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दुनिया में सबसे अधिक सर्दी यूरोपीय देशों में पड़ती है, लेकिन ठंड से मरने वालों की संख्या भारत में अधिक है। सबसे ज्यादा गर्मी अफ्रीकी देशों में पड़ती है, लेकिन लू से मरने वाले भी भारत में ही अधिक हैं। सबसे ज्यादा बारिश भू-मध्यरेखीय देशों में होती है, लेकिन बाढ़ से सर्वाधिक मौतें भारत में होती हैं। क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत सबसे बड़े देशों में शुमार होता है, लेकिन भूमिहीनों और बेघरों की संख्या भी यहीं सबसे अधिक है। यह देश दुग्ध उत्पादन में दूसरे स्थान पर है, लेकिन कुपोषण के चलते हर साल हजारों बच्चे दम तोड़ देते हैं। इस देश में अनाज का उत्पादन भी सबसे अधिक होता है, लेकिन भूख से मरने वालों की संख्या यहीं सबसे अधिक है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का स्याह पक्ष यही है कि यहां जनतंत्र जनता के लिए नहीं, बल्कि राजनेताओं और नौकरशाहों के लिए सबसे ज्यादा अनुकूल है।
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राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में भीषण सर्दी पड़ रही है, अगर आप प्रधानमंत्री, मंत्रियों, सांसदों और अधिकारियों के बंगलों से दूर फ्लाईओवरों के इर्द-गिर्द और फुटपाथों पर निगाह डालें तो कई जिंदगियां खुले आसमान तले सोने को विवश हैं। बेसहारा-बेघर लोगों की इस हालत का जिम्मेदार कौन है? इस सवाल का कोई मुकम्मल जबाव हमारे देश में नियम कायदे बनाने वालों के पास नहीं है। पिछले दिनों पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर देर रात ट्रेन से उतरा। स्टेशन परिसर के बाहर फुटपाथ पर कई लोग हाथ-पांव सिकोड़े गहरी नींद में सोए हुए थे। उनके अगल-बगल कुछ कुत्ते भी आराम कर रहे थे। वहां यह दृश्य देखकर इंसान और जानवर के बीच का फर्क खत्म हो जाना स्वाभाविक था। हाड़ कंपाने वाली सर्दी के इस मौसम में लगा जैसे दोनों को एक-दूसरे की जरूरत है। कंपकंपाती सर्दी में ऐसे दृश्य देश के सभी हिस्सों में देखे जा सकती हैं। इंसान होकर इंसान की इस बेबसी को देखने के आदी हो चुके हम लोगों को अब ऐसा लगने लगा है कि फुटपाथ पर सोने वाले लोगों की यही नियति है, जिसे बदला नहीं जा सकता है। दिल्ली में हर वर्ष भूख, बेबसी और बीमारी से करीब चार हजार लोग बेमौत मर जाते हैं, जिनके सिर पर कोई छत नहीं होती।
पिछले साल दिल्ली उच्च न्यायालय ने शीला दीक्षित सरकार को निर्देश दिया था कि दिल्ली में फुटपाथ पर सोने वाले बेघरों के लिए रैन बसेरों के इंतजाम की ठोस योजना न्यायालय में प्रस्तुत की जाए। अदालत ने यह भी जानना चाहा कि राज्य सरकार ऐसा क्यों कहती है कि रैन बसेरों में लोग नहीं आ रहे हैं, जबकि प्राय: लोग सड़कों और फुटपाथों पर रात में सोते हुए देखे जा सकते हैं। असल में भूमिहीनों और बेघरों की यह समस्या एक दिन की नहीं, बल्कि सनातन है। दिल्ली तो सिर्फ इसका एक उदाहरण मात्र है, जहां कहने को आम जनता के लिए नीतियां बनाई जाती हैं। बेघरों को जब भी आश्रय देने की बात होती है तो सरकार जमीन की कमी का रोना रोती है। दूसरी तरफ बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल, सिनेमाघर और फाइव स्टार होटल बनाने वालों को वही सरकार खुले हाथों जमीन मुहैया कराती है। अगर उसकी राह में झुग्गी-झोपडि़यां बाधा बनती हैं तो उन्हें उजाड़ने में जरा भी देर नहीं की जाती। एक अनुमान के मुताबिक दिल्ली की करीब 35 लाख आबादी नरक के समान झुग्गी-झोपडि़यों में जीने को विवश है। वहीं करीब 60 हजार लोगों को एक अदद झुग्गी भी मयस्सर नहीं है। यही वजह है कि लोग सर्दी, गर्मी और बरसात झेलते हुए खुले आसमान तले जीने को मजबूर हैं।
