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पश्चिम एशिया का संकट

जागरण मेहमान कोना
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swapan jiiiiiiदूर से घटनाओं का आकलन करने में एक सवाल बड़ा मददगार सिद्ध होता है-इसी प्रकार के हालात में हम क्या करते? उदाहरण के लिए अगर सीमा पार से हमारे शहरों पर बिना किसी उकसावे के रॉकेट छोड़े जाते तो क्या हम अंतरराष्ट्रीय समुदाय से सहायता के लिए चिल्लाते रहते? संभवत: हम कूटनीतिक प्रयास शुरू करते और हो सकता है संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपना पक्ष रखते। किंतु हमारी पहली वरीयता आत्मरक्षा होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में हम तुरंत पलटवार करते। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय समुदाय की चिंता बढ़ जाती कि टकराव विकराल रूप धारण न कर ले और तब जाकर वह हमारी बात पर ध्यान देता। उपरोक्त परिदृश्य में कोई अतिरंजना नहीं है। जिन लोगों को 1999 का लघु कारगिल टकराव याद है वे जानते हैं कि तत्कालीन सरकार ने ठीक इसी अंदाज में प्रतिक्रिया की थी। गनीमत यह थी कि जहां जंग छिड़ी थी वह निर्जन इलाका था, जिस कारण पश्चिमी मीडिया नागरिकों के मारे जाने को लेकर चिंतित नहीं था। साथ ही हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कारगिल टकराव को भारत-पाक के बीच एक और जंग के रूप में नहीं देखना चाहिए, क्योंकि दोनों देश परमाणु हथियारों से लैस हैं।


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भारतीय उपमहाद्वीप को लेकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय चिंतित हो गया था और इसे पृथ्वी पर सबसे खतरनाक इलाका मानने लगा था। अंतत: अमेरिका ने पाकिस्तान पर सीधा दबाव बढ़ाया और उसे समझाया कि इस टकराव में उसके जीतने की कोई संभावना नहीं है। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि अगर भारत आक्रामक प्रतिक्रिया न दिखाता तो अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन पाकिस्तान पर दबाव नहीं डालते। पश्चिम एशिया के विपरीत आम तौर पर अंतरराष्ट्रीय संबंध इतने लंबे टकरावों से शासित नहीं होते। यह अनोखी समस्या और चुनौती है जिससे इजरायल 1948 में अपने जन्म के समय से ही जूझ रहा है। फिर भी, यह गौर करने लायक है कि यहूदी होमलैंड के संदर्भ में कट्टर राष्ट्रवादी भावनाओं के उल्लेख के बावजूद यह एक हद तक राहतकारी रहा कि हमास के राकेट हमलों के कारण उभरे ताजा टकराव में इजरायल की प्रतिक्रिया अपेक्षाकृत सामान्य रही। बराक ओबामा इस रुख का समर्थन करते हैं। बहुत से पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपतियों के विपरीत ओबामा इजरायल के तटस्थ मित्र के रूप में नहीं देखे जाते। इसके विपरीत इजरायल के निडर पीएम बेंजामिन नेतन्याहू के साथ उनके संबंध इतने खराब हैं कि पर्यवेक्षक अमेरिकी-इजरायल संबंधों के विशेष दर्जे के संभावित अंत की अटकलें लगा रहे हैं। हालांकि हमास द्वारा शुरू किए गए इस रॉकेट युद्ध पर उनकी पहली प्रतिक्रिया स्पष्ट थी। उन्होंने कहा कि किसी भी देश का पहला काम अपने नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना होता है। अगर कोई मेरे घर पर रॉकेट से हमला करेगा, जहां मेरी दो बेटियां सो रही होंगी तो मैं पूरी ताकत से इसे रोकने का प्रयास करूंगा और मुझे इजरायल से भी ऐसी ही अपेक्षा है। हालिया तनाव के लिए इजरायल को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।


