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5 दिसंबर को मुंबई के डोंबिवली में पांच किशोरों ने संतोष विचिवारा नाम के एक युवक को चाकू भौंककर मौत के घाट उतार दिया। ये किशोर एक लड़की पर अश्लील फब्तियां कस रहे थे। संतोष विचिवारा ने जब इसका विरोध किया तो वे उस पर टूट पड़े और उसकी निर्ममता से हत्या कर दी। यानी एक खतरनाक अहं का खतरनाक अंजाम। इसी तरह 17 अक्टूबर 2012 को सातवीं कक्षा के कान्वेंट स्कूल के एक 15 वर्षीय छात्र पिंकू (परिवर्तित नाम) ने अपने ही आठ वर्षीय चचेरे भाई धीरज पंडित का अपहरण कर पहले उसे बांधने की कोशिश की, लेकिन जब वह चीखने चिल्लाने लगा तो अपनी ही नेक टाई से उसका गला घोंटकर मार दिया। यही नहीं, उसकी लाश को 24 घंटे तक एक बक्से में छिपाकर रखा। इस दौरान वह उस पर लगातार परफ्यूम छिड़कता रहा। बाद में मौका पाकर उसकी लाश को नाले में फेंक दिया। दिल्ली के महाराजा अग्रसेन स्कूल के 14 साल की कक्षा के हैप्पी ने खुद को पंखे से झुला लिया, क्योंकि उसके पिता ने उसे मोटर बाइक के लिए पैसे नहीं दिए थे। उसने अपने सुसाइड नोट में लिखा था- नाउ सेव योर मनी। ये चावल के कुछ दाने हैं। आंकड़े बताते हैं कि पिछले कुछ सालों में किशोरों के अपराध में तेजी से वृद्धि हुई है। अकेले मुंबई में ही किशोर अपराध पिछले दो सालों में 13 प्रतिशत बढ़ गए हैं।
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यह गंभीर चिंता का विषय है। सोचने की बात है कि कहां से सीखी हमारे बच्चों ने इतनी क्रूरता, जीवन की इतनी अवमानना, इतनी संस्कार शून्यता, इतनी भावशून्यता? अपराध शाखा के अफसरों ने जब पिंकू से पूछा कि उसने हत्या जैसा क्रूर अपराध क्यों किया तो उसने जबाब दिया कि एक लाख रुपयों के लिए, जिससे वह इलेक्टि्रक पार्ट्स खरीदकर हेलीकॉप्टर का मॉडल बना सके। उसने इस आशय का फिरौती पत्र भी हिंदी में लिखा था। जब उससे पूछा गया कि इस प्रकार अपहरण और हत्या उसने किससे सीखी तो उसने जबाब दिया कि टीवी पर आने वाले एक क्राइम शो से उसे यह आइडिया मिला। जाहिर है, बच्चे वही सीखते हैं, जो आसपास का वातावरण उन्हें सिखाता है। पहले संयुक्त परिवार होते थे। परिवार में दादा-नाना होते थे, जो बच्चों को जाने कितने किस्से कहानियां और लोक कथाएं सुना-सुनाकर न केवल उन्हें संस्कारित करते थे, बल्कि उनके भीतर के सौंदर्य, कल्पना और शुभ को अनजाने ही सींचते भी रहते थे। उनके तरह-तरह के सवालों का प्रेमपूर्वक जबाब दे-देकर उनके भीतर के जिज्ञासु को जीवित रखते थे। बच्चे आत्मीय उष्णता और मानवीयता से भरपूर वातावरण में बड़े होते थे और रिश्तों की गरिमा महसूस करते थे।
आज के मां-बाप बच्चों को समय देने के बजाय लैपटॉप, नेट, पैसे और वीडियो गेम देते हैं। वीडियो गेम अनजाने ही बच्चों के भीतर की कल्पना, सौंदर्य और जिज्ञासु भाव को दबाकर उन्हें आक्रामक बना देते हैं। यही नहीं, उनमें हिंसा के प्रति आकर्षण पैदा कर देते हैं। बच्चे स्वभाव से ही दुस्साहसी होते हैं। उन्हें तोड़फोड़, हो-हंगामा पसंद आता है। वीडियो गेम्स उनकी दुस्साहसी प्रवृत्ति को गलत दिशा देते हैं। इंटरनेट और विज्ञापन बच्चों को समय से पहले ही जवान बना रहे हैं। रही सही कसर बाजार पूरी कर देता है, जो बच्चों को सिखाता है कि असली चीज है सुदंर, अमीर और सेक्सी दिखना। एक सर्वे में लड़कियों से पूछा गया कि वे क्या बनना चाहेंगी? अधिकांश लड़कियों ने जबाब दिया कि वे मल्लिका शेरावत और राखी सावंत बनना चाहेगी। एक स्कूल में कुछ बच्चे असामान्य अवस्था में पाए गए। उनसे पूछा गया कि यह क्या हो रहा है तो उन्होंने कहा कि हम रेप गेम खेल रहे हैं। कहां से सीखी बच्चों ने यह भाषा और यह सोच।
