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धरती की खोखली चिंता

जागरण मेहमान कोना
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रियो सम्मेलन के बीस साल बाद पर्यावरण पर नए सिरे से होने जा रही चर्चा की दिशा तलाश रही हैं सुनीता नारायण


ठीक 20 साल पहले ब्राजील के रियो डि जेनेरियो में पर्यावरण और विकास के मुद्दे पर विश्व सम्मेलन का आयोजन हुआ था। इस मौके पर तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश सीनियर के विरोध में बड़ी संख्या में लोग सड़कों पर उतर आए थे। सम्मेलन में आने से तुरंत पहले बुश ने अमेरिका के एक शॉपिंग सेंटर में लोगों से अधिक से अधिक मात्रा में वस्तुएं खरीदने की अपील की थी ताकि उनका देश वित्तीय संकट से उबर सके। प्रदर्शनकारी उनके इस बयान से खफा थे कि अमेरिकी जीवनशैली पर कोई समझौता नहीं हो सकता है। लोग उद्योग जगत के पर्यावरण के प्रति नजरिये को बदलना चाहते थे। उन्होंने मांग रखी कि बुश जलवायु संधि पर हस्ताक्षर करें और उत्सर्जन की कटौती के लिए कड़े कदम उठाने पर राजी हों। प्रदर्शनकारियों का उत्साह, उमंग और उम्मीद देखने लायक थी। इस सम्मेलन में पहली बार पर्यावरण का मुद्दा वैश्विक चिंता का कारण बना था। इससे पहले तक पर्यावरण को स्थानीय या क्षेत्रीय मुद्दा माना जाता था, किंतु विज्ञान के नए शोध और अध्ययनों से जलवायु परिवर्तन के भय ने पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले लिया। तमाम औद्योगिक देशों के लिए उत्सर्जन की सीमा तय करने की जरूरत पर बल दिया गया। इसके लिए वैश्विक नियम और वैश्विक सहयोग बेहद जरूरी थे। रियो सम्मेलन जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता और मरुस्थलीकरण पर वैश्विक सम्मेलनों के जन्म का साक्षी बना। नि:संदेह, रियो 1992 ने पर्यावरण प्रबंधन पर उत्तर व दक्षिण के बीच वैश्विक नियमों की जरूरत पर शानदार पहल की।


विकासशील देशों ने अपने विकास के लिए कुछ छूट की गुंजाइश पर जोर दिया, किंतु उनका यह भी कहना था कि वे विकास का ऐसा ढांचा बनाना चाहते हैं जिससे पर्यावरण की समस्या में और वृद्धि न हो। नई विकास नीति सुनिश्चित करने के लिए उन्होंने धन और प्रौद्योगिकी की मांग रखी। इस सम्मेलन का बड़ा लाभ यह हुआ कि पर्यावरण को सामाजिक न्यायपरक विकास के आधार के रूप में स्वीकार कर लिया गया। बीस साल बाद एक बार फिर विश्व के नेता उसी रियो डि जेनेरियो शहर में 20-22 जून को मिल रहे हैं, किंतु इस बार सम्मेलन को लेकर कोई उत्साह देखने को नहीं मिल रहा है। ऐसा लगता है कि वित्तीय संकट के प्रबंधन में विफल विश्व के नेताओं के पास पर्यावरण के मुद्दे के लिए कोई समय नहीं है और उनके पास साझा भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए विचारों का टोटा पड़ गया है। अब पृथ्वी सम्मेलन कलह का अड्डा बनकर रह गए हैं। पुराने अमीर, जिनमें अधिकांश यूरोपीय देश हैं, पर्यावरण संरक्षण का भार उभरते देशों, जिनमें भारत, चीन और ब्राजील प्रमुख हैं, के कंधों पर रखना चाहते हैं। उनका कहना है कि उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएं इस समस्या को उत्पन्न करने में अलग-अलग देशों की भूमिका तय करने में होने वाले भेदभाव को दूर करने में बाधाएं खड़ी कर रहे हैं। विकासशील देश विकास का अपना अधिकार सुनिश्चित करना चाहते हैं, किंतु विभेदीकरण को खत्म करने के विकसित देशों की पहल पर कथित तौर पर अड़ंगे लगा रहे हैं। विकसित देश खुद को पर्यावरण अभियान के मिशनरी बताते हैं और अन्य सभी को विश्वासघाती।


सवाल यह है कि वैश्विक स्तर पर पर्यावरण बचाने के लिए और क्या-क्या किया जा सकता है? असलियत यह है कि वैश्विक पर्यावरण से जुड़ी तमाम समस्याओं, जिनमें जलवायु परिवर्तन से लेकर स्वास्थ्य के लिए हानिकारक कचरे का निपटारा तक शामिल है, को लेकर अलग-अलग संधियां लागू हैं। सहभागिता और सहयोग के अंतरराष्ट्रीय नियमों पर समानांतर प्रक्रियाओं और संस्थानों के स्तर पर मंथन किया जा रहा है। ऐसे में रियो जैसे सम्मेलनों से क्या हासिल किया जा सकता है? अब एक नया मुद्दा खड़ा किया जा रहा है। रियो प्लस 20 का एजेंडा हरित अर्थव्यवस्था है, न कि 1992 का मूल विचार यानी टिकाऊ विकास। यह तब किया जा रहा है जब हरित अर्थव्यवस्था की सुस्पष्ट परिभाषा तक नहीं है। क्या इसका अभिप्राय यह है कि विश्व अब उन प्रौद्योगिकियों में निवेश करेगा जो वर्तमान अर्थव्यवस्था को हरित अर्थव्यवस्था में बदलने में सहयोग देंगी? या फिर यह गंभीरता से विकास की फिर से खोज करेगा, जो हमारी पृथ्वी को भारी नुकसान पहुंचाने वाले सस्ते उपभोग पर आधारित न हो? ये सवाल बेहद असुविधाजनक हैं, इसलिए इनके बजाय वार्ता का एजेंडा ऐसी कार्रवाइयों को बनाया जा रहा है जो हरित लक्ष्यों की पूर्ति कर सकें। इस प्रकार अब पर्यावरण की लड़ाई के नए लक्ष्य चुन लिए गए हैं।


यूरोपीय संघ ने पर्यावरण लक्ष्यों का एक सेट तैयार किया है, जिनमें अक्षय ऊर्जा से लेकर वन और जैवविविधता शामिल हैं। जी-77 ने इसके उलट विकास के लक्ष्य निर्धारित किए हैं। इनमें उपभोग का ढांचा बदलने के साथ-साथ गरीबी उन्मूलन पर जोर है। रियो 2012 में जंग इस बात पर छिड़ेगी कि किसके लक्ष्यों को वरीयता सूची में शामिल किया जाता है। इस बात की पूरी संभावना है कि रियो 2012 में टिकाऊ विकास के लक्ष्यों पर सौदेबाजी की प्रक्रिया तय की जाएगी। इस मुद्दे पर समाधान निकलने की संभावना नहीं दिखती, जिस कारण पर्यावरण को अगले सम्मेलन तक के लिए ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा। इस गहमागहमी के बीच कोई भी यह सवाल नहीं पूछ रहा है कि पर्यावरण की समस्या पर विश्व इस कदर विभाजित क्यों है? सच्चाई यह है कि 1992 के बाद से विश्व बदल चुका है। सच यह भी है कि अब तक विकासशील देश पर्यावरण कुप्रबंधन की पीड़ा झेल चुके हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि भारत जैसे देश को पर्यावरणवादी में बदल दिया जाए। विकासशील देशों को कार्रवाई की जरूरत महसूस हो रही है। वे पर्यावरण की समस्याओं को हल करने के लिए काम कर रहे हैं, किंतु उन्हें लग रहा है कि विश्व के धनी देशों की तरह वे भी समस्या तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। वे थोड़ा-बहुत सुधार करते हैं, किंतु काफी कुछ बिगड़ जाता है। असल में, 1992 के बाद से पर्यावरण को लेकर राष्ट्रीय व क्षेत्रीय स्तर पर तो काम में प्रगति हुई है, किंतु जब ये देश वैश्विक स्तर पर विमर्श करते हैं तो अविश्वास उभर कर सामने आ जाता है। पर्यावरण के मुद्दों पर इसलिए मतभिन्नता है, क्योंकि धनी देश सबके लिए विकास की वचनबद्धता से मुकर गए हैं। अब वे नई व्यवस्था बनाने के लिए फिर से नई पहल करना चाहते हैं, किंतु इन हरकतों से हमारी पृथ्वी नहीं बचेगी। कटु सच्चाई यह है कि जब तक विश्व अपने गहरे मतभेदों को नहीं सुलझा लेता तब तक वैश्विक कार्रवाई कमजोर और बेमानी सिद्ध होगी।


लेखिका सुनीता नारायण जानी-मानी पर्यावरणविद् हैं


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