ऋषि कुमार सिंह आपने टीवी पर क्रिकेट मैच देखते हुए हिंदी में कमेंट्री तो सुनी ही होगी। वह विज्ञापन भी जरूर देखा-सुना होगा जिसमें कहा गया है, जो बात हिंदी में है, वह किसी में नहीं। जिन लोगों ने नहीं देखा है, उनके लिए बताते चलें कि विज्ञापन में ऑस्ट्रेलिया के पूर्व गेंदबाज शेर्न यह बात कह रहे हैं। विज्ञापन में यह कहने से पहले उन्हें किताब से हिंदी पढ़कर हिंदी सीखने की सलाह देते हुए भी दिखाया गया है। कह सकते हैं कि क्रिकेट कमेंट्री में अंग्रेजी के मुकाबले में नदारद रहने वाली हिंदी अपनी जगह बनाने में कामयाब हो रही है। खुद अंग्रेजी बोलने वाला खिलाड़ी न सिर्फ हिंदी बोल रहा है, बल्कि पढ़ भी रहा है। कहा यह भी जा सकता है कि हिंदी को बाजार में तवज्जो मिल रही है, लेकिन इन सबके बीच चिंताजनक पहलू यह है कि हिंदी बोलने वाली आबादी का अपनी भाषा को लेकर उत्साह सिमट गया है।
हिंदी भाषी लोगों में अंग्रेजी न जानने का अफसोस दिन-प्रतिदिन गहरा होता जा रहा है। बात यहां तक आ पहुंची है हिंदी भाषी क्षेत्रों की एक बड़ी आबादी हिंदी की किताबों और इस विषय के पठन-पाठन से पीछे हट गई है या हटने की प्रक्रिया में है। उत्तर प्रदेश को ही लीजिए। हिंदी पट्टी के इस हिस्से में विषय के तौर पर हिंदी का पठन-पाठन दयनीय हो गया है। उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद बोर्ड के शैक्षणिक सत्र 2011 के हाईस्कूल नतीजों में सिर्फ हिंदी विषय में सवा तीन लाख बच्चे फेल हुए हैं। कंपार्टमेंट परीक्षा के जरिये दोबारा मौका पाने वाले साढ़े चार सौ बच्चों में से 59 दोबारा फेल हो गए। ऐसे में जो लोग हिंदी के विकास को लेकर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन करने के लिए लालायित रहते हैं, वे विषय के तौर पर हिंदी की दशा-दुर्दशा को लेकर सवाल क्यों नहीं उठाते हैं? हिंदी के खिलाफ संस्थागत सहमति अंग्रेजी भाषी खिलाड़ी जब अंग्रेजी की ही टोन में हिंदी का एक वाक्य बोलता है, तो बाजार और विज्ञापन में हिंदी आने से एक खुशनुमा नजारा बनता है। लगता है कि हिंदी सम्मानित हो रही है, लेकिन रोजगार देने के मामले में यह हकीकत से कहीं दूर है। पठ्न-पाठन के स्तर हिंदी के साथ हो रही ज्यादती तब और विस्तारित हो जाती है, जब रोजगार की शर्त में अंग्रेजी के ज्ञान को अनिवार्य कर दिया जाता है। कहा जा सकता है कि देश में हिंदी बोलने-लिखने-पढ़ने वालों के खिलाफ एक तरह की संस्थागत सहमति तैयार की जा चुकी है।
पिछले कुछ वर्र्षो में जिस तरह सिविल सेवा परीक्षा में हिंदी भाषा में परीक्षा देने वाले प्रतियोगियों की सफलता दर कमजोर हुई है, उसके क्या मायने हैं? क्या हिंदी में लिखने वाले छात्र अंग्रेजी की तुलना में कम प्रतिभावान होते हैं या यह हिंदी के साथ खुली साजिश है? सिविल सेवा परीक्षा अच्छी लोकसेवा देने में समर्थ उम्मीदवारों की तलाश है, ताकि वे समाज को समझने और उसके अनुरूप नीति निर्माण कर सकें। यानी मामला भाषायी ज्ञान के परीक्षण से ज्यादा व्यापक महत्व का है, लेकिन लोक प्रशासक खोजने वाली परीक्षाएं बेहतर अनुवाद क्षमता को परखने का माध्यम बन रही हैं। अन्य सामाजिक विषयों के साथ-साथ हिंदी के साथ एक और दिक्कत पेश आ रही है। विषय का पठन-पाठन और मूल्यांकन लकीर पीटने की तर्ज पर काम कर रहा है। इसका असर यह हुआ है कि युवा पीढ़ी किसी विचार प्रक्रिया के तहत मौलिकता का प्रयोग करने के बजाय किताबी व्याख्याओं पर केंद्रित होती जा रही है। इसके लिए गाइड व स्योर सीरीज के खड़े होते बाजार को सबूत के तौर पर लिया जा सकता है। परीक्षा मूल्यांकन की यह समस्या तब और बड़ी हो जाती है, जब परीक्षा हिंदी माध्यम में दी जा रही हो। आज शायद ही ऐसा कोई संस्थान है, जहां हिंदी माध्यम में हुई परीक्षा को लेकर भेदभाव न किए जाने की बात भरोसे से कही जा सकती है।
अपनी बोली के निहितार्थ कुल मिलाकर कोई समाज या सरकार या जनमानस, जब अपनी बोली-भाषा से भागने की कोशिश करता पाया जाता है, तो आजाद नागरिक के हक के मामले में समस्या देखी जाती है। इसके विपरीत अपनी बोली-भाषा में दिलचस्पी इस बात का संकेत मानी जाती है कि समाज अपनी पहचान को लेकर चिंतनशील है। वह अपने हक के लिए मजबूती से खड़े होने की क्षमता रखता है, लेकिन अपनी भाषा के प्रति उत्साह का अभाव प्रतिरोध के अभाव के रूप में देखा जाता है। ऐसे ही कमजोर दौर में अवसरवादी ताकतों को सबसे ज्यादा विस्तार का मौका मिला है। भारत में हिंदी व अन्य स्थानीय भाषाओं की दुर्दशा और राजनीतिक क्षेत्र की अविश्वनीयता या जनहित के साथ समझौतों की परिघटनाएं साथ-साथ देखी जा रही हैं। अपनी भाषा को जानने या इस्तेमाल करने के समर्थन का अर्थ किसी अन्य बोली व भाषा को सीखने या पठन-पाठन के विरोध से नहीं लगाया जा सकता है। जब कोई अपनी भाषा को भूलकर ऐसा कुछ करता है, तो वह आर्थिक मुनाफे के लिहाज से बेहतर लग सकता है, लेकिन राजनीतिक संदर्भ में यह कदम गुलाम व आजाद होने के बीच के फर्क को नकारात्मक तौर पर प्रकाशित करता है। लिहाजा, मौजूदा दौर की जरूरत है कि इस बात को बड़ी ही स्पष्टता के साथ स्थापित किया जाए कि हिंदी जानना, लिखना व बोलना अयोग्यता नहीं है, जैसा कि इस दौर में समझा जाता है। बल्कि यह उस उत्साह का मूल स्त्रोत है जहां से पठन-पाठन में नया उत्साह पैदा किया जा सकता है और देश-समाज से कटकर होने वाले हिंदी चिंतन का दौर समाप्त हो सकता है।
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