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एफडीआइ पर सरकार का हठ

जागरण मेहमान कोना
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देश का राजनीतिक उबाल अपने वर्तमान राजनीतिक स्वरूप में चरम की ओर बढ़ता दिख रहा है। पहले डीजल मूल्य वृद्धि और एक साथ मल्टी ब्रांड खुदरा क्षेत्र सहित नागरिक उड्डयन आदि में विदेशी निवेश तथा चार सार्वजनकि कंपनियों में विनिवेश को हरी झंडी देने के बाद जैसी मोर्चाबंदी हुई है, उससे केंद्र की राजनीतिक स्थिरता पर अनिश्चिता का कोहरा मंडराना स्वाभाविक है। 20 सितंबर यानी आज राजग का भारत बंद तथा वामदलों, तेलुगू देशम, सपा, बीजद, जद-सेक्युलर आदि के हड़ताल का अर्थ केवल समूचे विपक्ष नहीं, सरकार के कुछ सहयोगियों का भी उसके विरुद्ध सड़कों पर उतर जाना है। इसके समानांतर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है कि अगर जाना ही है तो लड़ते हुए जाएंगे। देश का प्रधानमंत्री सामान्य परिस्थितियों में ऐसा वक्तव्य नहीं दे सकता। यह स्वयं को योद्धा साबित करने वाला वक्तव्य है, जिससे सरकार के पतन को भारत के विकास की वेदी पर शहीद होना साबित किया जा सकता है। प्रधानमंत्री ने इन फैसलों के बाद योजना आयोग की बैठक में कहा कि विकास के लिए साहसिक और जोखिम भरे फैसले जरूरी हैं। साफ है कि सरकार अपने कदम पीछे लेना तो दूर और कठोर फैसले लेने की तैयारी में है और विपक्ष उसे ऐसा करने से रोकने पर आमादा है। तो फिर होगा क्या? बंद समाधान नहीं गुरुवार यानी आज इस साल का तीसरा भारत बंद होगा। इससे पहले सभी मजदूर संघों ने 28 फरवरी को भारत बंद आयोजित किया और उसके बाद 31 मई को सारे विपक्षी दलों ने बंद किया, जिसमें केंद्र सरकार के सहयोगी दलों का भी योगदान था।


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हालांकि इसके औचित्य-अनौचित्य पर प्रश्न उठाने वालों की कमी नहीं है, लेकिन साल में तीन बार भारत बंद किसी देश की सामान्य स्थिति का परिचायक नहीं हो सकता। इस चक्का जाम से सरकार की राजनीतिक गाड़ी पर ब्रेक लगता है या नहीं, इस समय कहना मुश्किल है। इसके विरोधी तर्क दे सकते हैं कि जब पूर्व के दो भारत बंदों से सरकार के व्यवहार में मौलिक बदलाव नहीं आया तो फिर तीसरे से क्यों आ जाएगा। वह भी उस स्थिति में, जब स्वयं प्रधानमंत्री शहीदी वक्तव्य दे रहे हैं। यह तर्क सामान्य तौर पर सही लगता है। विरोधी दलों के बंद या हड़ताल पर सरकारों की सामान्य प्रतिक्रियाएं अब राजनीतिक सोच के अनुरूप ही होती हैं और उनसे वे अपने निर्णय पर पुनर्विचार नहीं करते, लेकिन यह न भूलें कि अगर ममता के साथ सपा और जनता दल-सेक्यूलर खुदरा क्षेत्र में 51 प्रतिशत विदेशी निवेश का निर्णय वापस कराने पर अड़ गए और इसे राजनीतिक मुद्दा बना लिया तो फिर सरकार के लिए लोकसभा में बहुमत पाना संभव नहीं होगा। यह 18 जुलाई 2008 से विपरीत होगा, जब भारत-अमेरिका नाभिकीय समझौते पर वामदलों के समर्थन वापस लेने के बाद सपा उसके बचाव में आई थी। प्रश्न तो यही है कि ये सरकार से समर्थन वापसी की सीमा तक जाने के लिए तैयार हैं या नहीं? ये जो भी करें, यह बात साफ है कि सरकार ने जान-बूझकर राजनीतिक जोखिम उठाया है। तत्काल इसका यह लाभ तो हुआ है कि कोयला आवंटन में घोटाले का मुद्दा कुछ समय के लिए हाशिये पर चला गया दिख रहा है। इस समय कांग्रेस के लिए यही सामान्य उपलब्धि नहीं है। दूसरे, कल तक मनमोहन सिंह को अक्षम, निर्णय न करने वाले, उपलब्धि विहीन साबित करते विदेशी समाचार पत्र-पत्रिकाओं के सुर अचानक बदल गए हैं।


