Menu
blogid : 5736 postid : 1474

बाबा रामदेव की स्वाभिमान यात्रा के किंतु-परंतु

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

Awdhesh kumarबाबा रामदेव ने झांसी से राष्ट्रीय स्वाभिमान यात्रा शुरू कर दी है। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की महान नायिका झांसी की रानी से जुड़े स्थान से यात्रा का आरंभ करने का हम अपने अनुसार निहितार्थ निकाल सकते हैं। इसमें दो राय नहीं कि झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की अंग्रेजों से युद्ध एवं मृत्यु की गाथा अब भी देशवासियों को रोमांचित करती है। बाबा ने क्या सोचकर झांसी का चयन किया, इसका जवाब उनके वहां दिए गए भाषण से होता है। इसमें उन्होंने श्रद्धांजलि के साथ भारत के लिए आर्थिक आजादी का लक्ष्य घोषित किया और कहा कि भ्रष्टाचार का अंत करने तथा देश को विदेशी प्रभावों से मुक्त कराने के लिए उसी तरह आज भी शहादत देनी पड़ सकती है। यात्रा के संदर्भ में दिए गए बाबा रामदेव के सारे बयानों, जिनमें लक्ष्मीबाई को श्रद्धांजलि अर्पित करने के बाद ग्वालियर का बयान भी शामिल है तथा झांसी के उनके भाषण को आधार बनाएं तो पहली नजर में तस्वीर ऐसी बनती है मानो उनका उद्देश्य देश को संपूर्ण रूप से बदलना है। इस नाते यह संपूर्ण बदलाव की यात्रा मानी जानी चाहिए, लेकिन क्या देश में इस यात्रा को लेकर कोई उत्कंठा है? क्या इससे किसी प्रकार के बदलाव या जन लहर से सरकार पर दबाव पड़ने की संभावना पैदा हो सकती है? ऐसे अनेक प्रश्न हैं, जिनका उत्तर तलाशना आवश्यक है।


अभी हाल में ही अन्ना हजारे का अनशन खत्म हुआ है और उसकी स्मृति और खुमारी समाज के मन-मस्तिष्क के अंदर विद्यमान है। यह संयोग कहिए या रामदेव की स्वयं की सोच का प्रतिबिंब कि उनका रामलीला मैदान में जून का अनशन भी अन्ना के अप्रैल में संपन्न अनशन के बाद और सरकार के साथ जन लोकपाल पर बातचीत के बीच हुआ और यह यात्रा भी अन्ना के तेरह दिवसीय अनशन की समाप्ति के बाद उत्पन्न माहौल में हो रही है। स्वयं अन्ना ने भी यात्रा पर निकलने की घोषण कर दी है। उनका कहना है कि वे लोगों के बीच जाकर भ्रष्टाचार एवं चुनाव सुधार की बात रखेंगे। उनके एक सहयोगी की घोषणा है कि अन्ना पहले उन राज्यों का दौरा करेंगे, जहां चुनाव है। जरा ध्यान दीजिए, रामदेव की यात्रा का पहला चरण उत्तर प्रदेश, पंजाब एवं उत्तराखंड में ही चलेगा, जहां अगले वर्ष के आरंभ में विधानसभा चुनाव होना है। जाहिर है, अन्ना के अनशन और यात्रा से इस यात्रा की, अन्ना एवं रामदेव के व्यक्तित्व की, दोनों के संदर्भ में आम जन की प्रतिक्रिया तथा सरकार के व्यवहारों की तुलना होने लगी है। इसमें रामदेव चाहे जो कहें, इन तुलनाओं के कारण उनकी नजर में जो मुद्दे हैं केवल उन पर फोकस बनाए नहीं रखा जा सकता है। समर्थक भी दोनों ओर बंटेंगे। यह ऐसा कारक है, जो रामदेव के रामलीला मैदान के अनशन पर भी प्रभावी रहा और अब इस यात्रा पर भी। जिनने पिछले कुछ सालों से बाबा रामदेव के अभियानों पर नजर रखी है, उनके लिए इतना स्वीकार करने में कोई समस्या नहीं है कि उन्होंने देश भर में साढ़े तीन सौ से ज्यादा जिलों की यात्राएं कर लोक जागरण किया, संगठन बनाए। आंदोलन के पहले इस प्रकार की तैयारी हाल के वर्षो में किसी एक व्यक्ति या संगठन ने नहीं किया था।


अन्ना ने इसकी तुलना में ऐसा कोई सांगठनिक काम नहीं किया। दोनों के बीच यह मौलिक भेद है। बावजूद इसके अन्ना के अनशन को सफल एवं सरकार सहित पूरे राजनीतिक प्रतिष्ठान को दबाव में लाने वाला माना जा रहा है, जबकि रामदेव के साथ इसके विपरीत हुआ। उन्हें सरकार ने दिल्ली पुलिस की मदद से खदेड़ दिया। हालांकि अन्ना हजारे को भी जन लोकपाल प्राप्त नहीं हुआ और सरकार ने निश्चित रणनीति के तहत उनका अनशन तुड़वा दिया, लेकिन रामदेव की तुलना में उन्हें ज्यादा वजनी माना जा रहा है। निश्चय ही बाबा ने इस पहलू पर विचार किया होता तो उनके आंदोलन, अपने बयान आदि का नजरिया बदला होता। सच कहा जाए तो इस समय बाबा रामदेव की यात्रा को लेकर देश में आलोचना तो छोडि़ए, सामान्य कौतूहल एवं आकर्षण भी नहीं दिख रहा है। ऐसा नहीं है कि उनसे जुड़े लोगों ने उनका परित्याग कर दिया है या संगठन चरमरा गया है, लेकिन यह उनका दुर्भाग्य है कि अन्ना की ओर आम आकर्षण उनसे ज्यादा मालूम पड़ा है। वस्तुत: रामदेव के अभियान का फलक सामान्य तौर पर बड़ा लगता है। उनके भाषणों और बयानों से संपूर्ण बदलाव की गंध आती है, पर उनकी रणनीति सरकार को दबाव में लाकर मांग मनवाने के सामान्य आंदोलन तक सिमट जाती है।


