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चुनाव की मर्यादाएं

जागरण मेहमान कोना
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पता नहीं क्यों मुझे पीए संगमा का राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ना ठीक नहीं लग रहा है? बेशक हर आदमी को चुनाव लड़ने का अधिकार है और पूर्व स्पीकर होने के नाते संगमा को यह अधिकार कुछ अधिक ही है, लेकिन राष्ट्रपति पद के लिए जैसी आकुलता उन्होंने दिखाई है, यह स्थिति ही उन्हें राष्ट्रपति पद के अयोग्य ठहरा देती है। राष्ट्रपति का पद देश का सर्वोच्च पद है और इस नाते उसकी कुछ मर्यादाएं हैं। एक मर्यादा मेरे खयाल से यह है कि कोई भी व्यक्ति खुद राष्ट्रपति होना नहीं चाहेगा। लोग उसे इस पद के लिए मनाएगे, राजी करेंगे और बहुत अनुनय-विनय के बाद ही वह इसके लिए तैयार होगा। अच्छा होता कि राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार द्वारा स्वयं नामांकन दाखिल करने का नियम न होता। यह तय करने का अधिकार दूसरों को होता कि वे किसे राष्ट्रपति बनाना चाहते हैं। जिसके पक्ष में बहुमत होता उससे अनुरोध किया जाता कि वह देश का सर्वोच्च पद संभाले। तब उसकी नैतिक ऊंचाई अलग होता। समय अपनी मार्केटिंग खुद करने का है। संगमा पहले दिन से ही अपनी मार्केटिंग कर रहे हैं। संगमा द्वारा उठाया गया यह तर्क बिल्कुल जायज था कि अभी तक भारतीय समाज के सभी वर्गो के प्रतिनिधि राष्ट्रपति हो चुके हैं, बस किसी अनुसूचित जनजाति का सदस्य राष्ट्रपति नहीं हुआ है। इसलिए इस बार किसी जनजातीय व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाया जाए। संगमा को यह तब शोभा देता जब वह इस तर्क के आधार पर किसी और उम्मीदवार की पैरवी कर रहे होते। लेकिन संगमा ने इस तर्क का आविष्कार अपने लिए किया है।


राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवारों की तलाश करते समय ध्यान रखा जाता है कि यह पद किसी एक क्षेत्र, जाति या धर्म तक सीमित न रह जाए। यह लोकतंत्र का एक बुनियादी गुण है। इस क्रम में किसी जनजाति के सदस्य का नंबर आना तय है, लेकिन जब कोई इसी आधार पर चुनाव लड़ता है कि मैं अल्पसंख्यक समुदाय का हं, स्त्री हूं या दलित हूं तो वह इस पद का विखंडन करता है और इसे मोलभाव का विषय बनाता है। अक्सर हारते हुए उम्मीदवार भी इस खुशफहमी में रहते हैं कि वह जीत रहे हैं या अंतत: जीत जाएंगे। हो सकता है पीए संगमा राष्ट्रपति बन ही जाएं। राजनीति में कोई भी चीज अब आश्चर्यजनक नहीं रही, लेकिन यह जीत एक अनैतिक आचरण पर खड़ी होगी। राष्ट्रपति पद के चुनाव में मतदान गोपनीय तरीके से होता है यानी यह तय नहीं किया जा सकता कि किसने किसको वोट दिया है। आम तौर पर राजनीतिक दल अपने सदस्यों को चेता देते हैं कि उन्हें किसके पक्ष में मतदान करना है, फिर भी कुछ सांसद और विधायक अपनी मर्जी के उम्मीदवार को वोट दे ही देते हैं। इसके पीछे पैसा, जाति, मित्रता कुछ भी हो सकता है। बेशक इसका नैतिक आधार अंतरात्मा की आवाज के अनुसार वोट देना बताया जा सकता है, लेकिन जो अंतरात्मा की आवाज को इतना महत्व देता है, वह अपनी पार्टी के आदेश की अवहेलना खुलेआम करेगा तथा अपने विमत के लिए दंडित होना भी स्वीकार करेगा।


विपक्षी दल अकसर इस कोशिश और उम्मीद में होते हैं कि सरकारी दल के कुछ लोग फूट जाएं और विपक्ष के उम्मीदवार को वोट दे दें। इसे व्यावहारिक राजनीति की सफलता माना जाता है, लेकिन है यह एक तरह की अलोकतांत्रिकता ही। अगर आप बहुदलीय लोकतंत्र में यकीन रखते हैं, अगर आप किसी राजनीतिक दल के सदस्य हैं, इससे भी आगे आप किसी दल की ओर से सांसद या विधायक हैं तो आपको अपने वोट की चोरी करने का अधिकार नहीं है। आश्चर्य की बात यह है कि संगमा जीत की उम्मीद इस आधार पर करते हैं कि बहुत से सांसद और विधायक अपने दल के निर्देश की अवहेलना कर उन्हें वोट देंगे। क्या ऐसी उम्मीद करना राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को शोभा देता है। जो राष्ट्रपति इस अनैतिक आचरण के बल पर चुना जाएगा उससे किस नैतिक श्रेष्ठता की आशा की जा सकती है? आज वह अपने लिए दल-बदल की प्रेरणा दे रहा है तो कल अपनी मनचाही सरकार के लिए दल-बदल करवा सकता है।


यानी वह सत्ता के खेल में शामिल हो सकता है, जिसकी आशा राष्ट्रपति से नहीं की जाती। असल में, लोकतंत्र के साथ सबसे बड़ी दुर्घटना यह हुई है कि इसे सिर्फ अधिकारों के साथ जोड़ दिया गया है। यानी लोकतंत्र अहिंसक तरीके से, मतदान द्वारा सत्ता प्राप्त करने का माध्यम है। लोकतंत्र की इस परिभाषा में सत्ता प्रमुख हो जाती है और जिम्मेदारी का स्थान नीचे आ जाता है, लेकिन यह सत्ता केंद्रिकता लोकतंत्र को भीतर से खोखला भी करती है। मैं एक ऐसे लोकतंत्र की कल्पना करता हूं जिसमें लोग सत्ता में जाने से घबराएंगे। इसलिए नहीं कि वे सत्ता से घृणा करते हैं, बल्कि इसलिए कि उन्हें हमेशा संदेह रहेगा कि वे सत्ता का संचालन सर्वश्रेष्ठ तरीके से कर सकेंगे या नहीं? ऐसे व्यक्तियों के लिए सत्ता के स्वाद से सत्ता की जिम्मेदारी ज्यादा अहम होगी। जिस समाज में यह नैतिक संकोच जितना ज्यादा होगा वह समाज उतना ज्यादा लोकतांत्रिक होगा। कल्पना कीजिए उस सरपंच की जो लाखों खर्च कर इस पद पर नहीं आया है, बल्कि गांव के लोगों ने समवेत आग्रह कर उसे इस पद पर बिठाया है। मेरे विचार से विभिन्न पदों के लिए चुनाव इसी ढंग से होना चाहिए।


लेखक राजकिशोर वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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