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क्रांतिकारियों की ख्याति बहुत कम समय के लिए होती है। उनका संघर्ष और त्याग जितने लंबे समय का होता है, उतनी ही जल्दी वे भुला दिए जाते हैं। ब्रिटिश शासन को खत्म कराने वाले महात्मा गांधी को बहुत हद तक इसलिए याद किया जाता है, क्योंकि भारतीय रुपयों पर उनका फोटो छपा होता है। ऐसा ही पाकिस्तान और बांग्लादेश के संस्थापकों मोहम्मद अली जिन्ना और शेख मुजीबुर रहमान के मामले में भी हैं। ये दोनों भी अपने-अपने देश की मुद्राओं में ही चमकते रहते हैं। जयप्रकाश नारायण को ऐसा कोई सम्मान हासिल नहीं है। हालांकि उन्होंने निरंकुश प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जंजीरों से भारत को मुक्त कराने के लिए 1977 की क्रांति को अंजाम दिया, लेकिन पटना जाने पर मैंने पाया कि अपने राज्य बिहार में भी वह उपेक्षा के पात्र बने हैं। जन्मदिन पर फोटो छापने की बात तो दूर किसी स्थानीय अखबार में उनका कोई उल्लेख तक नहीं था।
बिहार में जेपी के एक अग्रणी अनुयायी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सरकार है, लेकिन सरकार ने जन्मदिन का कोई ख्याल नहीं रखा। देश के लिए नहीं, तो राज्य के लिए भी उनकी सेवाओं को याद करने के लिए सरकारी कार्यक्रम नहीं आयोजित किया गया। पटना हवाई अड्डे का नाम जयप्रकाश नारायण के नाम पर रखा गया है, लेकिन वहां अभी भी उनका नाम गलत स्पेलिंग के साथ दर्ज है। अंग्रेजी में कुछ इस तरह लिखा है कि लोग जय की जगह इसे जइ पढ़ेंगे। कदमकुंआ के संकरे इलाके में स्थित उनका आवास उजाड़ पड़ा था। कोई भीड़ नहीं थी। हमारे जैसे कुछ लोग उनकी प्रतिमा पर माल्यार्पण के लिए वहां खड़े थे। मुझे सबसे अधिक दुख इस बात को लेकर हुआ कि इस भवन के एक हिस्से को कुछ बिल्डर अपने कब्जे में लेने की कोशिश में जुटे हुए हैं जबकि यह आवास संग्रहालय में तब्दील किया जा चुका है, यहां जेपी की किताबें और बेडरूम उसी तरह हैं जैसा वह इस्तेमाल करते थे। लोकतंत्र के पटरी से उतर जाने के बाद जेपी अकेले दम उसे फिर से पटरी पर लाए थे। उन्होंने 1977 के चुनाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को धूल चटा दी थी।
जेपी ने कर दिखाया था कि अगर आम आदमी तानाशाही के खिलाफ पूरी प्रतिबद्धता के साथ खड़ा हो जाए तो किस तरह वह बोलने, लिखने और स्वतंत्रतापूर्वक रहने की आजादी को वापस पा सकता है। इंदिरा गांधी ने संविधान को निलंबित कर दिया था। जेपी ने उसे फिर से बहाल करवाया और अखबारों को उनकी स्वतंत्रता वापस दिलाई। यह अलग बात है कि लोगों को दूसरी आजादी दिलाने के बावजूद जेपी अपने जीवनकाल में ही असफल हो गए। वह बीमार पड़ गए और केंद्र में सत्ता पर काबिज लोगों पर नजर नहीं रख सके। इंदिरा गांधी के निरंकुश शासन और जनता सरकार की निकम्मी सरकार के बीच कोई अंतर नहीं था। मैंने तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई से कहा था कि मंत्रियों के साथ संवाद नहीं रहने को लेकर जेपी दुखी हैं। इस पर उन्होंने रूखे अंदाज में जवाब दिया था, मैं तो गांधी जी से भी मिलने नहीं गया था। गांधी से बड़े नहीं हैं जेपी। जेपी के गांव से दिल्ली वापस आया तो, राजनीति में