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उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजे में प्रमुख दलों को राष्ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका तलाशते देख रहे हैं प्रदीप सिंह
एक समय था जब उत्तर प्रदेश को चलाने वाले देश को भी चलाया करते थे। इस समय चुनाव उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए हो रहे हैं पर देश चलाने वालो और चलाने की आकांक्षा रखने वालो की नजर उत्तर प्रदेश के नतीजों पर है। देश के दोनों राष्ट्रीय दलों को राज्य में किसकी सरकार बनेगी इससे ज्यादा चिंता इस बात की है कि आगामी लोकसभा चुनाव के लिहाज से इस चुनाव के नतीजे को किस तरह अपने पक्ष में मोड़ा जाए। यही वजह है कि मतदान के सारे चरण पूरे होने से पहले ही राष्ट्रपति शासन की बातें होने लगी हैं। भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस ही नहीं समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और यहां तक कि राष्ट्रीय लोकदल उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे में राष्ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका तलाश रहे हैं।
सबसे पहले बात कांग्रेस की करते हैं। पार्टी को पिछले सात साल में उत्तर प्रदेश की आज सबसे ज्यादा जरूरत है। 2014 के लोकसभा चुनाव के नजरिए से ही नहीं, मौजूदा केंद्र सरकार को बनाए रखने के लिए भी। उसे आर्थिक क्षेत्र में उदारीकरण की प्रक्रिया को बढ़ाना हो या कड़े नीतिगत फैसले लेने हों, ममता बनर्जी के नखरों से छुटकारा पाना हो, कुछ ही महीने बाद अपना राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति चुनवाना हो, अन्ना हजारे के आंदोलन से निपटने के लिए ताकत चाहिए हो या राहुल गांधी का सोनिया गांधी के उत्तराधिकारी के रूप में राज्याभिषेक करना हो, इन सब के लिए एक ही चीज चाहिए-उत्तर प्रदेश।
इस चुनाव में कांग्रेस ने अपनी सबसे बड़ी पूंजी दांव पर लगा दी है। पर सवाल है कि क्या उधार के हथियारों से कोई जंग जीती जा सकती है? कांग्रेस के पास पिछड़े वर्ग का बड़ा चेहरा बेनी प्रसाद वर्मा हैं। जिनका पूरा राजनीतिक जीवन कांग्रेस विरोध की राजनीति को समर्पित रहा है। वह अपने राजनीतिक जीवन के आखिरी पायदान पर खड़े हैं। यही हाल कांग्रेस के मुसलिम चेहरे रशीद मसूद और दलित चेहरे पन्ना लाल पूनिया का है।
इस चुनाव ने राहुल गांधी को चुनावी राजनीति की मुख्यधारा में ला दिया है। पर राहुल गांधी उत्तर प्रदेश के मर्ज की दवा नहीं हैं। उनकी रणनीति कुछ हद तक टीम अन्ना की तरह है जो समस्या तो बता रही है पर उसकी हल नहीं बता रही। राहुल गांधी की बात मानकर उत्तर प्रदेश का मतदाता सपा, बसपा और भाजपा को सत्ता से बाहर कर दे तो किसे सौंपे राजपाट। रीता बहुगुणा जोशी को जो समाजवादी पार्टी के रास्ते कांग्रेस में आई हैं या प्रमोद तिवारी को जो दो दशक से राज्य में कांग्रेस विधायक दल के नेता पद पर विराजमान रहने के बावजूद अपने चुनाव क्षेत्र से बाहर लगभग अपरिचित ही हैं। कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सत्ता में आ गई तो भी राहुल गांधी तो दिल्ली में बैठेंगे। रिमोट से पार्टी संगठन चल सकता है सरकार नहीं चलती।
इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी बसपा के अलावा अकेली पार्टी है, जिसे पिछले दो दशकों में प्रदेश के मतदाताओं ने पूर्ण बहुमत दिया। कांग्रेस के पास नेता नहीं तो भाजपा नेताओं की बहुतायत की मार झेल रही है। कोई अपने को मुख्यमंत्री से कम नहीं समझता। कार्यकर्ता पालकी उठाने को तैयार है। मतदाता ने वरमाला डालने के लिए किसी को अभी चुना नहीं है। पर एक ही पार्टी में इतने दूल्हे देखकर हैरान है। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी को उत्तर प्रदेश से उतना ही चाहिए जिससे उनका अध्यक्ष पद लोकसभा चुनाव तक के लिए बढ़ जाए। सारा जोर इस बात पर है कि कांग्रेस से आगे रहें। पिछले कुछ चुनावों की तुलना में भाजपा के लिए यह सबसे अच्छा मौका था। प्रदेश का सवर्ण मतदाता उसके पास लौट रहा है। अति पिछड़ा उससे नाराज नहीं है। मुसलिम वोट पक्के तौर पर बंट रहा है। बसपा, सरकार से मतदाता की नाराजगी से परेशान है तो समाजवादी पार्टी को अपनी पिछली सरकार के आतंकराज की सफाई देनी पड़ रही है। कांग्रेस की 2009 के लोकसभा चुनाव की हवा थम गई है। पर प्रदेश भाजपा के नेता आस्तीन में छुरा लिए एकदूसरे के पीछे मौके की तलाश में घूम रहे हैं।
राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता। इसका उदाहरण है समाजवादी पार्टी। 2007 के चुनाव का खलनायक इस चुनाव के नायक के तौर पर उभरता हुआ नजर आ रहा है। पार्टी की छवि बदलने में अखिलेश यादव की भूमिका सबसे अहम है। राहुल गांधी और अखिलेश यादव के चुनाव अभियान में एक मौलिक अंतर है। राहुल गांधी उत्तर प्रदेश का मर्ज बता रहे हैं इलाज और डॉक्टर नहीं। अखिलेश मर्ज के साथ दवा और डॉक्टर भी बता रहे हैं। राहुल गांधी उस इलाज का मजाक उड़ा रहे हैं। कांग्रेस को चुनाव के बाद समाजवादी पार्टी की जरूरत पड़ेगी। समाजवादी पार्टी हो सकता है कांग्रेस के बिना काम चला ले। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की उपलब्धि अखिलेश यादव हैं। प्रदेश को एक नया नेता मिला है।
बहुजन समाज पार्टी को 2007 में मतदाता ने बड़ी उम्मीद से सत्ता सौंपी थी। वह मतदाता की अपेक्षा पर खरी नहीं उतरी। हाथी ने केंद्र की योजनाओं का पैसा खाया हो या नहीं पर पर सर्वजन की उम्मीद को जरूर खा गया। यह पहला मौका था जब गैर दलित बसपा के साथ केवल चुनाव जीतने के लिए नहीं पर दलित नेतृत्व को स्वीकार करने और सत्ता में भागीदारी के लिए गया था। मायावती ने इसे गैर दलितों की मजबूरी समझ लिया।
उत्तर प्रदेश चुनाव की बात हो और भाई साहब यानी चौधरी अजित सिंह की बात न हो ऐसा संभव नहीं। उत्तर प्रदेश की राजनीति में अजित सिंह ऐसा लड्डू हैं इसे जिसने खाया वह पछताया। कांग्रेस दूसरी बार खा रही है। जाट मतदाता चौधरी साहब के साथ हैं पर सवाल है कि क्या उनके कहने से जाट कांग्रेस को वोट देंगे? उनकी लालबत्ती इसी पर निर्भर है।
लेखक प्रदीप सिंह वरिष्ठ स्तंभकार हैं
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