमुच अब हममें थोड़ा सा भी पानी नहीं बचा है। कुछ तथ्य इस प्रकार हैं-मुंबई में रोज गाडि़यां धोने में ही 50 लाख लीटर पानी खर्च हो जाता है। दिल्ली, मुंबई और चेन्नई जैसे महानगरों में पाइपलाइनों के वॉल्व की खराबी के कारण 17 से 44 प्रतिशत पानी प्रतिदिन बेकार बह जाता है। ब्रह्मपुत्र नदी का प्रतिदिन 2.16 घन मीटर पानी बंगाल की खाड़ी में चला जाता है। भारत में हर वर्ष बाढ़ के कारण करीब 1,529 व्यक्तियों और 98 हजार पशुओं की मौत हो जाती है।


इजरायल में औसतन 10 सेंटीमीटर वर्षा होती है जिससे से वह इतना अनाज पैदा कर लेता है कि वह उसका निर्यात करता है। दूसरी ओर भारत में औसतन 50 सेंटीमीटर से भी अधिक वर्षा होने के बावजूद सिंचाई के लिए जरूरी जल की कमी बनी रहती है। पिछले 50 वर्षो में भारत में पानी के लिए 37 भीषण संघर्ष हुए हैं। भारतीय स्ति्रयां पीने के पानी के लिए रोज ही औसतन चार मील पैदल चलती हैं। पानीजन्य रोगों से विश्व में हर वर्ष 22 लाख लोगों की मौत हो जाती है। पूरी पृथ्वी पर एक अरब 40 घन किलोलीटर पानी है। इसमें से 97.5 प्रतिशत पानी समुद्र में है जोकि खारा है, शेष 1.5 प्रतिशत पानी बर्फ के रूप में धु्रव प्रदेशों में है। बचा एक प्रतिशत पानी नदी, सरोवर, कुआं, झरना और झीलों में है जो पीने के लायक है। इस एक प्रतिशत पानी का 60वां हिस्सा खेती और उद्योगों में खपत होता है। बाकी का 40वां हिस्सा हम पीने, भोजन बनाने, नहाने, कपड़े धोने एवं साफ-सफाई में खर्च करते हैं। यदि ब्रश करते समय नल खुला रह गया है तो पांच मिनट में करीब 25 से 30 लीटर पानी बरबाद होता है। बॉथ टब में नहाते समय धनिक वर्ग 300 से 500 लीटर पानी गटर में बहा देते हैं। मध्यम वर्ग भी इस मामले में पीछे नहीं हैं जो नहाते समय 100 से 150 पानी लीटर बरबाद कर देता है। हमारे समाज में पानी बरबाद करने की राजसी प्रवृत्ति है जिस पर अभी तक अंकुश लगाने की कोई कोशिश नहीं हुई है। हकीकत में जब से देश आजाद हुआ है तब से आज तक इस दिशा में कोई भी काम गंभीरता से नहीं हुआ है। विश्व में प्रति 10 व्यक्तियों में से 2 व्यक्तियों को पीने का शुद्ध पानी नहीं मिल पाता है। ऐसे में प्रति वर्ष 6 अरब लीटर बोतलबंद पानी मनुष्य द्वारा पीने के लिए प्रयुक्त किया जाता है।


