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दहशत का हथियार मैसेज बम

जागरण मेहमान कोना
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दुनिया ने अफवाह बम का कहर पहले भी कई बार देखा है, लेकिन हिंदुस्तान के अनुभवों में मोबाइल क्रांति के बाद इसका आतंकी इस्तेमाल मौजूदा दौर से पहले इस तरह कभी नहीं हुआ था। दक्षिण के राज्य जहां आमतौर पर उत्तर-पूर्व के लोगों के साथ उत्तर भारतीय शहरों की तरह मजाक और छेड़छाड़ की हरकतें भी नहीं होतीं, वहां अचानक आंधी-तूफान की तरह झुंड के झुंड मोबाइल मैसेज चुन-चुनकर उत्तर-पूर्व के लोगों के मोबाइल सेटों पर आ रहे थे। उनके ई-मेल बॉक्स भी अचानक धमकियों से भर गए थे। अचानक और बड़े पैमाने पर हुए इस हमले से उत्तर-पूर्व के लोग जिनमें 90 फीसदी तक युवा और अधेड़ हैं, सकते में आ गए। उन्हें सूझ ही नहीं रहा था कि वे करें क्या? इन मैसेज बमों से डरें, दहशत में आएं या इन्हें जिंदगी में पार्ट ऑफ द गेम समझते हुए इनकी अनदेखी कर दें। लोगों ने दहशत में एक-दूसरे से अपने डर को बांटना क्या शुरू किया, ये मैसेज बम अफवाहों से भी कई गुना तेज रफ्तार से फैलने लगे। हर कोई जिसके पास इस तरह के मैसेज आ रहे थे, वह अपने दोस्तों, रिश्तेदारों और जानने वालों को जब इनका हमराज बनाता तो बिना कहे ऐसे मैसेजों के हमले कई गुना ज्यादा तीखे होने लगे। बातें दोस्तों, परिचितों से आगे बढ़कर जब घर यानी मां-बाप और रिश्तेदारों तक पहुंची तो मैसेज बम के हमलों का असर कई गुना ज्यादा हो गया। आतंकी यही चाहते भी थे।


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असम सांप्रदायिकता की आग में अभी झुलस ही रहा था कि मैसज बमों के इस खौफ ने उत्तर-पूर्व के लोगों को बाध्य कर दिया कि वे एक ऐसी हड़बड़ी पैदा करने का जरिया बने, जिससे आतंकवादियों के मंसूबे सफल होते लगे। दरअसल, पहले से ही सांप्रदायिक हिंसा से डरे, सहमे उत्तर-पूर्व के लोगों इन मोबाइल संदेशों के बारे में सुनते ही देश के दूसरे भागों में रहने वाले अपने बच्चों से कहा कि वे हर हाल में लौट आएं। अफवाहों का आतंक कहने की जरूरत नहीं है कि बेंगलूर, हैदराबाद, पुणे में लगभग अफरातफरी का माहौल पैदा हो गया। रेलवे स्टेशनों पर हर तरफ से जो भीड़ उमड़ रही थी, उसमें 90 फीसदी से ज्यादा सिर्फ और सिर्फ उत्तर-पूर्व के लोग थे। जो जिस हालत में था, वह उसी हालत में अपने गांव, शहर जाने के लिए रेलवे स्टेशन आ गया। बेंगलूर से चार नई रेल गाडि़यों को गुवाहाटी के लिए चलाया गया, जबकि पुणे और हैदाराबाद से भी विशेष ट्रेनों की व्यवस्था की गई। हालांकि इसी दौरान इन राज्यों के साथ-केंद्र सरकार भी उत्तर-पूर्व के लोगों से लगातार यह कह रही थी कि वे अफवाहों में न आएं। किसी साजिश के तहत असामाजिक तत्व उन्हें मैसेज बम के जरिये डरा रहे हैं। लेकिन पता नहीं यह सरकारों के प्रति अविश्वास का नतीजा था या असम में हिंसा के चलते अंदर तक लोगों में बस गए डर का नतीजा कि किसी भी कीमत पर उत्तर-पूर्व के लोगों ने इन आश्वासनों पर भरोसा नहीं किया। इस अफवाह के नए आयाम बने मैसज बम के हमले की पृष्ठभूमि मुंबई में हुआ वह हिंसक प्रदर्शन था, जिसमें दो लोगों को मौत के घाट उतार दिया था, जबकि 36 से ज्यादा पुलिसकर्मी गंभीर रूप से घायल हुए थे। सबसे बड़ी बात यह थी कि इस बार आतंकवादियों ने आतंक के इस ड्रामे की पटकथा इतने मौलिक ढंग से लिखी थी कि कोई भी चकरा जाए। यह पहला ऐसा मौका था, जब उन्माद और गुस्से से भरे प्रदर्शनकारियों ने मीडिया और पुलिस को निशाना बनाया।