वाशिंगटन टाइम्स, टाइम्स, वॉल स्ट्रीट जरनल आदि ने इन कदमों का समर्थन करते हुए कहा है कि इससे सरकार की छवि भी बदलेगी और भारत के बारे में दुनिया की राय भी। तो विदेशी मीडिया की आलोचनाओं की परेशानी से भी निजात मिली। जो लोग विदेशी मीडिया द्वारा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की आलोचना के आधार पर सरकार पर हमला कर रहे थे, उन्हें उसके पीछे के इरादे का भान हो जाना चाहिए। उनकी आलोचनाएं तो तथाकथित आर्थिक सुधारों यानी विदेशी निवेश का निर्णय न करने के विरुद्ध थीं। बहरहाल, कांग्रेस के रणनीतिकारों को लगता है कि वे विदेशी आलोचनाओं से मुक्त होकर देसी आलोचनाओं और राजनीतिक हमलों का मुकाबला आसानी से कर सकेंगे। अगर प्रधानमंत्री के वक्तव्य और कांग्रेस की रणनीति को साथ मिला दें तो यह समझते देर नहीं लगेगी कि आने वाले दिनों में सरकार की ओर से आर्थिक सुधारों संबंधी ऐसे कई निर्णय सामने आएंगे, जिनसे विपक्ष और सहयोगी दलों का तेवर और गरम होगा। प्रधानमंत्री ने कहा भी है कि देश के समग्र विकास के लिए कई नीतिगत फैसले लेने की जरूरत है। सरकार पीछे नहीं हटेगी और राजनीतिक दलों को भी राजनीति से ऊपर उठकर सहयोग करना चाहिए। संभव है सरकार आने वाले दिनों में इंश्योरेंस क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने से लेकर पेंशन क्षेत्र में 26 प्रतिशत विदेशी निवेश, एकीकृत वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी पर संविधान संशोधन विधेयक, विदेशी शिक्षा संस्थानों की अनुमति आदि की दिशा में कदम बढ़ाए। वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने राष्ट्रीय निवेश बोर्ड के गठन का प्रस्ताव रखा है, जिसमें प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक हजार करोड़ रुपये से ज्यादा के निवेश को त्वरित हरी झंडी मिल जाए। सरकार के खजाने की दुर्दशा देखकर यह मानना मुश्किल है कि विनिवेश हिंदुस्तान कॉपर-9.59 प्रतिशत, ऑयल इंडिया लिमिटेड-10 प्रतिशत, नाल्को इंडिया लिमिटेड-12 प्रतिशत ओर एमएमटीसी-9.33 प्रतिशत के वर्तमान निर्णय तक ही सीमित रहेगा। हालांकि इन सारे मामलों पर विपक्ष एवं सहयोगी दलों की राय एक नहीं है, पर अगर सरकार कायम रहती है तो विरोधी दलों के साथ प्रचंड मोर्चाबंदी की स्थिति में और तीखापन आएगा।


राजग का भारत बंद तथा अन्य दलों के हड़ताल से सरकार दबाव में आएगी, ऐसा लगता नहीं। कांग्रेस के रणनीतिकार सरकार बचाने की मुहिम में लग गए हैं और जो सूचनाएं आ रही हैं, सारी संभावनाओं पर विचार व तदनुसार तैयारी आरंभ हो गई है। निश्चय ही इसमें एक संभावना सरकार गिरने की भी होगी। अगर इस समय सरकार गिर भी जाती है तो कांग्रेस को लगता है कि वह लोगों से यह कह सकेगी कि हम तो विकास करना चाहते थे, खजाने को मजबूत करना चाहते थे और इसके लिए कठोर कदम भी उठा रहे थे, लेकिन विपक्ष एवं कुछ सहयोगी बार-बार दबाव और धमकी से काम नहीं करने दे रहे थे। साथ ही उसके अनुसार अगर इन कदमों से कुछ आर्थिक दशा सुधरी तो उसके पास उपलब्धियां भी दिखाने को हो जाएंगी। ऐसा न करने से उसके पास कहने को कुछ नहीं रहता और केवल भ्रष्टाचार और आर्थिक संकट के आरोपों पर जवाब देने की स्थिति होती। राजनीति खासकर चुनावी राजनीति में बचाव की मुद्रा कमजोरी का पैमाना होती है और वह ज्यादातर बार वोट खिसकने का ही कारण बनता है। ये खतरे किसके लिए पता नहीं क्यों कांग्रेस कुछ बातें या तो समझ नहीं रही या नजरअंदाज कर रही है। विदेशी मीडिया या विदेश से आने वाली तारीफें उसे चुनाव नहीं जीता सकतीं। दूसरे, आम आदमी का सीधा पाला महंगाई से पड़ रहा है, जिसे भुला पाना उसके लिए कतई संभव नहीं। डीजल के दाम तो गांवों के किसानों की वेदना बढ़ा रहे हैं। इसमें उसे प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष का यह तर्क समझ नहीं आ सकता है कि 12वीं पंचवर्षीय योजना में 8.2 प्रतिशत विकास दर हासिल करने तथा चालू खाते व राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए ये जरूरी थे। सबसे बढ़कर कोयला आवंटन या अन्य घोटालों को न विपक्ष छोड़ सकता है और न देश विस्मृत कर सकता है।


उच्चतम न्यायालयों में सारे मामले आ चुके हैं और उसकी सुनवाई में प्रगति के अनुसार माहौल बनेगा, जिस पर न सरकार का वश है और न विदेशी निवेश, तेल व गैस के दामों में बढ़ोतरी या सरकारी कंपनियों का विनिवेश उसके प्रभाव को कम कर सकेगा। इसका एक पहलू यह भी है कि विपक्ष के पास अब सरकार के विरोध में भ्रष्टाचार और महंगाई के साथ ऐसा मुद्दा भी आ गया है, जिसमें छोटे कारोबारियों के बड़े वर्ग के भावुक समर्थन की भी गुंजाइश है। बीती सदी के नौंवे दशक में भाजपा का चुनाव ग्राफ बढ़ने का एक बड़ा कारण विदेशी विरोध एवं स्वदेशी का सुर भी था। मध्यम वर्ग के अंदर नौकरी और रोजगार जाने का भय तथा व्यापारियों के अंदर विदेशियों के सामने मजबूर हो जाने की आशंका भाजपा के उत्थान का आधार बना था। खुदरा व्यापारियों के साथ गांवों में किसानों के अंदर विपक्ष कई प्रकार की वाजिब आशंकाएं पैदा कर सकता है।


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इस आलेख के लेखक अवधेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं


UPA,Trinamool Congress,TMC, Sonia Gandhi, Manmohan Singh, Mamata Banerjee, Lok Sabha,FDI,Congress,SP, BSP, ममता बनर्जी, यूपीए सरकार.


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