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हम निराशा और उम्मीद के युग में रह रहे हैं। जब हम अपने चारों ओर हताश करने वाला माहौल देखते हैं तो निराश होना स्वाभाविक है। हालांकि इस निराशा-हताशा से उबरने में भारत ने जबरदस्त हिम्मत भी दिखाई है। और यहीं से आशा की किरण भी नजर आती है। भारत में साठ प्रतिशत आबादी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है, जबकि देश की जीडीपी में कृषि का योगदान महज 16 प्रतिशत ही है। जीडीपी में सेवा क्षेत्र का योगदान 60 फीसद है। सेवा के क्षेत्र में यह उछाल इसलिए देखने को मिला है, क्योंकि यह न तो सरकारी नीति पर निर्भर है और न ही ढांचागत सुविधाओं पर। हमारे सामने एक बड़ी समस्या कृषि के क्षेत्र में बेरोजगारी की समस्या का हल निकालना है। इसके लिए बड़ी संख्या में लोगों को कृषि क्षेत्र से विनिर्माण या सेवा क्षेत्र में भेजने की जरूरत है।
एक संसदीय लोकतंत्र में राजनीति देश के जीवन को प्रभावित करती है। नीतियां भारत की दिशा निर्धारित करती हैं। इसमें राजनीति की शक्ति प्रत्यक्ष ही सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अगर कुशासन के बावजूद भारत की जीडीपी एक समय नौ प्रतिशत तक पहुंच सकती है तो सुशासन के शानदार नतीजों का सहज अनुमान ही लगाया जा सकता है। गत दो दशकों से राजनीतिक दल निरंतर नीचे ही जा रहे हैं। बड़ी संख्या में पार्टियां परिवार के इर्द-गिर्द सिमटी हुई हैं। कुछ दलों का तो जाति विशेष ही जनाधार है। इन दलों में दलीय लोकतंत्र का नितांत अभाव है। वंश परंपरा के आधार पर उत्तराधिकारी तय किए जाते हैं। इससे राजनीति की गुणवत्ता में तेजी से गिरावट आ गई है। पहचान की राजनीति का बोलबाला है। इसके बावजूद उम्मीद के कारण मौजूद हैं। भारत का मध्य वर्ग विस्तारित हो रहा है। अव्यवस्था और भ्रष्टाचार से लोगों में बेचैनी है। अकेला जनमत ही राजनीति की दिशा बदल सकता है।
भारत के लोकतंत्र की असल शक्ति तब देखने को मिलेगी जब उपनाम और जातियों को योग्यता और ईमानदारी बेदखल कर देगी। सुशासन के लिए मजबूत नेतृत्व की जरूरत होती है। मजबूत नेतृत्व ही सही फैसले ले सकता है। अगर हम विश्व शक्ति बनना चाहते हैं तो अगले दशक तक कम से कम नौ फीसद की विकास दर हासिल करनी होगी। निरंतर नौ प्रतिशत की विकास दर से निवेश बढ़ेगा और रोजगार पैदा होंगे। इससे सरकार की आय में भी वृद्धि होगी। जाहिर है कि इस राशि को ढांचागत विकास और सामाजिक कल्याण में लगाया जा सकेगा। इस प्रकार गरीबी उन्मूलन की योजनाओं को सिरे चढ़ाने में कामयाबी हासिल होगी। दुर्भाग्य से पिछले कुछ वर्षो से शासन नीतिगत पक्षाघात का शिकार रहा है। इस ढर्रे में बदलाव लाना जरूरी है। नौ प्रतिशत विकास दर हासिल करने के लिए हमें ढांचागत सुविधाओं पर जोर देना होगा। संचार और राष्ट्रीय राजमार्ग जैसे क्षेत्रों में सफलता की गाथा पर भ्रष्टाचार का ग्रहण लग गया है। विनिर्माण क्षेत्र में भी सुधार तेजी से लागू किए जाने चाहिए। हम ऐसे युग में रहते हैं जहां उपभोक्ताओं का सस्ती से सस्ती चीजें खरीदने पर जोर रहता है। सस्ती वस्तुओं का निर्माण सफलता की कुंजी है। ब्याज दरों में संतुलन, ढांचागत सुविधाओं में सुधार, ऊर्जा क्षेत्र में सुधारों का प्रभावी क्रियान्वयन और उचित मूल्यों पर जनोपयोगी सेवा की उपलब्धता आज के समय की जरूरत हैं।
