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सत्रह साल की दोस्ती अब दुश्मनी में बदल गई है। जो कल तक एक साथ दिल्ली में परचम फहराने की कसमें खाते थे अब एक-दूसरे को उखाड़ने का काम करेंगे। भारतीय जनता पार्टी और जनता दल (यूनाइटेड) गठबंधन आखिरकार बिखर गया। जहां भाजपा इसे विश्वासघात कह रही है वहीं जदयू विचारधारा से विचलन का आरोप लगा रहा है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की इस टूट का असर बिहार तक ही सीमित नहीं रहने वाला। दोनों दलों ने जिस बात को साबित किया है वह यही कि आज की राजनीति में व्यक्तित्व विचारधारा पर भारी है। भाजपा नरेंद्र मोदी के बिना नहीं चल सकती और जदयू मोदी के साथ चलने को तैयार नहीं है। दोनों दलों के लिए अब संभावनाओं के नए द्वार खुलेंगे और चुनौतियां भी।1यह दो महत्वाकांक्षाओं की टकराहट है। नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं ने दोनों पार्टियों को अनिश्चितता की ओर धकेल दिया है। नीतीश मोदी के विरोध में जितनी दूर चले गए थे वहां से लौटना उनके लिए कठिन था, पर रविवार को गठबंधन तोड़ने की घोषणा के समय उन्होंने जो कुछ कहा उससे दो बातें साफ हो गईं।
एक यह कि वह लौटना चाहते भी नहीं थे और दूसरी बात यह कि नीतीश कुमार के मन में 12 जून, 2010 से ही मोदी के नाम की फांस चुभी हुई थी। उन्हें मौके की तलाश थी। सिद्धांत उनके पास तैयार था। सांप्रदायिकता बनाम पंथनिरपेक्षता की जिस राजनीति से जार्ज फर्नाडीज पार्टी को दूर ले गए थे नीतीश उस पर वापस लौट आए हैं। उन्हें भाजपा से छुटकारा चाहिए था ताकि वह बिहार में लालू प्रसाद यादव से मुस्लिम वोट अपनी तरफ खींच सकें। विवादित ढांचे के ढहने और गुजरात दंगे के बावजूद जो भाजपा उन्हें कभी सांप्रदायिक नजर नहीं आई वह इसलिए सांप्रदायिक हो गई, क्योंकि उसने नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय भूमिका सौंपने का फैसला किया। नीतीश कुमार बिहार के मुसलमानों के सामने एक शहीदाना अंदाज में खड़े हैं। उनकी पहली कोशिश यही थी कि राजग में रहते हुए मोदी के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को रोक लें। इसके लिए उनकी उम्मीद भाजपा में मोदी विरोधियों पर टिकी थी, लेकिन उनकी यह योजना आडवाणी के संघ और पार्टी के सामने समर्पण के बाद विफल हो गई। उन्हें समझ में आ गया कि भाजपा में मोदी को रोकने का माद्दा अब किसी में नहीं है तो उन्होंने अपना कंधा हटाकर दूसरा दांव चला। इस दांव में तात्कालिक घाटा नहीं है और बिहार में उनकी सरकार को कोई खतरा भी नहीं है।
