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यह विडंबना ही है कि एक तरफ भारत महाशक्ति बनने की सोच रहा है, वहीं दूसरी ओर यहां सूडान, बोत्सवाना और पाकिस्तान जैसे देशों से भी ज्यादा गरीबी है। स्थिति यह है कि हर तीसरा भारतीय एक डॉलर से भी कम पर गुजारा करने को मजबूर है। कई अफ्रीकी देशों में गरीबी का स्तर भारत से कम है। सूड़ान में 19.8 फीसदी, पाकिस्तान में 21 प्रतिशत और बोत्सवाना में 31.2 फीसदी आबादी एक डॉलर से कम पर गुजारा करती है, जबकि भारत में यह आंकड़ा 37.2 फीसद है। एक दूसरी सच्चाई यह है कि अमेरिका की इंटरनेशनल फूड पॉलिसी एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट (आइएफपीआरआइ) द्वारा जारी 2012 के वैश्विक भूख सूचकांक (जीएचआइ) में भारत दुनिया के 79 देशों की सूची में 65वें नंबर पर है। भारत की स्थिति इथियोपिया और नाइजर जैसे देश से भी खराब है। वहीं हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल की स्थिति भी भारत से काफी अच्छी है। जबकि चीन उन देशों में है, जिनमें भूख कोई समस्या नहीं है।
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इसे दुर्भाग्य ही कहें कि भारत में हर साल गरीबी उन्मूलन और खाद्य सहायता कार्यक्रमों पर अरबों रुपये खर्च किए जा रहे हैं। फिर भी भारत में भूख और कुपोषण एक गंभीर समस्या बना हुआ है। वर्ष 2000 में संयुक्त राष्ट्र ने सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य निर्धारित किए थे। इनके तहत विकासशील देशों में गरीबी, भूख और बीमारी से पीडि़त लोगों की संख्या में 2015 तक पचास फीसद की कमी लाना है, लेकिन अफसोस की बात है कि गरीबी, भूख और बीमारी से त्रस्त लोगों की संख्या घटने के बजाय बढ़ रही है। विश्व मंच पर तमाम राजनीतिक वचनबद्धताओं के बावजूद आज भी दुनिया के कई हिस्सों में लोग भूख की वजह से मर रहे है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि दुनिया इस लक्ष्य को हासिल करने में फिसड्डी क्यों साबित हुई।
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एंव कृषि संगठन का कहना है कि पूरे विश्व में हर साल इतना भोजन बर्बाद होता है, जिससे प्राकृतिक संसाधनों पर अतिरिक्त दबाव डाले बगैर 50 करोड़ लोगों का पेट भरा जा सकता है। पूरे विश्व में कुल उत्पादित भोजन का एक तिहाई हिस्सा बर्बाद हो जाता है। इससे पहले संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन एफएओ की ओर से जारी एक रिपोर्ट में कहा गया था कि औद्योगिक देशों में 680 अरब डॉलर और विकासशील देशों में 310 अरब डॉलर का भोजन बर्बाद हो जाता है, जबकि आज पूरे विश्व में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या 87 करोड़ के आसपास पहुंच गई है। यानी धरती पर मौजूद हर आठवां व्यक्ति भूख से पीडि़त है। यह विश्व की आबादी का 12.5 फीसद है। इस बात की पुष्टि एफएओ ने 2012 की खाद्य असुरक्षा रिपोर्ट में की है।
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पिछले साल केंद्र सरकार ने भूख से निजात पाने के लिए खाद्य सुरक्षा अधिनियम पेश किया था जिसमें सभी के लिए खाने का अधिकार संरक्षित है, लेकिन कोई नहीं जानता कि देश के मौजूदा राजनीतिक गतिरोध के बीच यह अधिनियम कब पारित होगा। बेशक आज देश में अनाज की कोई कमी नहीं है, लेकिन फिर भी गरीबी, भुखमरी से लोग मर रहे हैं तो इसका जिम्मेदार कौन है? कहा जाता है कि हमारी अर्थव्यवस्था सबसे चमकदार अर्थव्यवस्थाओं में एक है, लेकिन चमकदार अर्थव्यवस्था में इस दाग को सरकार नहीं मिटा पाती कि दुनिया में कुपोषण से मरने वाले सबसे अधिक बच्चे भारत में ही हैं। मौजूदा वक्त में देश की लगभग एक तिहाई आबादी भूखी व कुपोषित है। ऐसे में यह अनुमान लगाया जा सकता हैं कि देश में गरीबी, भुखमरी, कुपोषण और बदहाली की स्थिति क्या है। यह एक सच्चाई है जिसे कोई सरकार स्वीकार करना नहीं चाहेगी। इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारी अर्थव्यवस्था और समाज का स्वास्थ्य इस पीढ़ी के स्वास्थ्य में छिपा है। कुपोषित बच्चों की इतनी भारी संख्या के रहते अपने देश के स्वस्थ भविष्य की आशा नहीं कर सकते।
लेखक रवि शंकर स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
Tag: poverty, penury, destitution, गरीबी रेखा, गरीबी सीमा, गरीबी, कुपोषण, malnutrition
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