अन्ना का एकमेव लक्ष्य जन लोकपाल को लोकपाल कानून के रूप में स्वीकृत कराना है और इसके लिए सरकार एवं समूचे राजनीतिक प्रतिष्ठान को दबाव में लाना ही एकमात्र रास्ता हो सकता है। किंतु यह समझ से परे है कि जो व्यक्ति आमूल बदलाव की बात करता हो, वह दिल्ली के रामलीला मैदान में अनशन करके क्या पाना चाहता था? इसका एकमात्र अर्थ यही हो सकता है कि महान भारत, भारतीय सभ्यता और संस्कृति की महानता को पुनस्र्थापित करने की बात करते हुए भी बाबा एवं उनके सहयोगियों के सामने तस्वीर बिल्कुल अस्पष्ट है। मसलन, विदेशों में जमा काला धन और भ्रष्टाचार को ले सकते हें। वे अभी भी यह नहीं समझ पा रहे कि विदेशों में जमा काला धन और भ्रष्टाचार के मामले पर उनका एकाधिकार नहीं है। उन्होंने अवश्य इस पर जन जागरण किया है, लेकिन राजनीतिक दलों से लेकर अनेक संगठन, समूह, व्यक्ति इस विषय को उठा रहे हैं और सरकार अनेक कदम उठाने को बाध्य हुई है। इसमें उनका भी योगदान है, किंतु इसका महत्व राजनीति एवं अर्थ के वर्तमान ढांचे में ज्यादा है। संपूर्ण बदलाव की दृष्टि से इस मुद्दे का महत्व काफी कम है। बाबा सबसे ज्यादा इसी पर बोलते हैं। अपनी यात्रा का लक्ष्य आर्थिक आजादी घोषित करते हुए सबसे ज्यादा बात उन्होंने इन्हीं दो मुद्दों पर किया। बेशक, बाबा के इरादे में कोई खोट नहीं है। जो लोग उन पर तरह-तरह के आरोप लगाते हैं, उनसे सहमत नहीं हुआ जा सकता है।


सरकार अपनी जांच एजेंसियों के माध्यम से उनके सहयोगी, आश्रम एवं कंपनियों पर जिस ढंग से हाथ धोकर पड़ी है, वह भी आपत्तिजनक है और इसका पूरा विरोध होना चाहिए। उनके सहयोगी बालकृष्ण के पासपोर्ट की कथित गलतियां या टैक्स आदि का मामला इतना बड़ा लगता नहीं, जितना दिखाया जा रहा है। किंतु इस समय उनकी यात्रा को सरकार से अपनी लड़ाई का हिस्सा भी मानने वाले हैं। अपनी लड़ाई तो लड़नी ही चाहिए, लेकिन उसका तरीका यह नहीं हो सकता। रामलीला मैदान का उनका अनशन गलत रणनीति का हिस्सा था और फिर आनन-फानन में यात्रा आरंभ करना भी गलत रणनीति ही है। रामलीला मैदान से जिन परिस्थितियों से उन्हें भागना पड़ा या भगाया गया, उसके पीछे का सच जो हो, इससे उनकी छवि को गहरा धक्का लगा। एक संन्यासी का महिला वस्त्र में सामने आना लोग पचा नहीं पाए। बाबा के इस तर्क से कि उन्हें मार डालने की योजना थी, एक कमजोर व्यक्तित्व की छवि उभरी। उनके सहयोगी बालकृष्ण को सार्वजनिक तौर पर रोते-बिलखते देखकर उनके भक्तों के अलावा आम लोगों के अंदर सहानुभूति की बजाय वितृष्णा का भाव पैदा हुआ। लोग बोलने लगे, अरे ये इतने कमजोर हैं! लोगों का प्रश्न यही था कि एक संन्यासी को मरने से क्या भय! जब आप देश बदलने के लिए आंदोलन करने चलते हैं तो आपको सरकारी दमन को सहने के लिए अंतिम सीमा तक की तैयारी होनी चाहिए।


आज उनके विरोध में यह तर्क भी दिया जा रहा है कि अन्ना को भी तो पुलिस ने गिरफ्तार और रिहा किया, लेकिन वे जेल अधीक्षक कार्यालय में ही अनशन करते रहे। बेशक, दोनों की परिस्थतियों में अंतर थे, लेकिन तुलना तो हो रही है। अभी रामलीला मैदा की वे यादें ताजी हैं और आपने यात्रा निकाल दिया। इसका कारण साफ है, आंदोलनों की अनुभवहीनता एवं दृष्टिकोण की अस्पष्टता। एक विफलता से सबक लेकर उन्हें अपने विचार, भविष्य की योजनाओं, संघर्ष के साथियों के साथ अपने संगठन की क्षमता आदि का गंभीरता से मूल्यांकन करते हुए उसमें आवश्यक परिवर्तन करना चाहिए था। ये सारी प्रक्रियाएं तीन महीने में पूरी नहीं हो सकतीं। जाहिर है, बाबा जल्दबाजी में बगैर अपनी कमियों को दुरुस्त किए यात्रा पर निकल पड़े हैं तो इसका परिणाम भी कमियों और प्रभावहीनता के रूप में ही सामने आएगा।


लेखक अवधेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh