- 1877 Posts
- 341 Comments
तय समय-सीमा के भीतर नेपाल की जनता को संविधान न देकर संविधान सभा ने नेपाली जनता के साथ विश्वासघात किया है। इसी के साथ सहमति और संघीयता का हवाला देने वाली संविधान सभा की मंशा का भी पर्दाफाश हो गया है। नेपाली सियासत के शूरमाओं ने अक्टूबर-नवंबर में चुनाव की घोषणा कर नेपाली राजनीति की बिसात पर जो गोटियां फेंकी हैं, वे भी केवल नेपाली जनता को मूर्ख बनाने के लिए है। नेपाली सियासत से आहिस्ता आहिस्ता नेपाली जनमानस का मोहभंग होता नजर आ रहा है। शातिरबाजों की कामचलाऊ सरकार के प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई ने मुगालते में हकीकत को देखने से इन्कार कर दिया, क्योंकि सियासत में हादसे नहीं होते। संविधान सभा के चार साल पूरे होने के बावजूद कोई भी सियासी दल नेपाल को स्थायी सरकार नहीं दे पाया। अतीत की ओर देखें तो 27 मई 2008 को नेपाल के राजनैतिक इतिहास के पन्नों में गणतंत्र अंकित हो गया, लेकिन किसी भी दल के नेता का लक्ष्य स्पष्ट नहीं है। नेपाली गणतंत्र के शैशवकाल के चार सालों के दौरान नेपाली राजनीति के शीर्ष स्थान के चौथे प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई भी नेपाल के गणतंत्र को सही रणनीति नहीं दे पाए। बाबूराम भट्टराई भी नेपाल की सियासी पार्टियों की अंदरूनी चालबाजियों से भी बेखबर रहे। संविधान सभा को चलाने में 11 अरब रुपये की बर्बादी हुई और इस दौरान सिर्फ प्रधानमंत्री बदलने का खेल चलता रहा। नेपाली जनता को आश्वासनों के ढेर पर बिठाकर रंगीन सपने ही दिखाए गए। यही वजह है कि सभी राजनीतिक पार्टियों को सबसे ज्यादा अपनी ही पार्टी के लोगों के विरोध का सामना करना पड़ रहा है। गौरतलब है कि पूर्व प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोइराला ने अपने ही दल के नेताओं के विरोध के कारण अपनी ही पार्टी की बहुमत वाली सरकार को भंग कर देश को मध्यावधि चुनाव की आग में झोंक देने की जो शुरुआत की थी, इसी के साथ नेपाली राजनीति में अस्थिरता का दौर शुरू हुआ और नेपाली कांग्रेस का ग्राफ भी नीचे गिरता गया।
Read: क्या भारत की अंडर-19 क्रिकेट टीम भविष्य की टेस्ट टीम हो सकती है ?
पूर्व प्रधानमंत्री माधव नेपाल को अपने ही दल के नेता झलनाथ खनाल के विरोध के चलते प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। आज अगर बाबूराम भट्टराई की कामचलाऊ सरकार को गिराने के लिए उनकी ही पार्टी के सशक्त नेता मोहन वैद्य किरण उतारू हैं तो यह नेपाल के लिए नई बात नहीं है। हकीकत तो यह है कि राजनीतिक पार्टियां और नेता नेपाल की राजनीतिक दुर्दशा की अनदेखी कर अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए सत्ता के पीछे दौड़ रहे हैं। यहां राष्ट्रीय हित से जुड़े किसी भी मुद्दे पर राजनीति दल आजतक एकमत नहीं हुए हैं। ऐसे में भला संविधान निर्माण ओर शांति प्रक्रिया को गति कैसे मिलती। 27 मई 2012 को संविधान सभा के 601 सदस्य नेपाल को उसका संविधान नहीं दे सके। क्योंकि वे इसी उधेड़बुन में उलझे रहे कि संघीयता के जिन्न को बोतल में ही बंद रहने दिया जाए या बाहर निकाला जाए। अगर यह बाहर आता है तो नेपाल में सभी जातियों के लिए पृथक राज्य की स्थापना करनी पड़ेगी। इस तरह आर्थिक रूप से जर्जर हो चुके देश को एक बार फिर आम चुनाव की ओर झोंक दिया गया है। नेपाल में भट्टराई सरकार को हराकर नई सरकार के गठन की मुहिम जारी है। पिछले चार सालों में नेपाल के सभी राजनीतिक दलों ने सत्ता का सुख भोगने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बिना संविधान बने संविधान सभा को भंग कर देने से गणतंत्रात्मक लोकतंत्र ध्वस्त हो गया है। ऐसे में संविधान सभा द्वारा चुनाव की घोषणा करना अपने आप में हास्यास्पद लगता है। इसके साथ ही यह सवाल भी घूम रहा है कि आम चुनाव के लिए संवैधानिक संशोधन की बात होगी, लेकिन संवैधानिक संशोधन करेगा कौन। नेपाली संसद भंग हो चुकी है।