पानी का स्रोत कही जाने वाली नदियों में बढ़ते प्रदूषण को रोकने के लिए विशेषज्ञ उपाय खोजने में लगे हुए हैं, किंतु जब तक कानून में सख्ती नहीं बरती जाएगी तब तक अधिक से अधिक लोगों को दूषित पानी पीने को विवश होना पड़ सकता है। पृथ्वी का विस्तार 51 करोड़ वर्ग किलोमीटर है। उसमें से 36 करोड़ वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र पानी से घिरा हुआ है। दुर्भाग्य यह है कि इसमें से पीने लायक पानी का क्षेत्र बहुत कम है। 97 प्रतिशत भाग तो समुद्र है। बाकी के तीन प्रतिशत हिस्से में मौजूद पानी में से 2 प्रतिशत पर्वत और ध्रुवों पर बर्फ के रूप में जमा हुआ है, जिसका कोई उपयोग नहीं होता है। यदि इसमें से करीब 6 करोड़ घन किलोमीटर बर्फ पिघल जाए तो हमारे महासागारों का तल 80 मीटर बढ़ जाएगा, किंतु फिलहाल यह संभव नहीं। पृथ्वी से अलग यदि चंद्रमा की बात करें तो वहां के ध्रुव प्रदेशों में 30 करोड़ टन पानी का अनुमान है। पृथ्वी पर पैदा होने वाली सभी वनस्पतियां भी जलजन्य है। आलू में और अनन्नास में 80 प्रतिशत और टमाटर में 95 प्रतिशत पानी है। पीने के लिए मानव को प्रतिदिन कम से कम पांच लीटर और पशुओं को 50 लीटर पानी चाहिए। एक लीटर गााय का दूध प्राप्त करने के लिए 800 लीटर पानी खर्च करना पड़ता है, जबकि एक किलो गेहूं उगाने के लिए एक हजार लीटर और एक किलो चावल उगाने के लिए चार हजार लीटर पानी की आवश्यकता होती है। इस प्रकार भारत में 83 प्रतिशत पानी खेती और सिंचाई के लिए उपयोग किया जाता है।


1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था में खुलापन आने के बाद निजीकरण का जोर बढ़ा है। एक के बाद एक कई क्षेत्र निजीकरण की भेंट चढ़ते गए। सबसे बड़ा झटका जल क्षेत्र के निजीकरण का है। जब भारत में बिजली के क्षेत्र को निजीकरण के लिए खोला गया तब कोई बहस नहीं हुई। बड़े पैमाने पर बिजली गुल होने का डर दिखाकर निजीकरण को आगे बढ़ाया गया जिसका नतीजा आज सबके सामने है। सरकारी तौर पर भी यह स्वीकार किया जा चुका है कि सुधार औंधे मुंह गिरे हैं और राष्ट्र को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है। अब पानी के क्षेत्र में ऐसी ही निजीकरण की बात हो रही है। इस मुद्दे पर चुप बैठना अब ठीक नहीं। किसी भी बड़े निर्णय के पहले इस मुद्दे पर व्यापक बहस होनी चाहिए। समय आ गया है जब हम वर्षा का पानी अधिक से अधिक बचाने की कोशिश करें, क्योंकि बारिश की एक-एक बूंद कीमती है। इन्हें सहेजना बहुत ही जरूरी है। यदि अभी पानी नहीं सहेजा गया तो संभव है पानी केवल हमारी आंखों में ही बच पाए। हमारा देश वह है जिसकी गाोदी में हजारों नदियां खेलती थीं, आज वे नदियां हजारों में से केवल सैकड़ों में रह गई हैं। आखिर कहां गई ये नदियां कोई नहीं बता सकता।


नदियों की बात छोड़ें, हमारे गांव-मोहल्लों तक से तालाब गायब हो रहे हैं। ऐसे में यह कैसे सोचा जाए कि हममें पानी बचाने की प्रवृत्ति जागेगी। यदि स्थिति में सुधार नहीं आता है तो भले ही हमने बहुतों को पानी पिलाया होगा पर भविष्य में पानी हमें रुला सकता है। वह दिन दूर नहीं जब यह सब हमारी आंखों के सामने ही होगा और हम कुछ नहीं कर पाएंगे। यह हमारी विवशता का सबसे कू्रर दिन होगा। ईश्वर से यही कामना है कि वह दिन मानव जाति को कभी नहीं देखना पड़ा, लेकिन सवाल है कि इस हम मनुष्य कब सोचेंगे कि मौजदू पानी को हम व्यर्थ नष्ट न करें और जल संचयन पर विशेष ध्यान दें। आज पानी की बरबादी को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि धीमे कदमों से एक भयानक विपदा हमारे पास आ रही है।


लेखक महेश परिमल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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