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जाने-माने समाजशास्त्री आशीष नंदी के बयान से उत्पन्न विवाद पर कुछ विद्वानों ने साझा वक्तव्य देकर पूरे प्रकरण को नया मोड़ देने की कोशिश की है। वे इसे अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल बना रहे हैं और दलित-बहुजन समाज की तरफ से बोलने वालों को नासमझ लोगों की जमात मान रहे हैं। आशीष का यह बचाव बेमतलब है। स्वंय दलित-बहुजन समाज के बुद्धिजीवियों ने आशीष के बयान को खारिज करने के बावजूद जोर देकर कहा कि वे उनके खिलाफ किसी तरह की कानूनी कार्रवाई की मांग का समर्थन नहीं करते। उन्होंने लगातार कहा कि नंदी के बयान पर बहस होनी चाहिए, उनके खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई नहीं होनी चाहिए।
आशीष की अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में आवाज उठा रहे दलित-बहुजन बुद्धिजीवियों की ताकत पर शायद भरोसा नहीं था! अचानक कुछ बुद्धिजीवियों ने हस्ताक्षर अभियान के साथ साझा बयान जारी कर दिया। यह आशीष के बयान पर शुरू हुई बहस को भटकाने की कोशिश जान पड़ती है। जिस दिन आशीष ने टिप्पणी की, मेरे जैसे उनके प्रशंसकों को सहसा यकीन नहीं हुआ कि उन जैसा सामाजिक-मनोविज्ञानी इतना सतही, संकुचित और अनर्गल बयान दे सकता है। आशीष नंदी का बयान न केवल तथ्यात्मक तौर पर गलत है, बल्कि वह समाजशास्त्रीय संदभरें की भी अनदेखी करता है। पर इसके लिए उनके खिलाफ पुलिस कार्रवाई हो या मुकदमा दर्ज किया जाए, इसका कतई समर्थन नहीं किया जा सकता। बौद्धिक विमर्श में धौंस या धमकी के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। पर बहस तो होनी चाहिए कि एक बड़ा बुद्धिजीवी क्यों और कैसे अचानक दलितों-पिछड़ों और आदिवासियों के सर्वाधिक भ्रष्ट होने का सत्य-संधान करता है और उन वगरें की तरफ से कड़ी प्रतिक्रिया आने पर देश के गणमान्य विद्वान अभिव्यक्ति की आजादी की जंग में उतर आते हैं।
नाराज वगरें और उनके राजनेताओं को समझाया भी जा सकता था कि वे आशीष जैसे विद्वान के खिलाफ कटुता का भाव छोड़ें, जैसा विख्यात बहुजन-चिंतक कांचा इलैया, सुखदेव थोरट, चंद्रभान प्रसाद या अन्य लोगों ने प्रयास भी शुरू किया। पर गणमान्य विद्वान दलितों-आदिवासियों के खिलाफ आधारहीन टिप्पणी करने वाले समाजशास्त्री की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कथित खतरे को सबसे अहम मसला बनाने की कोशिश कर रहे हैं। क्या इससे दलितों-उत्पीडि़तों के बीच वे संदिग्ध नहीं होंगे? मुझे लगता है, आशीष को बिना शर्त माफी मांग कर मामले को समाप्त कर देना चाहिए था। आशीष ने जयपुर में ही सफाई दी कि वह इस मंतव्य से सहमत हैं कि हमारे समाज में भ्रष्टाचार समतामूलक शक्ति बन गया है। आशीष की सफाई बेतुकी है। पहली बात तो यह कि नंदी या देश के किसी सामाजिक-राजनीतिक शोध संस्थान के पास ऐसा कोई आंकड़ा नही है, जिसमें इस तरह के