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1985 से दिल्ली सरकार के बजट में हर साल 60 लाख रुपये का प्रावधान रैन बसेरों के लिए किया जा रहा है, लेकिन इस धनराशि का अधिकांश पैसा कर्मचारियों के वेतन, प्रशासन और दूसरे मद में खर्च हो जाता है। दिल्ली में बेघर-बेसहारा लोगों की इस समस्या के लिए कोई एक सरकार या एक दल जिम्मेदार नहीं है। कांग्रेस हो या भाजपा सभी के लिए दिल्ली में रहने वाले लाखों बेघर सिर्फ एक चुनावी मुद्दा हैं। उनकी समस्याओं के समाधान के प्रति कोई भी दल जरा भी गंभीर नहीं है। दिल्ली में शायद ही ऐसा कोई कोना मिले, जहां रात में खुले आसमान के नीचे बेघरों को सोते हुए नहीं देखा जाता। चांदनी चौक, पहाड़गंज, कश्मीरी गेट, पंजाबी बाग और आइटीओ समेत कई स्थानों पर वे अपनी रात ऐसे ही खुले में गुजारते हैं। फुटपाथ पर सोने वालों में ज्यादातर रिक्शा-ठेला चलाने वाले और मजदूरी व भिक्षाटन करने वाले लोग होते हैं, जो अपना सर छिपाने के लिए उन जगहों की तलाश करते हैं, जहां सुबह उन्हें मजदूरी मिल जाए। इस लिहाज से पुरानी दिल्ली का इलाका उन्हें खूब भाता है। एक तो सर्दी की मार, ऊपर से पुलिस की दबिश प्राय: उनकी नींद में खलल डालती है। दिल्ली में हर चीज की कीमत तय है। यही वजह है कि पुलिस फुटपाथ पर सोने वाले लोगों से पैसे वसूलती है। बेघरों के लिए यह स्वीकार करना एक मजबूरी है, वरना उनके सिर से आसमान का साया भी उठ जाएगा। बेघर और बेसहारा लोगों को एक अदद छत मुहैया कराने के लिए देश की अदालतें सरकारों को अक्सर फटकार लगाती रहती हैं, लेकिन किसी पर कोई असर नहीं पड़ता। ऐसा नहीं है कि बेघरों के पुनर्वास के लिए देश में कोई कानून नहीं है। योजनाएं और नियम सब हैं, लेकिन कमी है तो सरकारों में इच्छाशक्ति की। यही वजह है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में एक बड़ी आबादी खुले आसमान के नीचे गुजर-बसर कर रही है।
आजकल भारत के लिए एक विशेषण का जमकर इस्तेमाल किया जा रहा है, तेजी से उभरती हुई महाशक्ति, लेकिन सही अर्र्थो में विकास का यह रथ देश के उन लाखों बेसहारा और बेघरों तक नहीं पहंुचता, जो जमीन को बिस्तर और आसमान को खुली चादर समझकर सो जाते हैं और भोर होने का इंतजार करते हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि सरकार आखिर कब इन विसंगतियों को दूर करेगी? देश के समक्ष आज ऐसे कई यक्ष प्रश्न हैं, जो उचित जवाब की राह देख रहे हैं। इन सबके बीच हमारे हाकिम और हुक्काम गरीबी, भुखमरी एवं बेरोजगारी की समस्या को हर हाल में जिंदा रखना चाहते हैं, ताकि उनका राजनीतिक मकसद भी पूरा हो और उनके नाम पर बनने वाली विविध योजनाओं से आर्थिक लाभ भी मिलता रहे। भारत शायद दुनिया के उन चंद बदकिस्मत देशों में से एक है, जहां राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान बेघरों को खदेड़कर अरबों रुपये पानी की तरह बहा दिए जाते हैं। काश, उन पैसों का कुछ हिस्सा भी ईमानदारी के साथ उन पर खर्च कर दिया जाता तो उन्हें सर्दी, गर्मी और बरसात झेलने न पड़ते। अक्सर निराशाओं में ही उम्मीदें छिपी होती हैं। निश्चित रूप से देश में फुटपाथों पर रात गुजारने वालों की संख्या देखकर मन विषाद से भर जाता है। ऐसे हालात में जनता न्यायालय से उम्मीद करती है कि वही कुछ करे, क्योंकि सरकार तो इस मामले में पूरी तरह संवेदनहीन हो चुकी है।
लेखक अभिषेक रंजन सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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