इस तरह देश की तथाकथित पंथनिरपेक्ष ताकतों की जमात में खड़े होने का उन्हें अब लाइसेंस मिल गया है।1भाजपा में मोदी विरोधी नीतीश कुमार के कंधे से बंदूक चला रहे थे। नीतीश कुमार मोदी को रोकने का आखिरी बहाना थे। जो लड़ाई अभी पर्दे के पीछे से चल रही थी अब खुले में है। अभी तक नीतीश कुमार और भाजपा में उनके समर्थक मोदी पर वार कर रहे थे। अब मोदी के पलटवार का मौका है। इसका पहला संकेत दूसरे मोदी यानी बिहार के वरिष्ठ नेता सुशील मोदी ने दिया है। उन्होंने नरेंद्र मोदी का जिक्र करते हुए कहा कि एक अति पिछड़ी जाति के नेता के पहली बार प्रधानमंत्री बनने की संभावना को रोकने की कोशिश हो रही है। मोदी की जातिगत पहचान को भुनाने की यह पहली कोशिश है। इसकी शुरुआत बिहार से हुई है। नीतीश के सामाजिक समीकरण के लिए यह शुभ संकेत नहीं है। उनका हश्र नवीन पटनायक जैसा होगा या चंद्रबाबू नायडू जैसा, यह तो चुनाव केनतीजे से मालूम होगा। नीतीश कुमार ने यह जोखिम इस आकलन पर उठाया है कि उनके इस कदम से बिहार का मुसलमान लालू यादव को छोड़कर उनके साथ आ जाएगा। कांग्रेस के साथ जाने की खबरों से उन्हें और कांग्रेस, दोनों को फायदा है। इससे नीतीश लालू को कांग्रेस से दूर रख सकेंगे। 1भाजपा अब बिहार में मुख्य विपक्षी दल की भूमिका में होगी। सत्ता में होने का लाभ उसे नहीं मिलेगा तो सत्ता में होने का नुकसान भी अब उसे नहीं ङोलना पड़ेगा। मोदी के बिहार जाने का रास्ता अब खुल गया है। राजग में रहते हुए नीतीश कुमार मोदी की लोकप्रियता का सामना करने से बचे हुए थे। मुख्यमंत्री बनने के बाद पहली बार बिहार में उन्हें मोदी के विरोध का सामना करना पड़ेगा। लालू यादव उनके मर्म पर चोट कर रहे हैं। लालू पूछ रहे हैं कि सत्रह साल भाजपा के साथ रहने के बाद वह पंथनिरपेक्ष होने का दावा कैसे कर सकते हैं।1कहते हैं कि परिवर्तन अपने साथ अनिश्चितता लाता है और अनिश्चितता असुरक्षा का भाव पैदा करती है। जिस तरह से मोदी के कमान संभालने से भाजपा में कई लोग असुरक्षित महसूस कर रहे हैं उसी तरह जनता दल (यूनाइटेड) में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है।
खासतौर से वह विधायक और सांसद जो गठबंधन टूटने के बाद असुरक्षित महसूस कर रहे होंगे। लोकसभा चुनाव नीतीश कुमार के लिए अग्निपरीक्षा की तरह साबित होंगे। उन्हें इस चुनाव में साबित करना होगा कि मोदी को मुद्दा बनाकर राजग से अलग होने का उनका फैसला सही था। भाजपा में कुछ लोग राजग से नीतीश कुमार के अलग होने का शोक मना रहे हैं। वे भूल रहे हैं कि वाजपेयी के नेतृत्व के बावजूद उनकी तेरह दिन की सरकार लोकसभा में बहुमत नहीं जुटा पाई थी। 1161 सीटों के साथ वाजपेयी सांप्रदायिक थे और 180 सीटें आते ही ऐसे पंथनिरपेक्ष हो गए कि सांप्रदायिक ताकतों को रोकने के नाम पर बने संयुक्त मोर्चा के संयोजक चंद्रबाबू नायडू को भाजपा के साथ आने में कोई दिक्कत नहीं हुई। 2004 में भाजपा की सीटों की संख्या फिर कम हुई और पंथनिरपेक्षता के सारे झंडाबरदार सत्ता के नए ठिकाने की तलाश में निकल पड़े। आज की राजनीति का सबसे बड़ा सिद्धांत सत्ता है। सत्ता सामने दिख रही हो तो सबके पास सिद्धांत का मुलम्मा तैयार है। भाजपा अगर सत्ता के सिंहासन तक ले जाने की ताकत रखती हो तो कई नीतीश कुमारों को उसमें पंथनिरपेक्षता की छवि नजर आएगी। आखिर सत्ता से दूर रहने में किसकी रुचि है।
इस आलेख के लेखक प्रदीप सिंह हैं
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