तथ्य आए हों कि सर्वाधिक भ्रष्ट लोग दलित-आदिवासियों या पिछड़े वगरें से आते हैं। अपने समाज, राजनीति, कॉरपोरेट और बौद्धिक जगत का जायजा लें तो सामान्य तौर पर भी यह सही नहीं जान पड़ता कि ज्यादा भ्रष्ट दलित-पिछड़े और आदिवासी ही होंगे। यह उत्पीडि़त समुदायों के प्रति सरासर अन्याय है। दूसरी बात कि सम्माननीय, ईमानदार या महाभ्रष्ट बनाने या सिद्ध करने के तंत्र पर आखिर कब्जा किसका है! चौतरफा आलोचना के बाद नंदी अब दलित-पिछड़े नेताओं के भ्रष्टाचार के भी पक्ष में बयान देने लगे हैं। यह उनका शीर्षासन है।
नंदी के बयान में एक और कुतर्क शामिल है, जिसमें कहा गया कि बंगाल की वाम मोर्चा सरकार लंबे समय तक सूबे में रही और वह अपेक्षाकृत एक साफ-सुथरी सरकार थी। यह इसलिए संभव हो सका क्योंकि उसके चलाने वालों में दलित-पिछड़े और आदिवासी शामिल नहीं थे। यानी सवर्ण समुदाय के संचालन और नेतृत्व में ही साफ-सुथरा शासन सुनिश्चित हो सका। आशीष के बयान के इस अंश से भी साबित होता है कि वह वाकई दलितों-पिछ़ड़ों और आदिवासियों के भ्रष्टाचार को लेकर जाने-अनजाने पूर्वाग्रहग्रस्त हैं। अगर बंगाल की वाम मोर्चा सरकार अन्य सरकारों के मुकाबले ईमानदार या साफ-सुथरी रही है तो क्या इसकी वजह सिर्फ यह कि उसे चलाने वालों में कोई दलित-पिछड़ा या आदिवासी नहीं था? तो केरल की अपेक्षाकृत साफ-सुथरी एलडीएफ नेतृत्व वाली ज्यादातर सरकारों के बारे में नंदी क्या तर्क देंगे?
आशीष नंदी का जयपुर-बयान अनर्गल प्रलाप है। इस विवाद से दो प्रमुख पक्षों के निजी हित सधे। आशीष नंदी और मेला आयोजकों के। दोनों सुर्खियों में आ गए। इन दोनों को विवादों में रहने की आदत भी है। इससे व्यावसायिक लाभ भी होता है। अनुदान-सहायता, सम्मान, मीडिया-कवेरज और फेलोशिप में इजाफा होता है। दलित-पिछड़े-आदिवासी आपका क्या बिगाड़ लेंगे? कुछ समय तक बयान आएंगे, फिर शांत हो जाएंगे। विमर्श तो अभिजन ही करेंगे। दलित-आदिवासियों को भ्रष्ट कौन बना रहा है, किसने उनके नेताओं को खरीद-बिक्री का कौशल सिखाया है? नंदी जिस समतामूलक पहलू की बात कर रहे हैं, वह भी इस भ्रष्ट और विकृत तंत्र के बचाव में इस्तेमाल हो जाता है। मौजूदा तंत्र की संरक्षक शक्तियां ही दलितों-पिछड़ों के बीच से उभरते नेतृत्व को अपने ढंग से उठाती-पटकती और योजनाबद्ध ढंग से भ्रष्ट भी करती हैं। यह सही है कि यह सब यांत्रिक ढंग से नहीं होता, इसकी अपनी सामाजिक-राजनीतिक गत्यात्मकता है। भ्रष्टाचार के लिए बुनियादी तौर पर अगर कोई दोषी है तो वह शासक अभिजन समूह है, जिसमें हमारे समाज की सारी वर्चस्ववादी शक्तियां शामिल हैं। बुद्धिजीवियों, अब तय करो, आप किसके साथ हो!
लेखक उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार हैं
Tag: आशीष नंदी, जयपुर,समाजशास्त्री, भ्रष्टाचार, दलित-पिछड़े, ashis nandy, jaipur, sociologist
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