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जल्द चुनाव की जरूरत

जागरण मेहमान कोना
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kuldeep jiiiiiभारत सरकार को मुद्दों का घालमेल करने में महारथ हासिल है। कभी वह राजनीति के साथ आर्थिक मुद्दों का घालमेल कर देती है तो कभी अपने अस्तित्व के साथ आर्थिक मुद्दों को जोड़ लेती है। मौजूदा सत्र में संसद के सामने दो प्रस्ताव थे। एक मनमोहन सिंह की सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव और दूसरा खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से जुड़ा प्रस्ताव। ममता बनर्जी द्वारा पेश किया गया अविश्वास प्रस्ताव पर्याप्त संख्याबल न होने के कारण बहस के लिए स्वीकार ही नहीं किया गया। फिर भी सत्तारूढ़ कांग्रेस निश्चिंत होकर नहीं बैठी है। वह सपा समेत अन्य दलों को अपने पक्ष में कर चुकी है। सरकार को बसपा का समर्थन भी हासिल है। ऐसे में अगर भाजपा और माकपा अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में भी वोट देतीं तब भी सरकार बच जाती। वास्तव में अविश्वास प्रस्ताव का उलटा असर भी हो सकता था। अगर यह सदन में मतदान के बाद गिरता तो कांग्रेस को वोटरों से यह कहने का मौका मिल जाता कि सरकार ने लोगों की बेहतरी के लिए काम किया था, इस कारण वह जीत गई। सभी घोटाले और लांछन धरे के धरे रह जाते। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का सवाल संसद के वोट से नहीं जुड़ा हुआ है। यह पूरे देश से जुड़ा मामला है।


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इस सवाल पर पराजय के भय से सरकार अभी से ही कहने लगी है कि यह एक कार्यपालक निर्णय है, जिसे संसद के समर्थन की जरूरत नहीं होती। हालांकि सपा, बसपा और द्रमुक के रुख को देखने के बाद ऐसा लगने लगा है कि सरकार इस मसले पर भी वोटिंग में जीत जाएगी। केंद्र सरकार इस बात पर जोर दे रही है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का निर्णय राज्यों पर लागू नहीं होता। राज्य अपने स्तर पर खुद निर्णय करेंगे कि वे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश चाहते हैं या नहीं। संभव है कि खुदरा व्यापार का दरवाजा विदेशियों के लिए खोल देने से लोगों को मांग बढ़ने पर मनमाने तरीके से दाम बढ़ा देने वाले दुकानदारों, खासकर अनाज के व्यापारियों से निपटने में मदद मिले, लेकिन यह भी सही है कि सब के सब यानी अनुमानित 5 करोड़ खुदरा व्यापारी इसी तरह के नहीं हैं। बहरहाल, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश देशहित में नहीं है। इन हालात में सरकार इस बात को जान रही है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का निर्णय संसद में नामंजूर होना उसके मुंह पर तमाचा होगा, जिसका फायदा विपक्ष उठाएगा। आखिरकार, यह लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति को तय करना है कि प्रस्ताव पर बहस के बाद वोटिंग भी होगी या नहीं? एफडीआइ पर संसद में बहस के बाद मई 2014 में होने वाले आम चुनाव तक सरकार के बने रहने का सवाल और कठिन हो जाएगा।


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अगर सत्तारूढ़ गठबंधन चाहता है कि देश आगे बढ़े तो फिर मध्यावधि चुनाव से बचने का कोई रास्ता नहीं है। अर्थव्यवस्था आर्थिक सुधारों पर नहीं, बल्कि लोगों के कंधों पर आश्रित है। फिलहाल देश में विकास जैसा कोई माहौल नहीं है। विकास दर घटकर 5.8 प्रतिशत हो गई है तथा सरकार के प्रति जनता और निवेशकों का भरोसा नहीं रह जाने के कारण यह अभी और नीचे आएगी। लोग देख सकते हैं कि व्यक्तिगत पहल पर आश्रित उद्यम बेहतर तरीके से काम कर रहे हैं। सरकारी छेड़छाड़ के बावजूद उद्यमियों ने अपने बूते अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाया है। हकीकत यह है कि विफलता के अधिकांश मामलों के पीछे सरकारी घपले का हाथ है। जिस वक्त लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था में सुधार की जरूरत थी उस वक्त मनमोहन सिंह की सरकार ने कुछ नहीं किया। सरकार चाहे जितनी ऊंची आवाज में इस बात को खारिज कर दे, लेकिन नीतियां के मामले में लकवे और निर्णय लेने में धीमी गति साफ-साफ दिख रही है। भविष्य में सरकार की नीतियां क्या होंगी, इस बात को लेकर कांग्रेस के सहयोगियों समेत राजनीतिक पार्टियां कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रही हैं। कभी-कभी तो कांग्रेस भी इससे कन्नी काटती नजर आती है।


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यह अंदाजा लगाना भी कठिन है कि देश का कितना नुकसान हो रहा है। मौजूदा लोकसभा को बनाए रखने के पक्ष में मुझे बस एक तर्क सुनने को मिला है कि चुनाव हो गए तो अधिकांश सदस्यों को पार्टी टिकट नहीं मिल पाएगा या मिल गया तो वे जीत नहीं पाएंगे। यह तर्क राजनीतिक दलों में खप सकता है, लेकिन परिवर्तन चाहने वाली जनता के बीच नहीं। संभवत: इस बात में दम है कि दोनों मुख्य पार्टियां-कांग्रेस और भाजपा महसूस कर रही हैं कि चुनाव होने पर मौजूदा लोकसभा में अपनी पार्टी के संख्याबल को वे बनाए नहीं रख पाएंगी। आम धारणा है कि 545 सदस्यों वाली लोकसभा में दोनों पार्टियों के सदस्यों की संख्या मिलकर 250 से अधिक नहीं रह जाएगी, लेकिन दोनों पार्टियां इस बात को नहीं महसूस कर पा रही हैं कि उनकी हालत दिन-प्रतिदिन और भी खराब होती जा रही है। संभव है कि कांग्रेस को ज्यादा नुकसान हो, लेकिन भाजपा को भी फायदा नहीं होने वाला। क्षेत्रीय दल जरूर फायदे में रहेंगे। अगले साल की शुरूआत में अन्ना हजारे पूरे देश का दौरा शुरू करेंगे तो इन दोनों पार्टियों की हालत और खराब होगी। वह एकबार बुद्धिजीवियों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर चुके हैं। कोई कारण नहीं बनता कि वह दोबारा ऐसा नहीं कर पाएंगे। वह राजनीति में भले ही नहीं आएंगे, लेकिन जो कुछ कहेंगे, उसका गहरा असर अगले लोकसभा चुनाव में पड़ेगा। और यह सबसे बड़ा कारण है जिसके कारण दोनों पार्टियों को जल्द चुनाव कराना चाहिए। परिवर्तन की हवा तूफान में तब्दील हो जाने के पहले दोनों दल अपनी अपनी स्थिति सुधार सकते हैं, लेकिन पिछले अनुभव बताते हैं कि राजनीतिक दलों ने नई चुनौतियों को स्वीकार करने के बजाए जैसा है वैसा चलने देने को बेहतर माना है।

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लेखक  कुलदीप नैयर प्रख्यात स्तंभकार हैं

Tag: चुनाव, सरकार , विरासत , भारत सरकार , sarkar, election, cunava

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