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जब किसी युक्ति का बार-बार प्रयोग किया जाता है तो उसके नकारात्मक परिणाम आने लगते हैं। पश्चिम बंगाल में बंद की तरह ही संसद में आए दिन होने वाले हंगामे के कारण जनप्रतिनिधियों से लोगों की उम्मीदें खत्म होने लगी हैं। स्वतंत्रता की पचासवीं वर्षगांठ पर स्पीकर पीए संगमा ने तमाम पार्टियों से अपील की थी कि संसदीय आचरण के कुछ मूल मानकों का पालन करें। कोई 15 साल बाद संगठित हुड़दंग एक सतत समस्या बन गया है। संसद में हंगामा मचाने वाली भारतीय जनता पार्टी अकेली नहीं है। जो कांग्रेस संसद की नियति पर रोष प्रकट कर रही है वह भी विपक्ष में रहने के दौरान इतनी ही उपद्रवी थी, जितनी अब भाजपा है। ताबूत घोटाला, तहलका के स्टिंग ऑपरेशन और यहां तक कि इराक में युद्ध जैसे मुद्दों पर कांग्रेस ने वैसी ही दलीलें देकर संसद को बाधित किया जैसी कोयला घोटाले मामले में प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग पर भाजपा दे रही है। यह देश की विडंबना ही है कि यहां चुनावों में मतदान करने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जबकि विधायिका अकर्मण्य होती जा रही है। इसीलिए भारत में भी राष्ट्रपति शासन प्रणाली की मांग फिर से जोर पकड़ रही है। भारत में कानून निर्माता निकाय की सदस्यता के साथ रुतबा और अनेक विशेष सुविधाएं जुड़ी हुई हैं, इसीलिए यहां का राजनीतिक तबका इंग्लैंड की संसद की तर्ज पर संसदीय प्रणाली में फेरबदल पर राजी नहीं होगा। संसद में हंगामों का ही नतीजा है कि अब लोकसभा की कार्यवाही 20 फीसदी भी नहीं चल पाती। इंग्लैंड में विपक्ष को करीब-करीब हर रोज ही सरकार से उसके आचरण के संबंध में सवाल-जवाब करने का विशेषाधिकार मिला हुआ है।
प्रधानमंत्री का साप्ताहिक प्रश्नकाल सत्तापक्ष और विपक्षी दलों, दोनों को सभ्य तरीके से अपनी-अपनी बात रखने का मौका देता है। प्रधानमंत्री को किसी भी सांसद के अक्खड़ से अक्खड़ सवाल का जवाब देना होता है, चाहे यह देश में स्वास्थ्य सेवाओं के संबंध में हो या फिर किसी मंत्री के अशालीन व्यवहार के संबंध में। तमाम मंत्रियों को जांच-पड़ताल के दायरे में लाकर ब्रिटिश व्यवस्था ने जवाबदेही के सिद्धांत का संस्थानीकरण कर दिया है। भारतीय संसदीय व्यवस्था की सबसे बड़ी विफलता यह है कि प्रधानमंत्री को पूछताछ की प्रक्रिया से बाहर कर दिया गया है। यद्यपि जवाहरलाल नेहरू संसद में वाकयुद्ध को पसंद करते थे और हर प्रकार की बहस में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे, पर उनके उत्तराधिकारी इस अनुभव को पसंद नहीं करते। इन दिनों आम कार्यवाही के दौरान प्रधानमंत्री की उपस्थिति दुर्लभ हो गई है और विपक्ष अकसर मांग करता हुआ दिखाई पड़ता है कि किसी मुद्दे विशेष पर पूछताछ के लिए प्रधानमंत्री की उपस्थिति जरूरी है। उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास संप्रग-1 कार्यकाल के दौरान तीन साल से अधिक समय तक कोयला मंत्रालय का प्रभार रहा। फिर भी संसद में इस मुद्दे पर होने वाली चर्चा के दौरान आम तौर पर राज्यमंत्री ही मौजूद रहते हैं। वास्तव में, विश्वास मत या फिर हाल ही में हुई असम पर बड़ी चर्चा आदि को छोड़ दें तो किसी भी सदन में प्रधानमंत्री की उपस्थिति संसद का सौभाग्य ही समझी जाती है। यह अवसर दुर्लभ है कि विपक्ष प्रधानमंत्री को शर्मिदा कर सके और उन्हें जवाबदेह ठहरा सके। इस व्यवस्था में सुधार किया जा सकता है और ऐसी व्यवस्था बनाई जा सकती है जहां विपक्ष को अपनी बात कहने का मौका मिल सकता है।
भारत में पूछताछ का अवसर संसदीय कमेटियों के माध्यम से जरूर मिलता है, जिसमें विपक्ष को खासतौर पर प्रमुख विपक्षी नेताओं को इनमें शामिल किया जाता है, हालांकि हालिया घटनाओं से पता चलता है कि संकट के क्षणों में कमेटियों में सरकार अपनी हांकने का प्रयास करने लगी है। भ्रष्टाचार संप्रग-2 का राग बन गया है। कैग की अति-सक्रियता की मेहरबानी से 2-जी स्पेक्ट्रम आवंटन में किए गए गोरखधंधे, राष्ट्रमंडल खेलों में धांधली और कोयला खदानों के आवंटन जैसे मुद्दे राजनीतिक विवादों का केंद्र बन चुके हैं। सामान्य परिस्थितियों में कैग रिपोर्ट को पड़ताल के लिए लोक लेखा समिति (पीएसी) के पास भेजा जाता है, जिसकी अध्यक्षता विपक्षी दल का कोई नेता करता है। यह आकलन करने का पीएसी एक उपयुक्त मंच है कि कैग की रिपोर्ट में विवरण सही है या नहीं। हालांकि कैग रिपोर्ट के आधार पर विशेष शक्तियों के दुरुपयोग को रोकने के बजाय सरकार ने इसके खंडन का राग अलापना शुरू कर दिया है। जिस प्रकार कांग्रेस और उसके सहयोगियों ने पीएसी की बैठकों में हुड़दंग मचाया और इसकी रिपोर्ट को कूड़ेदान के हवाले कर दिया उससे संसदीय प्रक्रिया का भारी अपमान हुआ है। इसी प्रकार 2-जी पर गठित संयुक्त संसदीय समिति में बखेड़ा किया गया कि बीमार अटल बिहारी वाजपेयी तथा जॉर्ज फर्नाडीज को गवाह के रूप में इसके समक्ष बुलाया जाए।
कमेटी व्यवस्था के क्षय के दो दुष्परिणाम हुए। पहला यह कि सामान्य संसदीय व्यवस्था पटरी से उतर गई और इस कारण न्यायपालिका को शासकीय कार्यो में दखल देने और यहां तक कि नीतिगत मुद्दों पर घोषणाएं करने का भी मौका मिल गया। दूसरा नुकसान यह हुआ कि इसने पहले से ही कमजोर उन आधारभूत नियमों को तार-तार कर दिया जो सरकार और विपक्ष के संबंधों को निर्धारित करते थे। अपनी समस्याओं के समाधान से वंचित कर दिए गए विपक्ष के पास इसके अलावा और कोई चारा नहीं बचा कि वह संसद में शोर-शराबा करे। वर्तमान परिस्थितियों में मौजूदा लोकसभा के शेष 17 माह भी हंगामे की भेंट चढ़ते नजर आ रहे हैं। चारो तरफ से घिर चुकी कांग्रेस ने तय किया है कि वह दबाव में नहीं आएगी। संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी ने लड़ाकू तेवर दिखाए हैं। यही तेवर बोफोर्स विवाद के बाद राजीव गांधी ने भी दिखाने की असफल कोशिश की थी। विपक्ष ने भांप लिया है कि संप्रग का प्रयोग अपनी आखिरी सांसें भर रहा है और मई 2014 तक होने वाले तमाम विधानसभा चुनावों में यह अधिकाधिक कमजोर होता चला जाएगा। विपक्ष हालात सामान्य करने का इच्छुक नजर नहीं आता, यद्यपि शीतकालीन सत्र में संसद में इस तरह के गतिरोध की आशंका नहीं है। विपक्ष 1989 की उन यादों को दोहराना चाहता है जब संसदीय बायकाट ने राजीव गांधी की नाक में दम कर दिया था। इस बात की पूरी आशंका है कि सरकार और विपक्ष के बीच का यह टकराव लोकतंत्र के अन्य स्तंभों को भी आपस में टकराने को प्रेरित करे। चुनावों में स्पष्ट जनादेश ही हालात को सामान्य कर सकता है। अगर चुनाव परिणाम खंडित आया तो उसके भयानक दुष्परिणाम होंगे।
लेखक स्वप्न दासगुप्ता वरिष्ठ स्तंभकार हैं
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