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तंग गलियों का जिंदगीनामा

जागरण मेहमान कोना
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बीते महीने जनगणना 2011 एक रिपोर्ट आई थी। यह रिपोर्ट बताती है कि झुग्गी-बस्तियों में रहन-सहन, सुविधाओं और चीजों की वास्तविक स्थिति क्या है। जिन बसेरों को हम स्लम कहकर नकार देते हैं, आज भी हर छह में से एक भारतीय ऐसी ही किसी बस्ती में रहता है। यह आधा सच है, फिर भी भयावह। आधा इसलिए क्योंकि यह सिर्फ उन कस्बों का आंकड़ा है जिन्हें तकनीकी शब्दावली में स्टेच्युटरी टाउन कहा जाता है। इसमें सेंसस टाउन शामिल नहीं हैं। स्टेच्युटरी टाउन यानी हर वह जगह जहां नगर निगम है, छावनी है या राच्य के कानून के मुताबिक एक क्षेत्रीय समिति है। देश में ऐसे कस्बे 4041 हैं। सेंसस टाउन यानी कम से कम 5000 की जनसंख्या वाले इलाके, जिनमें कम से कम 75 फीसद पुरुष गैर कृषि कार्य में लगे हों। ऐसे कस्बों की संख्या 3894 है। बावजूद इसके इस रिपोर्ट में कुछ बातें ऐसी हैं जिन पर खुश हुआ जा सकता है और कुछ बेहद गंभीर हैं जिन्हें अनदेखा करने का मतलब होगा खुद को पीछे धकेलना। वैसे तो स्लम शब्द लंदन में 19वीं सदी में इस्तेमाल किया गया था। फिर इंग्लैंड में गृह सुधार आंदोलन के दौरान इसे कानूनी रूप दे दिया गया। 1880 तक आते-आते यह शब्द शहरी जिंदगी में घुल-मिल गया, लेकिन इसके लोग अलग-थलग ही रहे। आज आप किसी भी शहर की चौहद्दी में कदम रखिए सबसे पहले आपको स्लम ही दिखाई देंगे।


कानून में स्लम को स्पष्ट रूप में ऐसी जगह बताया गया है जो इंसान के रहने लायक कभी नहीं रही। संकरी गलियां, न साफ पानी न ताजी हवा, न घर में एक रोशनदान, न घर का कोई आकार, छोटी-सी जगह में बड़ी-सी भीड़ और हर वह स्थिति जो घुटन पैदा करती है। फिर भी 68 करोड़ लोग (स्टेच्युटरी टाउन का आंकड़ा) ऐसी जगहों पर रहने को मजबूर हैं। यदि इसमें सेंसट टाउन की स्लम आबादी को और जोड़ दिया जाए तो संख्या लगभग दोगुनी पहुंच जाएगी। फिर भी हम अपनी शहरी ग्रोथ पर इठलाते है। जैसे-जैसे शहरी क्षेत्र बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे स्लम भी बढ़ते जा रहे हैं।


महाराष्ट्र में सबसे अधिक 21,359 स्लम हैं। विशाखापत्तनम की करीब आधी आबादी स्लम में रहती है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ अपने देश में ही लोग ऐसी अपमानजनक जिंदगी जीने को मजबूर हैं। दक्षिण अफ्रीका में दुनिया की सबसे ज्यादा स्लम आबादी रहती है। देश की शहरी आबादी का 61.7 फीसद झुग्गी-बस्तियों में ही गुजर-बसर करता है। सबसे कम स्लम आबादी उत्तरी अमेरिका में 13.3 फीसद है। बहरहाल, इससे खुश हुआ जा सकता है कि भारतीय स्लम सुधारों की ओर अग्रसर है। निश्चित रूप से जो सुधार हो रहे हैं वे पर्याप्त नहीं हैं, लेकिन बगैर रोशनदान के भी उजाले की एक किरण उन अरबों लोगों की जिदंगी में प्रवेश करती दिख रही है। झुग्गी-बस्तियों में 90.5 फीसद लोगों के पास बिजली पहुंच रही है। 72.7 फीसद लोगों के पास फोन हैं और 10.4 फीसद लोगों के घरों में कंप्यूटर भी हैं। करीब 70 फीसद घरों में टीवी है। ये आंकड़े बताते हैं कि कैसे इतनी बड़ी आबादी अपना जीवन स्तर सुधारने के लिए संघर्षरत है।


इन आंकड़ों में एक बेबसी भी है तो एक उम्मीद भी। बेबसी इसलिए क्योंकि इस आबादी का बड़ा हिस्सा आज भी बड़े-बड़े बैंकों की छांव तले रहते हुए भी उन बैंकों की सेवाओं से लैस नहीं है। उम्मीद इसलिए कि यह आबादी धीरे-धीरे जाग रही है। यदि इन लोगों को थोड़ा और जागरूक किया जाए, पढ़ाई के प्रति, स्वच्छता के प्रति, बैंकिंग के प्रति तो बड़ा बदलाव लाया जा सकता है। यह सिर्फ एक रिपोर्ट नहीं बल्कि भारत की बड़ी गरीब आबादी के संघर्ष की दास्तान है, जो बढ़ते शहरीकरण के साथ चलने वाली जनसांख्यिकीय संलयन की प्रक्रिया से पैदा होने वाली चुनौतियों का पुलिंदा है।


इस आलेख की लेखिकाज्योति शर्मा हैं

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