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भारत में सामाजिक न्याय वोट बैंक की राजनीति की भेंट चढ़ता रहता है। आज कांग्रेस को लगता है कि पदोन्नति में आरक्षण से बसपा की तरफ छिटका दलित वोट बैंक फिर से उसकी झोली में आ सकता है। हालांकि उत्तर प्रदेश में दलित अभी बसपा का दामन छोड़ने के मूड में नहीं हैं, लेकिन अन्य प्रदेशों में कांग्रेस दलितों के लिए एक विकल्प हो सकती है। संविधान संशोधन करने की उसे इतनी जल्दी है कि उसने विधि विशेषज्ञों से किसी गंभीर विमर्श की जरूरत भी नहीं महसूस की। अटार्नी जनरल की इस टिप्पणी के निहितार्थ को समझा जाना चाहिए कि सरकार ने जो मसौदा तैयार किया है, वह दुरुस्त नहीं है। इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती मिल सकती है। कांग्रेस इस संविधान संशोधन को पास करा ले जाती है तो वह दलितों के बीच खुद को नायक प्रचारित करेगी और यदि सपा या किसी अन्य सहयोगी दल की वजह से संप्रग-2 का समीकरण गड़बड़ा जाता है, तो दलितों में वह खुद को शहीद का दर्जा दिलाने की कोशिश करेगी। बसपा कांग्रेस से भी दो कदम आगे है। मायावती ने राज्यसभा में जिस प्रकार इस मुद्दे पर सरकार की घेराबंदी की उससे सरकार और अन्य विपक्षी दल मुंह बंद करने को मजबूर हो गए। सरकार को जहां आनन-फानन में सर्वदलीय बैठक बुलानी पड़ी, वहीं सपा को छोड़कर कोई दूसरा दल इस संविधान संशोधन का विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा सका।
बसपा इस मसले को लोकसभा चुनाव तक गरम रखना चाहती है, ताकि वह अपने को दलितों का एकमात्र हितैषी प्रचारित कर सके। पिछले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में दलितों के एक वर्ग ने बसपा का साथ छोड़ दिया था, लेकिन पदोन्नति में आरक्षण के मसले पर सारा दलित बसपा के झंडे के नीचे खड़ा हो गया है। यह भी काबिलेगौर है कि बसपा को अब यह चिंता नहीं सता रही है कि वह जिस प्रकार इस मसले पर आक्रामक रवैया अख्तियार कर रही है, उससे उसके नए-नवेले दोस्त ब्राह्मण वोट बैंक का क्या होगा? यह बसपा का फिर से अपनी जड़ों की ओर लौटने का संकेत है। शाहबानो प्रकरण के बाद यह पहला अवसर है जब संसद सुप्रीम कोर्ट के किसी फैसले को संविधान संशोधन के तहत बदलने जा रही है। इससे दलित वोट को लेकर सियासी दलों की बेचैनी साफ समझी जा सकती है। इस सियासी पेंच के अलावा प्रमोशन में आरक्षण पर दक्षता, मानवाधिकारों का हनन और सामाजिक समरसता के आधार पर प्रश्नचिह्न लगते रहे हैं। इस संदर्भ में निजी क्षेत्र का उदाहरण दिया जाता है, जहां आरक्षण नहीं है, लेकिन उनका प्रदर्शन पब्लिक सेक्टर से बेहतर है। इन सारे सवालों को सरकार कैसे शांत करेगी, इस पर उसका कोई होमवर्क नहीं है। प्रमोशन में एक बड़ी विसंगति की ओर मीडिया में बहस न के बराबर हुई है। प्रमोशन से पहले कर्मचारियों, अधिकारियों की वरिष्ठता के साथ उनकी चरित्र पंजिका भी देखी जाती है। एससी/एसटी, ओबीसी के कर्मचारियों को यह शिकायत रहती है कि उनकी चरित्र पंजिका जानबूझकर खराब की जाती है ताकि वे पदोन्नत होकर कभी खुद बॉस की भूमिका में न आ जाएं। दलितों और पिछड़ों के संबंध इस समय सबसे नाजुक मोड़ पर हैं।
आरक्षण ही वह मोहपाश है जो दलितों-पिछड़ों को एक सूत्र में घसीट लाता है। इसीलिए मंडल के दौर में दलितों ने पिछड़े वर्ग के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ाई लड़ी। इसी बिंदु पर कांग्रेस का असली खेल सामने आता है-बांटो और राज करो। प्रधानमंत्री की सर्वदलीय बैठक में शरद यादव ने मांग उठाई कि दलितों के साथ ओबीसी को भी प्रमोशन में आरक्षण मिलना चाहिए। शरद यादव की मांग अतार्किक नहीं है। केंद्रीय सेवाओं में गु्रप ए में ओबीसी की भागीदारी 4.69 प्रतिशत, गु्रप बी में 10.63, ग्रुप सी में 18.98 और गु्रप डी में 12.55 प्रतिशत है। यह तब है जब उसे 27 प्रतिशत आरक्षण मिला है। मंडल-2 के बाद केंद्रीय विश्वविद्यालयों में ओबीसी के मात्र दो प्रोफेसर हैं। आरक्षण के बावजूद छात्रों के एडमिशन का यह हाल है कि इस वर्ष अंबेडकर विश्वविद्यालय में पिछड़े वर्ग के एक भी छात्र को प्रवेश नहीं मिला। प्रमोशन में पिछड़े वर्ग को आरक्षण इसलिए भी आवश्यक है कि विभिन्न प्रदेशों में पिछड़े वर्ग की कुछ जातियां दूसरे राज्यों में एससी/एसटी में शामिल है। दरअसल, ओबीसी और एससी/एसटी एक ही सामाजिक ताने-बाने से निकल कर आते हैं, अत: इस पर विमर्श और उपचार भी समान दृष्टि से होना चाहिए, लेकिन कांग्रेस की शुरू से ही रणनीति रही है कि एससी/एसटी को अपने पाले में लेकर ओबीसी के सामने उसे खड़ा करना। इसीलिए नेहरू ने दलित आरक्षण का समर्थन किया, लेकिन कालेलकर की रिपोर्ट ठंडे बस्ते में फेंकी।
राजीव गांधी ने मंडल का विरोध किया। तमाम दबावों के बावजूद राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को वे शक्तियां नहीं दी गईं जो एससी/एसटी आयोग को हासिल हैं। आज प्रमोशन में आरक्षण के सवाल पर भी कांग्रेस दलितों और पिछड़ों को लड़ाने में कामयाब होती दिख रही है। दरअसल, पदोन्नति में आरक्षण के मसले ने एक साथ कई सवाल खडे़ कर दिए हैं। यहां दक्षता, मानवाधिकार का हनन और सामाजिक समरसता की शिकायत है तो पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधित्व का सवाल भी। संप्रग-2 को सपा के साथ अपने समीकरण के साथ-साथ दलित वोट भी साधने हैं। इन सारे सवालों के बीच रास्ते भी निकालने हैं। यदि प्रमोशन में आरक्षण की कोशिशें विफल हो जाती हैं तो चरित्र पंजिका की अनिवार्यता समाप्त की जानी चाहिए और यदि ये कोशिशें सफल होती हैं तो पिछड़े वर्ग के लोगों को भी प्रमोशन में आरक्षण मिलना चाहिए।
कौशलेंद्र प्रताप स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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