Menu
blogid : 5736 postid : 597259

पाकिस्तान को घेरने का मौका

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

प्राय: आलोचनाओं के केंद्र में रहीं भारतीय खुफिया एजेंसियों के दिन बहुर गए लगते हैं। पिछले एक-डेढ़ महीने के भीतर तीन बड़े आतंकियों को पकड़ने की उपलब्धि किसी मायने में कम नहीं है। साल भर पहले हाथ लगे लश्करे तैयबा आतंकवादी जबीउद्दीन अंसारी उर्फ अबू जुंदाल तथा इंडियन मुजाहिदीन के आतंकी फसीह मोहम्मद की गिरफ्तारियों को भी जोड़ लीजिए तो उनका एक साल का रिकॉर्ड काफी अच्छा लगने लगता है। पहले अंडरवल्र्ड सरगना दाऊद इब्राहीम केकरीबी और बम विशेषज्ञ अब्दुल करीम टुंडा और उसके बाद आतंकवादी संगठन इंडियन मुजाहिदीन के ऑपरेशनल प्रमुख यासीन भटकल तथा उसके सहयोगी असदुल्ला अख्तर की गिरफ्तारियों ने अचानक ही रिसर्च एंड एनालिसिस विंग यानी रॉ और गुप्तचर ब्यूरो यानी आइबी के कामकाज के प्रति विश्वास का माहौल पैदा कर दिया है। इस हद तक कि अब यह चर्चा निकली है कि क्या अब दाऊद इब्राहिम की बारी है? खुद गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने बड़े विश्वास के साथ कहा है कि दाऊद इब्राहिम को भारत लाने की हरसंभव कोशिश की जा रही है।

छोटे राज्यों के लाभ


ताजा गिरफ्तारियों ने रॉ के उस कारनामे की याद दिला दी जब उसने कारगिल युद्ध के दौरान पाकिस्तान के तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल परवेज मुशर्रफ और एक अन्य शीर्ष पाकिस्तानी जनरल मोहम्मद अजीज के बीच हुए टेलीफोन कॉल को रिकॉर्ड कर लिया था। तब परवेज मुशर्रफ चीन गए हुए थे और इस बातचीत में उन्होंने कारगिल में पाकिस्तानी सेना की प्रत्यक्ष भूमिका का विस्तार से जिक्र किया था। वह अपने सहयोगी जनरल से कारगिल के घटनाक्रम का ब्यौरा ले रहे थे और इस बातचीत का ब्यौरा लीक होने से पाकिस्तान के इस झूठ का पर्दाफाश हो गया था कि कारगिल युद्ध में वहां की सेना की कोई भूमिका नहीं थी। जहां तक खुफिया एजेंसियों की ताजा कामयाबियों का प्रश्न है तो यासीन भटकल की गिरफ्तारी कैसे संभव हो सकी, उसमें क्या और कैसी प्रक्रिया अपनाई गई, इस बारे में सुराग कहां से मिले, ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब खुफिया एजेंसियों की फाइलों से बाहर नहीं आने वाले। संभव है कि इसमें अब्दुल करीम टुंडा से मिली सूचनाओं की भी कोई भूमिका रही हो। अब भटकल से होने वाली पूछताछ भी पाकिस्तान तथा भारत में स्थित आतंकवादियों के बारे में नई सूचनाओं का स्नोत बनेगी और संभवत: पाकिस्तानी सरजमीन से संचालित भारत-विरोधी आतंकवादी गतिविधियों का पर्दाफाश करने के लिए भारत को कुछ और ठोस सबूत मिल जाएं।

Pakistan Attack On India: शांति प्रक्रिया पर सवाल


भारतीय खुफिया एजेंसियों के कामकाज में अचानक आया यह पेशेवराना रुख सुखद है। इन एजेंसियों को अपनी मुहिम न सिर्फ जारी रखने की जरूरत है, बल्कि उसे और भी तेजी देने की जरूरत है, क्योंकि भारत के शीर्ष 50 वांछितों में से अभी सिर्फ दो ही हमारे हाथ लगे हैं। जब तक बाकी 48 कानून के दायरे में नहीं आ जाते, खुफिया एजेंसियों के सामने तसल्ली करने का विकल्प उपलब्ध नहीं है। यह अच्छी बात है कि वे अतीत की ढीली-ढाली और घटना हो जाने के बाद पड़ताल करने वाली एजेंसियों की छवि से बाहर आने की कोशिश कर रही हैं। खुफिया एजेंसियों और जांच एजेंसियों में एक बुनियादी फर्क होता है। गुप्तचर एजेंसियों की भूमिका अपराधों को घटित होने से रोकने की होनी चाहिए, जबकि पुलिस तथा अन्य जांच एजेंसियों की भूमिका अपराध के घटित हो जाने के बाद शुरू होती है। भारतीय गुप्तचर एजेंसियों के रुख में आए इस बदलाव की भूमिका नवंबर 2008 में मुंबई में हुए आतंकवादी हमलों के बाद बनी थी। तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने सूचनाएं एकत्र करने और विभिन्न एजेंसियों के बीच उनका आदान-प्रदान करने की व्यवस्था को चुस्त बनाने की पहल की थी। खुफिया ब्यूरो के तहत आने वाली मल्टी एजेंसी सेंटर नाम की एक नोडल एजेंसी सूचनाओं को संबंधित पक्षों के साथ साझा करने का काम देखती है। सभी खुफिया एजेंसियों को अपनी सूचनाएं एमएसी को मुहैया कराना अनिवार्य है, जो बाद में राज्य सरकारों तथा सुरक्षा एजेंसियों को इनपुट देती है।


कई बार किसी राज्य में कोई आतंकवादी घटना होने के बाद गृह मंत्रलय की ओर से ऐसे बयान आए हैं कि केंद्र ने प्रदेश सरकार को इस बारे में पहले ही सतर्क कर दिया था। जाहिर है कि चार साल की अवधि में यह व्यवस्था परिणाम देने लायक स्थिति में आ चुकी है। 1कभी-कभार ऐसी खबरें भी सामने आई हैं जिनमें गुप्तचर ब्यूरो, सीबीआइ या राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एनआइए के बीच किसी मामले की जांच के मुद्दे पर मतभेदों का जिक्र होता है, लेकिन समग्रता से देखा जाए तो भारत की लगभग आधा दर्जन प्रमुख खुफिया तथा जांच एजेंसियों के बीच तालमेल की स्थिति में सुधार आया है। एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य जिसकी कतई अनदेखी नहीं की जा सकती, यह है कि 26 नवंबर 2008 की घटना के बाद भारत और अमेरिका की खुफिया एजेंसियों, विशेषकर एफबीआइ के बीच भी करीबी संबंध कायम हुए हैं। मुंबई के हमलों के सिलसिले में एफबीआइ की मदद से ही भारतीय एजेंसियां बहुत सारी ऐसी सूचनाएं इकट्ठी करने में कामयाब रहीं जिनके स्नोत विदेशों में मौजूद थे। इनमें से बहुत सारी सूचनाएं पाकिस्तान को भारत की तरफ से सौंपे गए डोजियरों का हिस्सा बनीं। खुफिया तंत्र की यह चुस्ती, उनका पेशेवराना रवैया जारी रहना चाहिए। भारत के सामने मौजूद आतंकवादी, आपराधिक, सैन्य और आर्थिक चुनौतियों के संदर्भ में देश के प्रति उनकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण और सकारात्मक हो सकती है।


इस आलेख के लेखक बालेंदु शर्मा हैं

देश में एक गरीबी रेखा के स्थान पर दो तरह की रेखाएं

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh