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आडवाणी की टिप्पणी समेत कुछ अन्य मसलों पर सोनिया गांधी के बदले तेवरों का निहितार्थ तलाश रहे हैं ए. सूर्यप्रकाश
पिछले दिनों भारत के लोगों को सोनिया गांधी का असली चेहरा दिखाई दिया, जिसे वह बरसों से मुखौटे के पीछे छिपाए हुए थीं। गत सप्ताह भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी द्वारा संप्रग की दूसरी सरकार को गैरकानूनी बताने के बाद उनका चेहरा गुस्से से तमतमा गया और आगबबूला होकर उन्होंने सांसदों को तब तक काईवाई रोकने का इशारा किया जब तक आडवाणी ने गैरकानूनी शब्द वापस नहीं ले लिया। 2008 में नोट के बदले वोट कांड का हवाला देते हुए आडवाणी ने कहा कि जो सरकार सत्ता में बने रहने के लिए सांसदों को घूस देकर विश्वास मत हासिल करे उसे किसी भी रूप में वैध नहीं कहा जा सकता। जिस शब्द का उन्होंने इस्तेमाल किया वह न भद्दा था और न ही असंसदीय। इस तरह के आरोप पूरे विश्व में विरोधी दल लगाते रहते हैं और उन्हें रिकॉर्ड से हटा देने भर से सदन की कार्रवाई निर्बाध चलती रहती है। सवाल है कि फिर सोनिया गांधी आक्रामक क्यों हो गईं? दरअसल उन्होंने एक रीडर से लीडर बनने के अवसर को भुना लिया। यह कांग्रेस पार्टी को नियंत्रित करने वाले परिवार की ओर से देश को स्वतंत्रता दिवस का तोहफा था। यद्यपि सुशील कुमार शिंदे को लोकसभा के नेता के रूप में नियुक्त कर दिया गया, फिर भी यह साफ है कि कांग्रेस अध्यक्ष और सरकार की अघोषित मुखिया का उनमें अधिक भरोसा नहीं है। सांसदों को उकसाने के इशारे मात्र से पार्टी के भीतर चुप्पी साधे रहने वाले कुछ मंत्री और सांसद तुरंत हरकत में आ गए। इसी प्रकार के एक व्यक्ति हैं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह। अचानक बहादुरी का प्रदर्शन करते हुए मनमोहन सिंह ने मीडिया के सामने घोषणा की कि आडवाणी का बयान अशोभनीय था।
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कांग्रेस नेताओं की ओर से इस प्रकार की स्वामिभक्ति के प्रदर्शन के साथ ही सोनिया गांधी ने अपने नए अवतार को जारी रखा। यह दिखाने के लिए कि 8 अगस्त को उनका गुस्सा केवल एक दिन के लिए नहीं था, उन्होंने अगले ही दिन फिर से नेता-नेता का खेल खेलना शुरू कर दिया। पहले की तरह जोशोखरोश और गुस्से से लबरेज उन्होंने सदन की दूसरी तरफ से आ रही आवाजों को दबाने के लिए अपने सांसदों और मंत्रियों को दखल देने का फरमान जारी किया। जैसे ही समाजवादी पार्टी के एक सदस्य ने प्रोन्नति में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण का मुद्दा उठाया, सोनिया गांधी ने एक दलित सांसद को बुलाया और उसे मोर्चा संभालने का हुक्म दिया। इसके तुरंत बाद संसदीय कार्यमंत्री पवन कुमार बंसल ने घोषणा कर दी कि सरकार सदस्य की बात से सहमत है और उनकी मांग को पूरा करने के लिए कदम उठाए जाएंगे। इसी के साथ सरकार ने पदोन्नति में आरक्षण के मुद्दे पर सर्वसम्मति बनाने के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाने की घोषणा कर दी। सोनिया का राजनीतिक सहजज्ञान और प्रतिक्रिया एक बार फिर तब देखने को मिली जब अकाली दल ने अमेरिका के विस्कांसिन में गुरुद्वारे में गोलीबारी का मुद्दा उठाया। उन्होंने तुरंत पंजाब के सांसद को मुद्दा उठाने का संकेत दिया। चूंकि वह सोनिया गांधी के दखल के बाद चर्चा में कूदे थे, इसलिए संसदीय कार्यमंत्री ने एक बार फिर मोर्चा संभाला और अकाली दल पर आरोप मढ़ा कि वह अमेरिका में सिखों की मौत का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश कर रहा है।
सोनिया का मानना है कि उनकी सरकार (जी हां, वह सरकार को प्रधानमंत्री की नहीं अपनी ही मानती हैं) कानूनी आधारों पर खड़ी है। इस धारणा की पड़ताल करना जरूरी है। जिस नाजायज या गैरकानूनी शब्द पर वह गुस्सा गई थीं, उसके अनेक अर्थ हैं। उदाहरण के लिए इसका तात्पर्य ऐसे संस्थान से भी है, जिसने अधिसत्ता गंवा दी हो। इसका अर्थ गैरकानूनी, अवैध या कानून से मुक्त भी है। कांग्रेस का दृष्टिकोण यह है कि जनता द्वारा वोट देकर चुनी गई सरकार वैध होती है और यह तब तक वैध रहती है जब तक कि जनादेश बना रहता है। इस धारणा की पुष्टि जरूरी है। जैसाकि राजनीति शास्त्र के प्रख्यात विद्वान अतुल कोहली ने लिखा है कि तथाकथित जनादेश चुनाव के डेढ़-दो साल में ही खत्म हो जाता है। अधिकांश मामलों में जिस सरकार को जनता ने चुना है उससे दो साल में ही पूरी तरह मोहभंग हो जाता है। जिन लोगों की भारत में चुनावी रग पर पकड़ है वे इससे सहमत होंगे। हालांकि जनादेश खत्म होने के बाद भी सरकार नहीं गिरती है। प्राथमिक तौर पर इसके दो कारण नजर आते हैं। पहला यह कि अधिकांश नागरिक मूलत: लोकतांत्रिक होते हैं और दूसरा यह कि वे मानते हैं कि अगला चुनाव तीन साल दूर है। जैसे ही सरकार तीसरे साल में प्रवेश कर जाती है, लोग चुप रहकर कष्ट सहने लगते हैं और अगले चुनाव का इंतजार करते हैं ताकि इस सरकार को उखाड़ फेंका जा सके। इस प्रकार 24 माह से 60 माह के बीच का समय मरघट की शांति के बीच गुजरता है और सत्ता में बैठे बहुत से लोग मूर्खतावश जनता के धैर्य को उनका समर्थन मान बैठते हैं। इन नेताओं को जोर का झटका तब लगता है जब अगले चुनाव का परिणाम घोषित होता है। इसलिए अपने कार्यकाल के दूसरे चरण में वैधानिकता का राग अलापने और इस पर इतराने का कोई मतलब नहीं है। यहां ध्यान देने की बात यह है कि कांग्रेस तो यह दावा कर ही नहीं सकती कि उसका जनादेश सवालों से परे है।
यद्यपि इस पार्टी ने देश पर 52 साल तक शासन किया है, किंतु इसे अब तक किसी भी संसदीय चुनाव में कभी मतदाताओं के बहुमत का समर्थन हासिल नहीं हो सका है। पहले इसका मत प्रतिशत 42-45 के बीच रहा। केवल एक बार यह बहुमत के करीब पहुंची थी, जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस को 49 फीसदी मतदाताओं ने वोट दिया था। पिछले 15 सालों से राष्ट्रीय चुनावों में कांग्रेस का मत प्रतिशत तेजी से गिरता जा रहा है। फिलहाल कांग्रेस को कुल 25-28 फीसदी मतदाताओं का समर्थन ही हासिल है, किंतु पार्टी इसलिए सत्ता में बनी रही, क्योंकि यह 2004 के बाद से जोड़-तोड़ के गठबंधन में सबसे बड़ी पार्टी बनी हुई है। इसके अलावा नीतियों के लकवाग्रस्त होने, आर्थिक अधोपतन, बेकाबू भ्रष्टाचार तथा सामाजिक व राजनीतिक अशांति जैसी समस्याओं को हल करने में अक्षम सरकार की वैधानिकता पर हैरत ही हो सकती है। इस प्रकार लालकृष्ण आडवाणी की टिप्पणी पर सरकार की आपत्तियों में कोई सार नहीं है। हालांकि जैसाकि पहले कहा जा चुका है, इसका ध्यान खींचने वाला एक परिणाम जरूर निकला है कि रीडर अब लीडर बन गई हैं।
लेखक ए. सूर्यप्रकाश वरिष्ठ स्तंभकार हैं
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