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चिदंबरम के लिए गंभीर चुनौती

जागरण मेहमान कोना
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भारतीय अर्थव्यवस्था एक विकट दौर से गुजर रही है। वर्तमान आर्थिक चुनौतियों को देखते हुए राजकोषीय घाटा नियंत्रित करने और आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए उठाए जाने वाले कदम नाकाफी साबित हो रहे हैं और उस पर तुर्रा यह कि 2012-13 में देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) सिर्फ 5 प्रतिशत वार्षिक दर से बढ़ने का अनुमान है। यह दर पिछले दस साल में सबसे नीचे का स्तर है। निश्चित तौर पर नवीनतम अनुमान सरकार और रिजर्व बैंक द्वारा जारी पिछले सारे अनुमानों से भी खराब है। विकास दर के नीचे जाते आंकड़ों पर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) चिंता तो व्यक्त करता है और कड़े उपाय लेने का सुझाव भी देता है, लेकिन परेशानी यह है कि वित्तमंत्री पी चिदंबरम करें तो क्या करें? फार्म सेक्टर में विकास दर पिछले वित्तीय वर्ष की तुलना में 3.6 फीसद से 1.8 फीसद है, मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में यह 2.7 से 1.9 फीसदी और सर्विस सेक्टर में 8.2 से 6.6 फीसद है।



जीडीपी में सर्विस सेक्टर की साझेदारी लगभग 60 फीसदी की है। ऐसे में इस सेक्टर में हो रही 1.6 फीसद की गिरावट का बोझ भारत की अर्थव्यवस्था कैसे संभाल पाएगी? पूरे वित्तीय वर्ष में 5 फीसद के ताजे अनुमान का अर्थ है कि आर्थिक विस्तार की गति 2012-13 की दूसरी छमाही में तेजी से गिरी है, क्योंकि अप्रैल-सितंबर 2012 की छमाही में जीडीपी 5.4 फीसदी रही थी। आम चुनाव होने में साल भर का समय बचा है और ऐसी स्थिति में वित्तमंत्री मनरेगा जैसी सामाजिक योजनाओं का दायरा सीमित करेंगे, इसकी संभावना क्षीण है। हाल की खबरों पर ध्यान दें तो वित्त मंत्रालय ऐसी योजनाओं को कठोरतापूर्वक लागू करने एवं इनमें व्याप्त खामियां दूर करने के लिए गंभीर दिखाई दे रहा है। प्रस्तावित कैश ट्रांसफर स्कीम से इन सामाजिक योजनाओं को और सक्षम बनाने में सहायता मिलेगी। वित्तमंत्री के लिए प्रत्येक बजट कठिन कार्य होता है।



एक तरफ तो सरकार और पार्टी का राजनीतिक एजेंडा और दूसरी ओर समाज के विभिन्न वर्गो, उद्योगों व निवेशकों का दबाव, पता नहीं वित्तमंत्री इसे कैसे झेल पाएंगे? यह कोई आसान कार्य नहीं है और इस वर्ष तो यह और भी कठिन हो गया है, क्योंकि वित्तमंत्री को एक ओर तो लगभग चार वर्षो के वित्तीय अपव्यय का संताप झेलना पड़ेगा, दूसरी ओर विकास दर में गिरावट को रोकने के उपाय ढूंढने होंगे। नि:संदेह वित्तमंत्री के समक्ष मुख्य चुनौती राजकोषीय घाटे को कम करने की है। देखने योग्य बात यह है कि क्या बजट में घाटे को 5.3 फीसद के लक्ष्य तक रख पाने की मंशा वित्तमंत्री पूरा कर पाएंगे? यह भी देखना दिलचस्प होगा कि बजट में आर्थिक नीति-निर्माण की दिशा क्या होगी? परेशानी की बात यह है कि कई विश्लेषकों द्वारा जो परिदृश्य प्रस्तुत किए जा रहे हैं उसके अनुसार राजकोषीय घाटा 5.8-6 फीसद तक होने का अनुमान है। इन दो संख्याओं के बीच सिर्फ आधे प्रतिशत का अंतर ही 55,000 करोड़ रुपये बैठता है। यही कारण है कि रक्षा बजट में पूंजीगत एवं राजस्व कटौती की घोषणा की है।