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एक सर्वे के अनुसार इंटरनेट से पोर्न साइट देखने वाले और पोर्न वीडियो डाउनलोड करने वालों में बड़ी संख्या किशोरों और बच्चों की होती है। क्यों हो रहे हैं हमारे बच्चे ऐसे? क्या यह इस समय का ही प्रभाव है या कुछ चूक हमसे ही हो रही है। शायद हां! बच्चों को गढ़ना होता है। पुरानी कहावत है कि एक बच्चे को बड़ा करना सौ मन सोने को गढ़ने के बराबर होता है। क्या हम बच्चों को गढ़ रहे हैं? हमारे समय की दर्दनाक सच्चाई यह है कि सभ्यता की इस लड़ाई में हमने बच्चों को घास-फूंस की तरह बढ़ने को छोड़ दिया है। जब से पूंजी के तर्क और उपयोगिता के सिद्धांत के चलते हमने महिलाओं से उनका मातृत्व छीन बच्चों को के्रश में पलने को विवश किया, हमने बच्चों से भी उनका बचपना छीन लिया है। प्रकृति ने मां और बच्चों के संबंधों को इस प्रकार विकसित किया है कि बच्चों का भावनात्मक संरक्षण मां और सिर्फ मां द्वारा ही संभव है। यह प्रकृति का अपना नियम है, पर आज मनुष्य को पशु बनाने की ताकतें निरंतर सक्रिय हैं। आज बड़ी-बड़ी कंपनियां भी अपने महिला प्रबंधकों और कर्मचारियों के लिए के्रश खोल रही हैं, जिससे कि कार्यरत महिलाएं अपने बच्चे को उनके यहां क्रेश में छोड़कर सौ प्रतिशत कंपनी को समर्पित हो जाएं। क्या ये क्रेश मां की जगह ले सकते हैं? मां की ममता दे सकते हैं? ये सब अधिकतम मुनाफे और पूंजी के अपने तर्क हैं, जिससे जो महिलाएं पहले सौ फीसद नन्हे मुन्नों की होती थीं, वे अब सौ फीसद बॉस की होती हैं। यानी कंपनियों का कारोबार चलता रहे और बच्चे घास-फूस की तरह भावनात्मक शून्यता में बढ़ते रहें।
ऐसे ही भावनात्मक शून्यता में पले बच्चे अक्सर आपराधिक प्रवृति की ओर उन्मुख होते हैं। भीतर का उजाड़ उन्हें हिंसक बना देता है। माता-पिता से सार्थक संवाद बन नहीं पाता है और न ही आत्मीय रिश्ता पनप पाता है। दिल्ली के महाराजा अग्रसेन स्कूल का 14 साल का हैप्पी अगर अपने मां-बाप को समझ पाता तो क्या सुसाइड नोट में लिखता कि अब बचाओ अपना पैसा। कोई भी बच्चा मां-बाप के प्रति इतना क्रूर तभी हो सकता है, जब उसे मां-बाप से भावनात्मक संरक्षण नहीं मिल पाता है। जब मां-बाप उसके लिए सिर्फ एटीएम की तरह होते हैं। कोमल पौधों की तरह बच्चों को हर दिन सींचना होता है। अनचाही और सड़ी हुई घास को हर दिन कांटना-छांटना होता है। भीतर पनपती नकारात्मक प्रवृत्ति को दूर करना होता है। पर यह संभव तभी हो पाता है, जब हम सिर्फ साप्ताहांत में ही नहीं, बल्कि हर दिन उन्हें सींचे, हर दिन कुछ समय बच्चों को दें। उन्हें संस्कारित कर उनमें नैतिक मूल्य पैदा करें। दुर्भाग्य से मुनाफे की बुनियाद पर टिके हमारे स्कूलों का भी सारा जोर प्रतिशत पर ही रहता है। बच्चे अच्छे इंसान बनें, इसकी चिंता उन्हें शायद ही रहती है। इस शताब्दी का दुखद सत्य है कि मीडिया, विज्ञापन, उपयोगिता के सिद्धांत, पूंजी के तर्क और आधुनिकता के तकाजे ने मांओं से उनका मातृत्व छीन उन्हें सिर्फ एक कमोडिटी में बदल दिया है। आधुनिक होना अच्छी बात है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आधुनिकता के इस जंगल में हम इतने भी आगे न निकल जाएं कि वापस जंगली ही बन जाएं। पाब्लो नेरुदा के शब्दों को उधार लेकर कहना चाहूंगी कि हमारी सारी तरक्की और आधुनिकता बेकार है, यदि हम इन नन्हें फूलों को बचा नहीं पाए।
लेखिका मधु कांकरिया साहित्यकार हैं
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