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गुरु द्रोणाचार्य-एकलव्य की परंपरा वाले देश में गुरु-शिष्य के बीच की खाई लगातार गहरी हो रही है। पढ़ने-पढ़ाने वालों के बीच तालमेल का अभाव साफ दिख रहा है। दोनों के रास्ते अलग-अलग क्यों हैं? आखिर कमी किस स्तर पर है? कुछ अध्यापकों और छात्रों के अनुभवों से ही इसे समझने की कोशिश करते हैं। मैकेनिकल इंजीनियरिंग डिग्रीधारी 21 वर्षीय साहिल गुप्ता को नौकरी की तलाश है, लेकिन अब उन्हें अपने स्कूल की सामाजिक अध्ययन की कक्षा की याद आती है। वजह साहिल खुद बताते हैं कि नया राष्ट्रपति चुन भी लिया गया लेकिन इसकी प्रक्रिया के बारे में मैं कुछ नहीं जानता। इसी जानकारी का अभाव मेरी नौकरी की राह में बाधा बन रहा है। चंडीगढ़ की 25 वर्षीय सुगंधा गुलाटी को गणित समझ नहीं आता था। बस जैसे-तैसे 12वीं का किला फतह किया। अब एक ट्रैवल एजेंसी से जुड़ी सुगंधा कहती हैं, मैंने गणित समझने की कोशिश तो बहुत की, पर बात नहीं बनी। मैं कहींपीछे छूट गई थी और मैडम बहुत आगे निकल चुकी थीं। दोषी कौन, अध्यापक या छात्र? एक बड़ा तबका मौजूदा स्थितियों के लिए अध्यापकों पर हल्ला बोलता है। मशहूर शिक्षाविद् और दिल्ली के कई स्कूलों की प्रबंध समितियों से जुड़े प्रो. रियाज उमर स्वीकार करते हैं कि समस्या इतिहास, हिंदी और सामाजिक अध्ययन जैसे विषयों में ज्यादा गंभीर है। अध्यापक भी अपने विषय पढ़ाने के लिए खुद को अपडेट नहीं करते।
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लेक्चर रोचक नहीं बनाते। नतीजतन इनकी कक्षाओं से छात्र भागते हैं। वहीं, विज्ञान के अध्यापक आमतौर पर मेहनत करते हैं और छात्रों को भी मजा आता है। लेकिन क्या गड़बड़ सिर्फ सामाजिक अध्ययन तक ही सीमित है? क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि छात्रों को कभी बेहतर और रोचक तरीके से विषय पढाए जाएंगे? आईआईटी, खड़गपुर के पूर्व छात्र मुआसिर हुसैन सैयद भी इस समस्या के लिए दोष अध्यापकों में ही ढूंढ़ते हैं। उनका कहना है कि स्कूल में अध्यापकों को आमतौर पर इससे सरोकार नहीं होता कि वे जो पढ़ा रहे हैं, उसे छात्र कितना समझ रहे हैं। वे कोर्स खत्म करने को ही अपनी ड्यूटी समझते हैं, सीबीएसई भी उनसे यही अपेक्षा रखती है। नतीजतन छात्रों और उनके बीच खाई लगातार बढ़ती रहती है। ग्रामीण इलाकों में तो हालात और भी बदतर हैं। यूनीसेफ और यूनेस्को की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक पांच राज्यों के गांवों में प्राइमरी स्कूलों में दूसरी कक्षा के सिर्फ 20 फीसद बच्चे ही दो अक्षरों वाले शब्द पढ़ पाए। तीसरी कक्षा में यह आंकड़ा बढ़कर 42 फीसदी हो गया। यह अध्ययन राजस्थान, झारखंड, हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश और असम के 30 हजार छात्रों पर 15 महीने तक किया गया था। रिपोर्ट के मुताबिक सबसे ज्यादा नियमित अध्यापक राजस्थान में हैं, जबकिझारखंड में ज्यादातर स्कूलों को पैराटीचर्स (शिक्षामित्र) ही चला रहे हैं। नामी-गिरामी स्कूलों को छोड़कर सरकारी और गांवों के स्कूलों में अध्यापक खुद को वक्त के साथ तैयार नहीं कर रहे। वे अपना विषय सालों-साल एक ही ढर्रे से पढ़ाते रहते हैं।
अफसोस कि सीबीएसई द्वारा ट्रेनिंग लेने के बावजूद अध्यापक खुद को बदल नहीं पा रहे। दूसरे पहलू पर भी गौर करना जरूरी अध्यापक अभिभावकों के निशाने पर रहते हैं, लेकिन हमें इसके दूसरे पहलू पर भी गौर करने की जरूरत है। हमें देखना पड़ेगा कि बच्चे अपनी कक्षाओं को कितनी गंभीरता से लेते हैं? नोएडा के लोटस इंटरनेशनल स्कूल की प्रिंसिपल मधु चन्द्रा पूरे दावे के साथ कहती हैं इन दिनों फेसबुक, इंटरनेट, प्ले-स्टेशन जैसी चीजें बच्चों का ध्यान भटका रही हैं। फिर शहरों में माता-पिता भी नौकरीपेशा हैं। जाहिर है, वे अपने बच्चों की पढ़ाई को लेकर उन्हें बहुत ज्यादा वक्त नहीं दे पाते। मुझे अफसोस इसलिए होता है कि इस पूरी बहस के दौरान इस पहलू को हमेशा अनदेखा कर दिया जाता है। लेकिन क्या अध्यापकों और छात्रों के बीच की बढ़ती खाई के लिए इन दोनों के अलावा तीसरा भी कोई पहलू है, जिसके कारण ऐसी परिस्थिति पैदा हुई? कुछ लोग अध्ययन-अध्यापन के बीच इस दूरी की वजह पाठ्यक्रम में भी तलाशते हैं। लेकिन क्या वाकई ऐसा है? एनसीईआरटी 2006 से राष्ट्रीय पाठ्यक्रम रूपरेखा (नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क) केआधार पर अपनी किताबें नए दौर की जरूरतों के हिसाब से तैयार करने लगी है।