आई गिरावट को देखा। मनमोहन सरकार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा का बचाव करने में जुटी हुई थी। उन्होंने कंपनी रजिस्ट्रार के पास जो बैलेंसशीट जमा की है, वह उस रियल इस्टेट कंपनी के रिकॉर्ड से मेल नहीं खाती, जिससे उन्होंने जमीन खरीदी है। बताया जाता है कि इस तरह उन्होंने 700 करोड़ की हेराफेरी की है। इस पूरे प्रकरण में अशोक खेमका बधाई के पात्र हैं! उन्होंने गैरकानूनी पाए जाने पर भूमि आवंटन को रद कर दिया। इस बहादुर अधिकारी का तबादला कर दिया गया है। बीस साल की नौकरी में यह उनका चालीसवां तबादला है। इस तरह के मामले उजागर होने से अंधकार भरे माहौल में आशा का संचार होता है। मुझे आश्चर्य होता है कि नेहरू-गांधी परिवार भ्रष्टाचार से किसलिए जुड़ गया।
जवाहर लाल नेहरू पर कोई अंगुली नहीं उठी थी, जबकि वह 17 वर्षो तक भारत के प्रधानमंत्री रहे। यहां तक कि उनके किसी मंत्री पर भी भ्रष्टाचार का आरोप विरले ही लगा। ऐसा नहीं था कि उनके जैसे लोगों का समय सिर्फ त्याग के लिए ही याद करने लायक है। उस समय भी घोटाले होते थे, लेकिन बहुत ही कम। हकीकत यह है कि उनका तरीका साफ-सुथरा था और उन लोगों ने कभी लीपापोती की कोशिश नहीं की। नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी के सत्ता में आने पर सब गड़बड़ हो गया। ढेर सारे पार्टी फंड की बंदरबांट और पब्लिक सेक्टर कंपनियों में भ्रष्ट सौदों का दौर शुरू हुआ। आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी की प्रतिष्ठा तार-तार हो गई और उनके बेटे संजय गांधी ने उन्हें अपने बच्चे का बचाव करने वाली मां के रूप में मशहूर कर दिया था। संजय को किस तरह मारुति कार बनाने का लाइसेंस मिला, किस तरह उन्हें गुड़गांव के निकट कारखाना लगाने को जमीन मिली और किस तरह असुरक्षित कर्ज मिला-इन सबकी याद रॉबर्ट वाड्रा के करोड़ों के भवन निर्माण उद्यम को देखकर ताजा हो जाती है।
नेहरू-गांधी राजवंश का अंग बनने वाले पहले दामाद हैं वाड्रा। नेहरू के दामाद फिरोज गांधी भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ किया करते थे। वह प्रधानमंत्री के आवास पर रहते तक नहीं थे। अलग बंगले में रहते थे, जो उन्हें सांसद होने के नाते मिला था। यह शर्म की बात है कि उसी फिरोज गांधी के बेटे राजीव गांधी का नाम बोफोर्स सौदे को लेकर कलंकित हुआ। इसके कारण राजीव गांधी को 1989 के चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। राजवंश के भ्रष्टाचार का रूप-रंग बदल गया है। राजवंश का कोई सदस्य सरकार में नहीं है, लेकिन वाड्रा ने बवाल खड़ा कर दिया है। कांग्रेस पार्टी और मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल के कुछ सदस्य वाड्रा के बचाव में जुट गए हैं। फिर भी राजवंश की प्रतिष्ठा तो धूमिल हो चुकी है। जेपी ने अपने आंदोलन को जिस तरह मूल्यों से जोड़ने की कोशिश की थी, उससे कितना इतर है यह सब! आंदोलन मूल्यों को पुनर्जीवित करने के लिए था। अन्याय को लेकर गुस्से में खौलते देश के सामने आज फिर से वही चुनौती है। भ्रष्टाचार तो इसका अंग मात्र है।
लेखक कुलदीप नैयर वरिष्ठ स्तंभकार हैं
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