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इजरायल की एकमात्र आलोचना यह है कि उसका पलटवार असंगत है। इजरायल के रक्षा मंत्री की टिप्पणी उचित नहीं है कि गाजा को फिर से मध्ययुग में भेज दिया जाए। यही नहीं, इजरायल के इस रुख का भी समर्थन नहीं किया जा सकता कि अगर रॉकेट हमले जारी रहे तो वह जमीनी हमला करने से नहीं हिचकेगा। इजरायल में कूटनीतिज्ञों ने कूच इसलिए नहीं किया कि वे इजरायल की लापरवाही पर न्यायसंगत रोष जताना चाहते थे, बल्कि वे जमीनी युद्ध की विभीषिका से चिंतित थे और इसे रोकने का प्रयास कर रहे थे। इजरायल के आत्मरक्षा के सिद्धांत पर इसलिए उंगली नहीं उठाई जा सकती कि वह एक विकट चुनौती और चेतावनी से जूझ रहा है। यह चेतावनी है कि इजरायल का अस्तित्व रहेगा और तब तक रहेगा जब तक इस्लाम इसे नष्ट नहीं कर देगा, ठीक वैसे जैसे इसने औरों का अस्तित्व मिटा दिया है। ये घटनाएं 2010 की उस घटना के बिल्कुल उलट हैं जब इजरायल ने मानवीय सहायता ले जा रहे एक जहाज पर हमला कर दिया था और इसके कारण मुस्लिम जगत में इजरायल विरोधी भावनाएं भड़क गई थीं। कुल मिलाकर, विश्व की राजधानियों को धीरे-धीरे अहसास हो रहा है कि फलस्तीन के बदनाम फतह नेतृत्व से अलग विकल्प के रूप में उभरने के बजाय हमास इजरायल को नष्ट करने और यहूदियों को इस क्षेत्र से निकाल बाहर करने के अपने कट्टर संकल्प से जरा भी पीछे नहीं हटा है। सीरिया में असद विद्रोहियों के खिलाफ समर्थन के मुद्दे पर हमास ने ईरान से जरूर संबंध तोड़ लिए हैं, लेकिन ईरान में धर्मतंत्र और गाजा में बंटे हुए जिहादी समूहों को देखते हुए यह 1967 के युद्ध के बाद से उभरीं समस्याओं के समाधान की राह में गंभीर खतरा जरूर बन सकता है।


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श्रीलंका के लिट्टे की तरह ही हमास को भी मानव ढाल के रूप में नागरिकों के इस्तेमाल में कोई हिचक नहीं है। वह चाहता है कि इजरायली हमलों में अधिक से अधिक नागरिकों की जान जाएं। जितने अधिक शहीद होंगे, इजरायल के खिलाफ जंग में उतना ही अधिक समर्थन मिलेगा। कुछ मानवाधिकारवादियों की मेहरबानी से पिछले एक दशक से इजरायल की तमाम क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं पर सवालिया निशान लगाने की परंपरा शुरू हो गई है। इसी रवैये के कारण बहुत से देश संकीर्ण और घातक यहूदी विरोध की ओर से आंखें मूंद लेते हैं। गाजा में हालिया बिना मतलब का टकराव ऐसे देश के खिलाफ अनावश्यक शत्रुता की अवधारणा में कोई अंतर नहीं लाएगा जिसमें जीवंत लोकतंत्र और आर्थिक विकास हिलोरे ले रहा है, किंतु अगर यह अंतरराष्ट्रीय जनमत, जिसमें भारत भी शामिल है, हमास व हिजबुल्ला के वृहत्तर एजेंडे के बारे में अधिक सावधान करने को मजबूर करता है तो यह सही दिशा में बढ़ा हुआ कदम है। आगामी वर्षो में जब तानाशाही वाले शासनों को जनता के आक्रोश का और भी जोरदारी से सामना करना होगा तब लोकतांत्रिक विश्व यह मानने को मजबूर होगा कि इजरायल उन्हीं मूल्यों का वाहक है जो लोकतंत्र के लिए जरूरी हैं। उन लोगों द्वारा प्रस्तुत किए गए विकल्प जो पश्चिम एशिया को इजरायल मुक्त देखना चाहते हैं, इतने भयावह हैं कि उन पर विचार भी नहीं किया जा सकता। भले ही यह कहने-सुनने में गलत लगे, पर सही है कि इजरायल के यहूदियों के एक और संगठित जातीय सफाये का विकल्प इस क्षेत्र के मूल्यों और प्रतिष्ठानों के संदर्भ में प्रगतिशील इजरायलवाद ही है। अपनी ताकत का प्रदर्शन करने के बाद अब इजरायल को अपने इन मूल्यों के साथ थोड़ा नरम चेहरा भी प्रदर्शित करना चाहिए।



लेखक स्वप्न दासगुप्ता वरिष्ठ स्तंभकार हैं


Tag: युद्ध ,कारगिल , बाराक ओबामा, 1967 के युद्ध , एशिया का संकट kargil, barack obama, war

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