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कांग्रेस का अनर्गल प्रलाप

जागरण मेहमान कोना
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अफजल गुरु को फांसी देने पर जो बहस छिड़ी है वह देश के लिए शुभ नहीं है। हिंदू आतंक पर गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे के विस्फोटक बयान के बाद भाजपा की प्रतिक्रिया से सरकार बैकफुट पर आ गई। शिंदे ने आतंकवाद का कोई रंग नहीं होता की सफाई दी, पर बात बनी नहीं। इस पर सरकार ने अफजल गुरु की लंबित फांसी को आनन-फानन में अंजाम देकर भाजपा के मुद्दे की हवा निकालने का प्रयास किया। शिंदे के बयान का अनुकूल असर न होता देख सूचना और प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी को मैदान में उतारा गया। इसके बाद ही एक संवाद एजेंसी ने खबर चलाई कि कांग्रेस ने भाजपा से पहल छीन ली। दोनों प्रतिक्रियाओं ने संसद पर हमले की गंभीरता को ढक लिया। क्या देश की सुरक्षा और स्वाभिमान को राजनीतिक दृष्टि से देखना या दिखाने का प्रयास करना उचित है? गृहमंत्री के स्थान पर वित्तमंत्री और सूचना मंत्री को आगे कर सरकार ने स्वयं भी उनकी क्षमता पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। इससे स्पष्ट होता है कि आंतरिक सुरक्षा के दायित्व निर्वाहन में शिंदे पूरी तरह विफल हैं। इसलिए अन्य मसलों के साथ-साथ इस मसले पर संसद में घेराव को झेल पाना सरकार के लिए कठिन होगा। जिस दिन संसद पर हमला हुआ था, मैं केंद्रीय कक्ष में मौजूद था।



केंद्रीय कक्ष में अर्जुन सिंह बैठे थे। हमले की सूचना पर उन्होंने कहा-यह सब नाजी चाल है। जैसे हिटलर ने जर्मनी की संसद पर हमला कराया था, वैसे ही भाजपा कर रही है। इस घटना का उल्लेख मैं इसलिए कर रहा हूं क्योंकि कांग्रेस अपने विरोध में उभरने वाले किसी भी दल के नेता यहां तक कि संवैधानिक संस्थाओं के बारे में भी अनर्गल प्रलाप करने की अर्जुन सिंह की परंपरा पर चल रही है। उनके सबसे बड़े अनुयायी उन्हीं के संबंधी दिग्विजय सिंह बन गए हैं। उन्होंने नियंत्रक एवं महा लेखापरीक्षक विनोद राय पर बेतुकी टिप्पणी की। विकास दर में गिरावट का अनुमान पेश करने वाले सांख्यिकी विभाग के खिलाफ तो वित्तमंत्री चिदंबरम तक बोल बैठे। कुछ महीने पूर्व प्रधानमंत्री ने न्यायालयों को लक्ष्मण रेखा पार न करने की जो सलाह दी थी, उस पर छोटे भैय्या भी मुखरित हो रहे हैं। ऐसा लगता है कि लक्ष्मण रेखा निर्धारित करने और उसे पार करने का एकाधिकार कांग्रेस के पास ही है। आश्चर्य है कि राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के इस बयान पर कांग्रेस कैसे मौन रह गई कि केंद्र में न नेता हैं और न नीति। कांग्रेस में नेता क्या बोल जाते हैं इसका एक नमूना पेश किया महामंत्री शकील अहमद ने। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान में जन्में लालकृष्ण आडवाणी वहां हिंदुओं की सेवा करने के बजाय मेवा खाने भारत आ गए। वह यह भूल गए कि उनके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी पाकिस्तान में ही जन्में हैं और उनकी अध्यक्ष का जन्म इटली में हुआ है।



कांग्रेसी जब भी बयान जारी करते हैं वे समझते हैं कि किसी को न तो देश का भूगोल पता है और न इतिहास। एक टीवी चैनल पर मोदी बनाम राहुल गांधी की चर्चा में भाग लेते हुए मणिशंकर अय्यर ने राहुल के राष्ट्रव्यापी प्रभाव और मोदी के एक क्षेत्र विशेष में असर की चर्चा करते हुए कहा कि राहुल जिस परिवार से हैं उसमें प्रधानमंत्री बनने वालों को दायित्व संभालने से पूर्व कहां कोई प्रशासनिक अनुभव था, लेकिन सभी ने देश को आगे बढ़ाया। जब एक अन्य चर्चा में भागीदार ने उन्हें कांग्रेसी शासनकाल में भ्रष्टाचार की ओर ध्यान दिलाया तो वह बोले कि जवाहरलाल नेहरू के दामाद फिरोज गांधी ने भ्रष्टाचार का मामला उठाया था जिसके कारण तत्कालीन वित्तमंत्री को त्यागपत्र देना पड़ा था। उन्हें आज के दामाद को बेदाग घोषित करने में हरियाणा के मुख्यमंत्री के योगदान का शायद स्मरण नहीं रहा होगा। ये वही मणिशंकर अय्यर हैं जिन्होंने मंत्री रहते हुए अंडमान के सेल्युलर जेल के मुख्य द्वार के पास वीर सावरकर द्वारा अंग्रेज जेलर को दिए गए जवाब की देशभक्तिपूर्ण अभिव्यक्ति के शिलापट को तुड़वा दिया था। अब तो उनकी सरकार को थामे रखने वाले मुलायम सिंह और मायावती भी कहने लगे हैं कि कांग्रेस सीबीआइ का उनके खिलाफ इस्तेमाल कर रही है। यही बात करुणानिधि मुखरित होकर नहीं कह रहे हैं, लेकिन घटनाक्रम तो इसी बात का संकेत देता है।



कांग्रेस का साथ ममता बनर्जी छोड़ गईं और साथ रहते हुए भी शरद पवार खुलेआम केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ बोलने में कोई संकोच नहीं करते। अपने आचरण से कांग्रेस यह साबित कर रही है कि उसकी सहायक केवल एक संस्था है सीबीआइ। इसे कांग्रेस ब्यूरो आफ इंवेस्टिगेशन का खिताब मिल चुका है। अब आयकर विभाग भी उसी रास्ते पर चल रहा है। शायद इन्हीं दोनों सहयोगियों के भरोसे चारणगत की धुन पर नृत्य करते हुए कांग्रेस अपनी नौका डूबने से बचाने की उम्मीद रखती है। कांग्रेस इस समय उस डूबते हुए व्यक्ति की तरह हाथ-पांव चला रही है, जिसे तैरना नहीं आता। देश की समस्याओं को वह पंथनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता में उलझाने का जितना प्रयास कर रही है उतनी ही वह खुद उलझती जा रही है। चाहे फांसी कसाब की हो या अफजल की दोनों के समय ने इस अतिमहत्वपूर्ण मुद्दे को जिस प्रकार राजनीतिक दांवपेच में उलझाने का काम किया है उससे न देश का भला होगा और न ही कांग्रेस का। भारतीय समाज को पंथनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता में अब और उलझाकर रखना संभव नहीं है। जिन समस्याओं से देश जूझ रहा है उनके समाधान के लिए ठोस कार्यक्रम चाहिए।



लेखक राजनाथ सिंह सूर्य राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं

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