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कारोबारी माहौल का अभाव

जागरण मेहमान कोना
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हाल ही में वित्तमंत्री पी. चिदंबरम थकाऊ विदेश दौरे से वापस लौटे हैं, जहां उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था की सुनहरी तस्वीर पेश करते हुए मौजूदा और संभावित निवेशकों को भारत के प्रति लुभाते हुए कहा कि भारत व्यापार के लिए आकर्षक गंतव्य है। उन्होंने रेटिंग एजेंसियों को भी लुभाने का प्रयास किया कि कहीं वे भारत की रेटिंग न गिरा दें। वह अपने मकसद में कितने कामयाब हुए यह तो आने वाले महीनों में ही पता चलेगा जब उनके मंत्रलय को अगले आम चुनाव की तैयारियों के तहत लोकप्रिय राजनीति का बोझ उठाना पड़े उनके दौरे का निहितार्थ देखें तो संकेत अधिक उत्साहजनक नहीं लगते और चिदंबरम यह बात अच्छी तरह जानते हैं। पिछले दिनों मुंबई में उन्होंने सेबी के एक कार्यक्रम में जोरदार भाषण दिया। उन्होंने कहा कि भारतीय व्यापार को बाहर की तरफ देखना बंद कर देना चाहिए और देश में मौजूद निवेश के अवसरों का लाभ उठाना चाहिए, खासतौर पर दीर्घकालिक लाभ वाले ढांचागत क्षेत्र का। वित्तमंत्री ने भारत की संभावनाओं पर खासा जोर दिया, ‘यहां बाजार है, यहां दूसरे देशों से बाजार शिफ्ट हो रहा है, यहां मांग है और यह मांग 20-30 सालों तक तेजी से बढ़ती रहेगी।’


अगर हम संभाव्यता और तथाकथित जनसांख्यिकीय लाभ की कभी खत्म न होने वाली बातों पर जाएं तो वित्तमंत्री का संबोधन मतदाताओं को उत्साहित करने वाला नहीं लगता। मैंने भारतीय साथियों के स्थान पर मतदाता शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया है क्योंकि हम पंचवर्षीय चक्र के उस मोड़ पर हैं जब जनसाधारण अचानक लोकतांत्रिक सशक्तिकरण में तब्दील होने लगता है। चिदंबरम ने मान लिया है कि विदेशों में रहने वाला भारत का व्यापारिक समुदाय भारत के हालात से इतना व्यथित और त्रस्त है कि उसका भारत में निवेश को लेकर उत्साह ही भंग हो जाता है। विदेशों में रहने वालों की यह उम्मीद टूट जाती है कि वे भारत में निवेश कर लाभ कमा सकते हैं। पैसा तो स्टॉक मार्केट में थोड़ी सी दिलचस्पी से भी कमाया जा सकता है और एक साल पहले तक अपने भविष्य को लेकर हैरान-परेशान उभरते हुए देशों के प्रबंधकों के चेहरे पर आज एक बड़ी मुस्कान खिल रही है। हां, आज सेंसेक्स 20,000 अंकों के आसपास मंडरा रहा है, किंतु विश्व की निवेश करने योग्य राशि भारत के इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश के लिए इसलिए तैयार नहीं है, क्योंकि यहां आय प्राप्त होने में लंबा समय लगता है। संभवत: इसीलिए मनमोहन सिंह चीन के सामने घुटने टेकने को उत्सुक थे, जहां निवेश के फैसले हमेशा व्यापारिक आग्रहों के वशीभूत नहीं लिए जाते।


दूसरे, और यह चिदंबरम की चिंता का प्रमुख कारण था, यह लगता है कि भारतीय व्यापारी विदेश में निवेश करना पसंद करते हैं। एक राजनेता को इसमें छल-कपट की बू आ सकती है। पांच हजार सालों की जिस सभ्यता की हम डींग मारते हैं, जैसे उससे विश्वासघात किया जा रहा हो, किंतु संपदा और निवेश के फैसले न तो देशभक्ति से प्रभावित होते हैं और न ही संस्कृति से। ये तो मुनाफे और सुरक्षा पर निर्भर हैं। जो उद्यमी जोखिम उठाने को तैयार हैं, उनके लिए बहुत से विकल्प हैं। बहुत से लापरवाह लोग शॉर्ट कट से पैसे कमाते हैं। कुछ किसी की कृपा से लाभान्वित होते हैं तो कुछ सीधे-सीधे घूसखोरी पर उतर आते हैं। आजकल भारत में इस प्रकार की रोमांचप्रेमी आत्माओं के लिए बड़ा अनुकूल माहौल है। इसमें संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री भारतीय लोकाचार के इन चमकते पहलुओं से भलीभांति परिचित हैं, नहीं तो वह सेबी को इनसाइडर ट्रेडिंग के खिलाफ कार्रवाई के लिए आगाह नहीं करते। इस प्रकार के उदाहरण भारतीयों के लिए आम होते जा रहे हैं।