अंतरिम संविधान में आम चुनाव की बात का उल्लेख नहीं किया गया है कि उस समय नेपाली राजनीतिक पार्टियों ने सोचा तक नहीं था कि अंतरिम संविधान के तहत ही चुनाव होंगे। नेपाल में चुनाव तो नए संविधान के तहत ही होना था। बहरहाल, राज्य पुनर्सरचना का मामला पेंचीदा हो गया है। नेपाली राजनीतिक पार्टियां वोट की राजनीति से प्रेरित होकर अपने-अपने तरीके से राज्य की संरचना चाह रही हैं, ताकि उनका वर्चस्व कायम रहे। प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई ने चुनाव की घोषणा कर नेपाल में एक नए द्वंद्व और उन्माद को हवा दी है। यह माओवादियों की सोची-समझी रणनीति का ही हिस्सा है। नेपाल की जनता केवल मूक होकर तमाशा देख रही है। चुनाव घोषणा के साथ ही माओवादियों ने आगामी चुनाव में दो तिहाई बहुमत लाने का दंभ भरना शुरू कर दिया है। संविधान सभा भंग होने और चुनाव की घोषणा में जिस तरीके से माओवादी नेताओं का व्यवहार और बयान देखा गया, वह उनके अंतिम लक्ष्य की ओर ही इंगित करता है। माओवादी नेताओं द्वारा कई बार यह बयान सार्वजनिक रूप से आया है कि उनका अंतिम लक्ष्य नेपाल की राजसत्ता पर पूरी तरीके से कब्जा करना है। हालांकि इसके लिए कई बार कोशिशें की गई, लेकिन नाकाम रहीं। मगर इस बार सब कुछ माओवादी नेताओं की योजना के मुताबिक ही हो रहा। निश्चित ही संविधान सभा भंग होने और उसके पहले की जटिल परिस्थितियों के लिए कांग्रेस एमाले सहित कई विदेशी ताकतें भी जिम्मेदार हैं, लेकिन ये न चाहते हुए भी माओवादी नेताओं की चतुर रणनीति का हिस्सा बन गए। लिहाजा, संविधान सभा को भंग करने की स्थिति पैदा हो गई। बहरहाल, अगर अक्टूबर-नवंबर में चुनाव हुए (जिसकी संभावना काफी कम है) तो माओवादी दलों को ही फायदा मिलने वाला है।
माओवादी-मधेशी मोर्चा मिलकर चुनाव लड़ने की सोच रहे हैं। इससे लग रहा है कि विपक्षी दलों के लिए आने वाले दिनों में कोई भी स्थान नहीं रहने वाला है। यदि अक्टूबर-नवंबर में चुनाव नहीं हुए तो भी माओवादियों की सरकार जारी रहेगी। कुछ लोग इस गलतफहमी में हैं कि चुनाव हुए तो माओवादियों को मुंह की खानी पड़ेगी और कांग्रेस-एमाले जैसी शक्तियां फिर से उभर कर आएंगी, ऐसे लोगों को पिछली संविधान सभा चुनाव के परिणामों पर नजर डालना होगा। जिस तरीके से पिछली बार माओवादी पार्टी ने कई जिलों में शांतिपूर्ण बूथ कब्जा किया था, इस बार भी वह फिर से वही करने वाले हैं। माओवादी लड़ाकों को शिविर से विदा अवश्य कर दिया गया है, लेकिन उन्हें भी संगठन से जोडे़ रखने की मुहिम जारी है। नाराज लड़ाकुओं और कार्यकर्ताओं को संगठित करने के लिए मोहन वैद्य को मिशन पर लगा दिया गया है। ऐसे माहौल में माओवादियों के दोनों हाथ में लड्डू है। संविधान सभा का भंग होना माओवादियों की चाल का ही नतीजा है।
लेखिका रुचि सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
Nepal constitution, Constitution of Nepal, Dainik Jagran Editorial Articles in Hindi, Jagran Blogs and Articles, Hindi, English, Social Issue in Hindi, Political Issue in Hindi.
Read Comments