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रामलीला मैदान में रविवार को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इशारों इशारों में ही बहुत कुछ कह दिया। एक तो 2014 लोकसभा की चुनावी बिसात पर एक दमदार चाल चली और वहीं गुरबत और संघर्ष के दौर से गुजर रही बिहार की जनता को एक सुनहरे मुस्तकबिल का ख्वाब भी दिखाया। आम जनता को उम्मीद की एक किरण दिखाई देने लगी है। यह कहने में किसी तरह की झिझक नहीं होनी चाहिए कि आगामी चुनाव में मतदाताओं को अपनी ओर खींचने की जदयू ने एक मजबूत कवायद शुरू कर दी है। दिल्ली के रामलीला मैदान से रैली के बाद निकल रहे लोगों के वक्तव्यों में एक समानता थी- हां, चलो अब लौट चलें। कमोबेस सभी यही कह रहे थे कि अब वापस बिहार लौटने का वक्त हो चला है। और अपने घर लौटने की सुखद अनुभूति की परछाई उनके चेहरों पर साफ देखी जा सकती थी। कहने की जरूरत नहीं कि अगर नीतीश के ख्वाबों का बिहार जमीनी हकीकत पर उतर आता है तो बेशक वे अपने घर लौट जांएगे। दिलों में इस तरह का हसरत उठना अपने आप में एक बहुत बड़ी बात है। बिहार बदलेगा इस सोच को अमली जामा पहनाने के अहम किरदार में नीतीश कुमार को लोग देख रहे हैं। देखना यह होगा कि नीतीश किस कदर उम्मीदों की इस कसौटी पर खड़े उतरते हैं।
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नीतीश ने जहां क्षेत्रीय आधार पर अपनी सियासी जमीन तैयार की है, वहीं उन्होंने राष्ट्रीय स्तर की सियासत को भी बदलने का संकेत दे दिया है। नीतीश ने यह साफ कर दिया कि 2014 चुनाव के बाद उनकी पार्टी उसी दल के साथ हाथ मिलाएगी, जो बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाएगा। उनके इस एलान से यह तो तय है कि उनके साथ गलबहियां करने के लिए अब कांग्रेस भी उतनी ही बेताब है, जितनी उनकी मौजूदा सहयोगी भाजपा। आगे की रणनीति के लिए अपने विकल्प खुला रख नीतीश ने एक साथ कई निशाने साधे हैं। रामलीला मैदान की रैली में भाजपा को दरकिनार कर नीतीश कुमार ने उसे यह संदेश दे दिया है कि उन्हें या उनकी पार्टी को हल्के में नहीं लिया जा सकता है। दूसरे उन्होंने यह भी साफ कर दिया कि नरेंद्र मोदी के मुद्दे पर जिस तरह बिहार भाजपा नेतृत्व अनर्गल आलाप कर बैठता है, वह कदापि बर्दाश्त के काबिल नहीं है। तीसरे, उन्होंने यह संदेश दिया कि बिहार के खतिर वह कांग्रेस को भी गले लगा सकते हैं और चौथे, नीतीश ने अपने धुर विरोधी लालू प्रसाद यादव के लिए भी राजनीतिक खतरे की घंटी बजा दी है। नीतीश के भाषण पर गौर किया जाए तो यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि उनकी निगाहें कहीं और थीं, लेकिन निशाने पर कोई और था। नीतीश ने काफी स्पष्ट शब्दों में इस अधिकार रैली के जरिये अपने धुर विरोधी नरेंद्र मोदी पर व्यंग्यात्मक लहजे में हमला बोला। भाषण के दौरान खासतौर पर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के धन्यवाद बैनर का जिक्र करके नीतीश ने ने मोदी को चिढ़ाया ही है। मोदी को यह एहसास भी कराया है कि भारत का एक खास तबका जो उनसे खफा है, वह नीतीश कुमार को बधाई दे रहा है। साथ ही भाजपा के साथ हमबिस्तर होने की वजह से यदा-कदा उन पर सांप्रदायिक ताकतों के साथ कदम-ताल करने का इल्जाम भी लगता रहा है।
एएमयू का जिक्र कर उन्होंने भजपा को भी यह सख्त संदेश दे दिया है कि उनकी सांप्रदायिक राजनीति का कम से कम जदयू कतई भी समर्थन नहीं करेगा। यह भी एक संयोग ही था कि एक दिन पहले ही नरेंद्र मोदी ने यह माना था कि अगर गुजरात में गरीबी है तो वह बाहरी लोगों की वजह से है। मोदी का ये व्यंग्य बाण उन बिहारियों के लिए था, जो गुजरात की फैक्टि्रयों में काम करते हैं। 24 घंटों से भी कम समय के अंतराल में ही नीतीश कुमार ने करारा जवाब देते हुए कहा कि ऐसी व्यवस्था नहीं होनी चाहिए कि पिछड़े राज्य की तरक्की विकसित राज्यों पर निर्भर हो। बल्कि विकास के हिंदुस्तानी मॉडल की वकालत करते हुए उन्होंने कहा कि उनके फार्मूले के मुताबिक सभी राज्य आत्मनिर्भर बनेंगे और विकास का ऐसा दौर होगा, जो सबको साथ लेकर चलने वाला होगा। निस्संदेह नीतीश कुमार ने इस अधिकार रैली के जरिये पटना से लेकर दिल्ली तक हड़कंप मचा दिया है। पटना में अगर लालू प्रसाद यादव की नींद उड़ गई है तो दिल्ली में भाजपा का सरदर्द बढ़ गया है। आने वाले दिनों में राजनीतिक समीकरण किस तरह के गणित को लेकर सामने आता है, वह बहुत कुछ नीतीश के फैसलों पर निर्भर रहेगा।
इस आलेख की लेखिका निभा चौधरी हैं
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