एक पायलट प्रोजेक्ट के तहत, मथुरा जिले के कुछ गांवों के स्कूलों में पहली कक्षा के छात्र-छात्राओं को अक्षर ज्ञान चित्रों के जरिए करवाने की पहल की गई। इसी तरह छठी, सातवीं और आठवीं की सामाजिक अध्ययन की किताबों में भी भारी बदलाव किए गए। इनमें विज्ञापन पर भी एक अध्याय रखा गया, जिसका फोकस इस बात पर है कि विज्ञापन हमें और हमारे समाज को कैसे प्रभावित करते हैं। अब 9वीं और 10वीं की सामाजिक अध्ययन की किताबों में राजनीतिक दलों की नीतियों, सिद्धांतों और नेताओं पर फोकस रखा गया है। पहले की किताबों में तथ्य होते थे और उन्हें छात्रों से याद करने की अपेक्षा की जाती थी। यानी एनसीईआरटी ने वक्त के साथ कदमताल करना शुरू कर दिया है। इस क्रम में आठवीं कक्षा की हिंदी की पाठ्यपुस्तक में वरिष्ठ लेखक अरविंद कुमार सिंह का एक निबंध भी रखा गया है, जिसमें प्रमुख नेताओं के बीच पत्राचार पर गहन चर्चा है। इसमें जवाहरलाल नेहरु और इंदिरा गांधी, कार्ल मार्क्स और एंगेल्स जैसे नेताओं के बीच पत्र व्यवहार को रोचक तरीके से पेश किया गया है। प्रो. योगेन्द्र यादव भी इस पहल को ईमानदार कोशिश मानते हैं, लेकिन इन तमाम सुधारों के बावजूद ऐसा क्या है जो डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के दौर के छात्र-अध्यापक संबंध दोबारा बनने से रोक रहा है? इसकी तह में जाने के लिए हमें एक नजर अपनी शिक्षा व्यवस्था पर भी डाल लेनी चाहिए। हाल ही में एनसीईआरटी के पूर्व अध्यक्ष प्रो. जे. एस. राजपूत ने ग्रेटर नोएडा में नया आशियाना बनाया। उनकी चाहत थी कि वे वहां रहने वाले गरीब परिवारों के बच्चों को पढ़ाएं। उन्हें यह जानकार हैरानी हुई कि वे अपने बच्चों को अपना पेट काटकर ट्यूशन भेज रहे थे। दरअसल, पूरा देश ही ट्यूशन नाम की महामारी की चपेट में है। हालांकि सरकार लगातार ऐसे प्रयास कर रही है जिससे ट्यूशन का गोरखधंधा बंद हो सके। इसके लिए कई बदलाव भी किए गए। आईआईटी एंट्रेंस टेस्ट का स्वरूप भी बदला गया। करियर लांचर के प्रमुख सत्यनारायणन राजपूत को भी लगता है कि इससे ट्यूशन संस्कृति पर चोट लगेगी।
आईआईटी में दाखिले के लिए 12वीं क्लास के बोर्ड के अंकों को ज्यादा वेटेज मिलेगा। इसके लागू होने के बाद उम्मीद करनी चाहिए कि तब आईआईटी में दाखिला लेने के इच्छुक लाखों शिक्षा का कारोबार चला रहे कोचिंग सेंटरों का रुख कम करेंगे। बदलावों से उम्मीद यूपीएससी की सिविल सेवा के पाठ्यक्रम में भी इसी क्रम में बदलाव किया गया है। क्योंकि यूपीएससी की तैयारी कराने वाले कोचिंग सेंटर सालों से चले आ रहे नोट्स की ही कॉपी छात्रों को थमा कर करोड़ों रुपयों का कारोबार चला रहे हैं। इससे छात्रों के मन में भी पैसे से शिक्षा खरीदने का भाव पैदा होता जा है। ऐसे में अध्यापकों और छात्रों के बीच खाई का बढ़ना लाजिमी है। यानी सवालिया निशान एक बार फिर शिक्षा व्यवस्था पर लगा है। प्रो.राजपूत निराशा के साथ इसका ठीकरा सरकार की गलत नीतियों पर ही फोड़ते हैं। वह कहते हैं, शिक्षा जैसे बुनियादी और अहम सवाल पर सरकार और समाज गंभीर नहीं हैं। देश के नौ प्रतिशत स्कूल सिर्फ एकटीचर के भरोसे चल रहे हैं। 20 फीसद में सारा दारोमदार शिक्षामित्रों पर ही है। अध्यापकों के लाखों पद खाली पड़े हैं। यहां तक कि आईआईटी तक में पर्याप्त अध्यापक नहीं हैं। ऐसे में समझा जा सकता है कि शिक्षा को कितनी तरजीह दी जा रही है। चलते-चलते बात फिल्म थ्री इडियट्स की। आपको याद होगा कि किस तरह फिल्म का एक अहम किरदार माधवन न चाहते हुए भी इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के लिए पढ़ाई करता है। सिर्फ इसलिए क्योंकि उसके पिता यह चाहते हैं। यह फिल्म देखने के बाद कुछ पलों के लिए तो मुस्कान तैर जाती है, पर मूल सवाल वहीं खड़ा है, आखिर कब से सुगंधा और साहिल जैसे लाखों-करोड़ों नौनिहाल स्कूल की पाठशाला में मस्ती के साथ ज्ञान अर्जन कर सकेंगे?
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गीता शुक्ला स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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