पुलिस से तो हालांकि प्रदर्शनकारी पहले भी टकराते रहे हैं, लेकिन मीडिया को पहली बार हिंसक तरीके से निशाना बनाया गया। इससे भी ज्यादा भड़काऊ और भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने वाला खेल यह हुआ कि मुंबई स्थित अमर जवानों की शहीद ज्योति बुझा दी गई और शहीद समाधि स्थल पर तोड़फोड़ की गई, जो जबरदस्त सांप्रदायिक हवा देने वाली गतिविधि थी। प्रदर्शनकारियों का अपने इस हिंसक विरोध को जायज ठहराने का तर्क यह था कि मीडिया एकतरफा खबरें देता है। सबसे ज्यादा प्रदर्शनकारियों को गुस्सा इस बात पर था कि मीडिया म्यांमार में मुस्लिमों के हो रहे कत्ल-ए-आम पर कोई खबर नहीं दिखाती। दरअसल, प्रदर्शनकारी शायद इस कदर उग्र और आग बबूला इसलिए थे, क्योंकि सोशल नेटवर्किग साइटों में तमाम संदिग्ध वेबसाइटों द्वारा भेजी गई ऐसी सामग्रियों की भरमार हो गई, जिसमें कहा गया था कि दुनिया के तमाम हिस्सों में मुसलमानों के साथ ज्यादती हो रही है। सबसे ज्यादा म्यांमार और असम को फोकस किया जा रहा था। सोशल नेटवर्किग साइटों के जरिये लोगों पर सूचनाओं का जहरीला जाल फेंका जा रहा था और उनकी योजना के मुताबिक लोग इन जहरीले जालों में तेजी से फंस भी रहे थे। असम के बारे में लाखों लोगों के पास भेजे गए संदेशों और वेब कंटेंट में यह बताने की कोशिश की गई कि वहां हजारों अल्पसंख्यकों को मार डाला गया है और उनकी जमीन-जायदाद पर स्थानीय लोगों ने कब्जा कर लिया है, जबकि ये तमाम बातें सिरे से झूठ और आपराधिक श्रेणी की थीं।


खुफिया तंत्र की नाकामी लोगों को तो बरगला दिया गया ही था, लोग गुस्से से उबल रहे थे और आतंकवादियों की साजिशें फलफूल रही थीं। हालांकि यह सब कुछ एक झटके में हुआ और यह कह सकते हैं कि तमाम राज्य इससे निपटने की तैयारी में भी नहीं थे। लेकिन दो बातें ध्यान में रखनी ही होंगी। पहली बात तो यह कि असम में हुए भीषण दंगों के बाद इस तरह की गंध मिल रही थी कि देशभर में सांप्रदायिक रंग का प्रदर्शन हो सकता है और इस प्रदर्शन के खून-खराबे की तरफ बढ़ने के भी संकेत थे। हैरानी की बात यह है कि आइबी ने महाराष्ट्र पुलिस को आजाद मैदान में अल्पसंख्यकों की होने वाली विरोध प्रदर्शन रैली के पहले ही बताया गया था कि इसमें कुछ शरारती तत्व माहौल बिगाड़ सकते हैं, बावजूद इसके न तो स्थानीय प्रशासन के कानों में जूं रेंगी और न ही स्थानीय प्रशासन ने ऐसी आशंकाओं से निपटने के लिए तैयारी की। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत आज अमेरिका से ज्यादा और शायद इजरायल के बराबर आतंक पीडि़त देश है। भारत में हर साल आतंकी वारदातों के चलते 51 खरब रुपये का आर्थिक नुकसान हो रहा है। दस हजार से ज्यादा प्रशिक्षित विभिन्न पुलिस बल, अ‌र्द्धसैनिक व सेना के जवान मारे जा रहे हैं तथा ढाई से तीन लाख लोग हर समय इन आतंकी गतिविधियों के चलते इसकी पीड़ा झेलने के लिए अभिशप्त रहते हैं।


बावजूद इसके अगर हम इस बात के लिए तैयार नहीं हैं कि आने वाले समय में आतंकी गतिविधियां तकनीक के नए से नए आयाम को छुएंगी तो हमारे जैसा बुद्धू कोई नहीं होगा। यह बात कई साल पहले ही आतंकवाद से निपटने के लिए होने वाले वैश्विक सम्मेलनों, बैठकों में स्पष्ट हो चुकी है कि आने वाले दिनों में आतंकवादी सूचना प्रौद्योगिकी का खतरनाक इस्तेमाल करने के कैसे-कैसे हथकंडे अपनाएंगे। भारतीय सेनाओं के द्वारा आतंकवाद से लड़ने के लिए जो ब्लू प्रिंट बनाया गया है, उसमें भी इस बात को विस्तार से चिह्नित किया गया है कि कैसे आने वाले सालों में आतंकवादी इंटरनेट और मोबाइल फोन का खौफनाक इस्तेमाल करेंगे। लेकिन इन आशंकाओं के बावजूद हमारी तमाम खुफिया एजेंसियां और पुलिस बल किस तरह उदासीन रहते हैं, इसका अंदाजा यकायक हुए मैसेज बम के हमले और उसके सामने हमारी तकरीबन असहायता ने स्पष्ट कर दिया है। इस पूरे संदर्भ में एक और महत्वपूर्ण बात गौरतलब है। आमतौर पर हम छोटी-छोटी बातों के लिए भी केंद्र को दोषी ठहराते हैं, लेकिन इस बार उत्तर-पूर्व के लोगों के खिलाफ जो आतंकी साजिश रची गई, वह ऐसे प्रांतों से शुरू हुई, जो आमतौर पर ज्यादा जिम्मेदार और सुगठित माने जाते हैं। यह भविष्य के खौफनाक आतंक की महज बानगी भर लगता है। हमने इससे सबक नहीं लिया तो आने वाले सालों में मैसेज बम इन्फॉर्मेशन एटम बम में बदल सकते हैं।


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लोकमित्र स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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