भारत पर्यटन संभाव्यता के दोहन में भी विफल रहा है। पर्यटन से जुड़े उद्योगों पर करों की निम्न दरें, हवाई अड्डों, रेलवे स्टेशनों की दशा में सुधार और सस्ते होटलों की उपलब्धता से इस क्षेत्र को संजीवनी मिलेगी। उच्च कराधान एक अल्पकालिक नीति है, जिससे कभी दीर्घकालिक लाभ नहीं उठाया जा सकता। करों की दरें कम से कम रखी जानी चाहिए। हाल के कुछ वर्षो में शिक्षा तंत्र, सूचना प्रौद्योगिकी, टेलीकॉम, फार्मा, ऑटो, राजमार्ग, आवास आदि क्षेत्रों में हमने बेहतर प्रदर्शन किया है। इस संबंध में जो भी नीतियां बनें वे इन क्षेत्रों के विकास को और बढ़ावा देने वाली हों न कि अवरुद्ध करने वाली। भ्रष्टाचार विकास को निगल रहा है। इससे निवेशक हताश होते हैं, लागत बढ़ती है और काम की गुणवत्ता में गिरावट आती है। 1991 में बनी यह धारणा ध्वस्त हो चुकी है कि लाइसेंस राज के खात्मे के साथ ही भ्रष्टाचार भी खत्म हो जाएगा। जमीनी सौदों और प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन में भारी भ्रष्टाचार के मामले उजागर हुए हैं। प्रभावी लोकपाल की सख्त आवश्यकता महसूस की जा रही है। इसी के साथ भ्रष्टाचार संबंधी कानूनी प्रावधानों को और कड़ा किया जाना चाहिए।
सीबीआइ की स्वायत्तता भी बहस का बड़ा मुद्दा बनी हुई है। हमें ऐसे कानून बनाने होंगे कि देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से काम कर सके। जाति और धर्म के आधार पर सामाजिक तनाव मिटाने की जरूरत है। इसके लिए दोनों समुदायों के बीच सतत वार्ता की जरूरत है। राजनीतिक और धार्मिक नेताओं को बेहद संजीदगी और गंभीरता से इस मुद्दे पर अपनी राय जाहिर करनी चाहिए और पंथिक व जातीय मुद्दों के राजनीतिकरण से हर सूरत में दूर रहना चाहिए। महिलाओं, दलितों और आदिवासियों के हितों की सुरक्षा पर भी खास जोर रहना चाहिए। इसके अलावा भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन का ढर्रा चल पड़ा है। किसी भाषण या फिल्म के खिलाफ प्रदर्शन के आधार पर उसे प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता। भारत बाहरी और अंदरूनी खतरों से जूझ रहा है। देश के विभाजन के बाद से ही कश्मीर पाकिस्तान का अधूरा एजेंडा बना हुआ है। परंपरागत युद्धों में मात खाने के बाद पिछले तीन दशकों से वह भारत में आतंकवाद को बढ़ावा देने में जुटा है। पाकिस्तान को अहसास होना चाहिए कि भौगोलिक सीमाओं का पुनर्निर्धारण अब बीते कल की बात हो चुका है। पाकिस्तान संसद और मुंबई पर आतंकी हमले और हाल ही में भारतीय सैनिकों के सिर काटने जैसी जघन्य हरकतों का जिम्मेदार है।
पाकिस्तान को समझना होगा कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। हमने कश्मीर के संदर्भ में कुछ ऐतिहासिक भूले की हैं। अब जरूरत इस बात की है कि हम आतंक और विद्रोह के खिलाफ जंग के लिए खुद को मजबूत रखें और कश्मीरी लोगों को अपनी तरफ रखें। हमारी नीति जनता के समर्थन और अलगाववादियों के विरोध की होनी चाहिए। इसके अलावा माओवाद भी देश के लिए गंभीर खतरा बन चुका है। करीब दो सौ जिले इसकी चपेट में आ चुके हैं। आदिवासी इलाकों में इन्हें अपेक्षाकृत अधिक समर्थन हासिल है। इनसे निपटने के लिए विकास और प्रहार की नीति अपनाई जानी चाहिए। ये हमारे समय की कुछ बड़ी चुनौतियां हैं। मुझे जरा भी संदेह नहीं है कि अगर हम इस योजना पर काम करें और अपने संसाधनों का भरपूर दोहन करें तो निराशा को आशा में बदलने में अधिक समय नहीं लगेगा।
लेखक अरुण जेटली राज्यसभा में विपक्ष के नेता हैं
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