चिदंबरम ने रक्षा खरीद में 1.9 अरब डॉलर के अतिरिक्त कई अन्य खर्चो में पहले ही कमी कर दी है। इसका लक्ष्य भारी राजकोषीय घाटे की भरपाई करना ही है। इसके अतिरिक्त नए वित्तीय वर्ष में कुछ खर्चो को अगले वर्ष के लिए स्थगित करने की ओर भी सरकार बढ़ सकती है। विनिवेश योजनाएं अपनाने, स्पेक्ट्रम की बिक्री और कर वसूली पर ध्यान दिए जाने से राजकोष में सुधार आ सकता है। वास्तव में घाटे का प्रतिशत समझना ही बजट की मुख्य बात नहीं होती, बल्कि बजट का एक विस्तृत दायरा होता है जिसमें आशा की असीम संभावनाएं मौजूद रहती हैं। फिर भी ऐसी संभावना है कि बजट में एक लोक-लुभावना रुख अपनाया जाए। अमीर लोगों पर ज्यादा कर लगाया जा सकता है। यद्यपि आर्थिक दृष्टि से यह सामान्य तौर पर उचित न लगता हो, लेकिन इसके अतिरिक्त कोई दूसरा उपाय नजर भी नहीं आ रहा। दूसरी ओर, सरकार वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू करने के लिए गंभीर है, अत: संभव है कि जीएसटी के अंतर्गत प्रत्याशित दरों के अनुकूल उत्पाद शुल्क की दरें निर्धारित की जाएं।



हालांकि वास्तविकता भी यह है कि इन सबके बावजूद वित्तमंत्री के पास करों के माध्यम से संसाधन जुटाने के अवसर बेहद सीमित हैं। करों को ज्यादा बढ़ाना व्यापार एवं विकास के लिए बेहतर साबित नहीं होगा। अत: उन्हें एक उपयुक्त रास्ता तलाशना होगा। भारतीय अर्थव्यवस्था के समक्ष जो चुनौतियां हैं वे बजट के माध्यम से दूर होने वाली नहीं हैं। ये चुनौतियां निवेश चक्र, विशेषकर आधारभूत क्षेत्र में, को पुन: चालू करने और बैंकों के नॉन-परफॉर्मिग एसेट्स (एनपीए) को ठीक करने जैसे मुद्दों से जुड़ी हैं। इसके लिए बेहतर राजकोषीय प्रबंधन एवं रिजर्व बैंक की सार्थक मौद्रिक नीतियों का होना जरूरी है। देखना दिलचस्प होगा कि इन दोनों के बीच तालमेल कैसे बैठाया जाता है।



रिजर्व बैंक की हाल की मौद्रिक नीति से पता चलता है कि वास्तविक चुनौतियां सामने खड़ी हैं। तीसरी तिमाही में चालू खाता घाटा और बढ़ने की आशंका है और यदि चौथी तिमाही में महत्वपूर्ण सुधार नहीं दिखाई देता है तो केंद्रीय बैंक को दरों में कटौती करने में पुन: सावधानी बरतनी होगी। चूंकि सरकार को चुनावी वर्ष के लिए रियायतें देने के लिए राजस्व बढ़ाना है अत: इसका अर्थ यह होगा कि प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष कर बढ़े। दोनों तरीकों से बजट में कारपोरेट सेक्टर के लिए अच्छी खबर नहीं होगी। इसके विकल्प के रूप में यदि चिदंबरम पूर्व वित्तमंत्री की भांति करों को बढ़ाने अथवा व्यय को कम किए बिना राजकोषीय घाटे को कम करने के अजीबो-गरीब आंकड़े प्रस्तुत करते हैं तो बाजार उनकी इस चतुराई को भांप लेगा और निश्चित तौर पर सूचकांक नीचे चला जाएगा.



लेखक राजीव मिश्रा वरिष्ठ पत्रकार हैं


Tag:रिजर्व बैंक, वित्तमंत्री,चिदंबरम,राजकोषीय,राजनीतिक भारतीय अर्थव्यवस्था, सकल घरेलू उत्पाद ,जीडीपी,Reserve Bank, Indian economy, gross domestic product, GDP,Finance Minister, Chidambaram,

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