अधिकांश उद्यमियों को चाहे मोटा मुनाफा न मिले, पर उन्हें व्यापार के अनुकूल माहौल यानी कायदे-कानून पर आधारित व्यवस्था चाहिए। पर यहां इस प्रकार का माहौल है जैसे सरकार पूरी तरह विफल हो गई हो। भारतीय उद्यमी यूरोप में लघु और मझौले उद्योग इसलिए नहीं खरीद रहे हैं कि उन्हें वहां की जीवनशैली पसंद है। न ही वे इससे प्रोत्साहित हो सकते हैं कि वहां महंगी श्रम लागत है और कर्मचारी अकसर निर्धारित काम और समय से अधिक नहीं देना चाहते। इसका एक कारण यह है कि यूरोप के किसी भी देश में निवेश करने से उद्यमियों को पूरे यूरोपीय संघ में आसान पहुंच मिल जाती है। यह भी अकाट्य तथ्य है कि स्थिर व्यापारिक वातावरण एक कंपनी के मूल्य को बढ़ा देता है।


उत्तरी इटली के किसी छोटे से कोने में निवेश और लंदन के मेफेयर, बेलग्रेविया या केनसिंगटन में निवेश में कोई अंतर नहीं है। इनमें से किसी भी जगह निवेश भारत में काम करने की अनिश्चितताओं से छुटकारा दिला देता है। पी. चिदंबरम को यह मालूम होना चाहिए। दक्षिण भारत के चेत्तियार हमेशा बाजार के अवसरों की ताक में रहते हैं, चाहे वे भारत में हों या फिर सिंगापुर में। आज का भारतीय उद्योगपति 1950 से 1990 तक भारतीय अर्थव्यवस्था को अपनी जकड़न में रखने वाले समाजवादी विकार से मुक्त हो गया है और अब उसे मुक्त व्यापार का माहौल चाहिए।


अगर वित्तमंत्री उद्योगपतियों को देशप्रेम के जज्बे या फिर नसीहतों के बल पर विदेश में पूंजीनिवेश से रोकने का अनुचित प्रयास करते हैं, तो वह इसमें कामयाब नहीं हो पाएंगे। उन्हें और उनके प्रधानमंत्री को खुलकर यह स्वीकारना चाहिए कि भारत में कामकाज का माहौल खराब है और यह दिनोंदिन और भी बिगड़ता जा रहा है। विदेशी अकसर स्थानीय व्यापारियों के अनुभव से माहौल भांप लेते हैं। जब वे देखते हैं कि टाटा समूह का आधे से अधिक कारोबार विदेशों में हो रहा है, जब वे देखते हैं कि कोलकाता में कारोबार घट रहा है जबकि ऑस्ट्रेलिया में खनन क्षेत्र में तरक्की की विपुल संभावनाएं हैं और जब वे देखते हैं कि किस तरह फलते-फूलते संचार उद्योग का सरकार ने गला घोट दिया है तो वे सहज ही इससे हालात का जायजा ले लेते हैं। ये सबक हैं किंतु दुर्भाग्य से सीधी बातें करने वाले चिदंबरम भी इससे कोई सीख नहीं ले रहे हैं।कुछ समय से भारतीयों को मुगालता हो गया है कि महानता हमारे देश की नियति है। वे भूल गए हैं कि दैवीय कृपा का पात्र भी सकारात्मक मानव ऊर्जा ही होती है। हो सकता है कि भारतीयों के मतदाता बनने के बाद वे इस भुलावे को दूर कर पाएंगे।

इस आलेख के लेखक स्वप्न दासगुप्ता हैं


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