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इसे गैरजरूरी भ्रम कहा जाए या फिर किसी काल्पनिक साजिश की गंध, किंतु ऐसा क्यों होता है कि जब भी कांग्रेस किसी प्रतिकूल परिणाम से घबराकर अपने शासन के अलौकिक अधिकार पर विचार करती है तो वह चालबाजी पर आमादा हो जाती है? 1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इंदिरा गांधी के निर्वाचन के खिलाफ फैसले के बाद कांग्रेस ने जिस मनमाने तरीके से प्रतिक्रिया दी उसकी लोकतांत्रिक भारत की सरकार से अपेक्षा नहीं की जा सकती थी। देश में आपातकाल की घोषणा कर दी गई और तमाम नागरिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया। हजारों विपक्षी नेताओं और कार्यकर्ताओं को जेल में ठूंस दिया गया। मतवाले से हो गए कांग्रेसियों ने इसे ‘अनुशासन का युग’ करार दिया। इंदिरा गांधी ने जब 1977 के शुरू में चुनावों की घोषणा की तो उन्हें लगा कि विपक्ष इतना हताश-निराश और असंगठित है कि यह कांग्रेस को टक्कर नहीं दे पाएगा। तब बड़ोदा डायनामाइट मामले में जेल में बंद जॉर्ज फर्नाडीज ने जोरदार तरीके से कहा था कि इन चुनावों का बहिष्कार होना चाहिए। 1इस चुनाव में कांग्रेस की क्या हालत हुई, यह अब इतिहास बन चुका है। हालांकि इसमें दिलचस्प बात यह रही कि चुनावी नतीजों से यह संदेश गया कि भारत तानाशाही को बर्दाश्त नहीं करेगा।
वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर के अनुसार तब इंदिरा गांधी ने अपनी हार के बाद देश को बचाने के लिए सेना को संभावित सहायता के लिए बोल दिया था। इसका श्रेय तत्कालीन सेना प्रमुखों को जाता है कि उन्होंने लोकतांत्रिक फैसले में दखल देने से मना कर दिया। 11989 में आम चुनाव नजदीक आते ही कांग्रेस ने एक बार फिर अपनी कमजोरी का इजहार कर दिया। बोफोर्स के खुलासे से ही नहीं, जिसमें आरोप की उंगली कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की ओर उठ रही थी, अन्य अनेक मामलों से भी घटनाओं ने करवट बदली और विपक्ष का बड़ा भाग राजीव गांधी के पूर्व वित्तमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में एकजुट हो गया, जो पहले ही भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के खिलाफ जंग के एक प्रतीक बन चुके थे। इस असंतोष के उठते ज्वार ने कांग्रेस की कुटिल प्रतिक्रिया को उजागर कर दिया। सबसे पहले तो उसने चालबाजियों से यह सिद्ध करने की कोशिश की कि बोफोर्स घोटाले पर मीडिया की पड़ताल सरकार गिराने का प्रयास मात्र है। अगर एक समाचार पत्र के पूर्व संपादक उस भयावह दौर के अपने अनुभव लिखें तो वह कांग्रेस और उसके प्रिय नौकरशाहों की क्रूरता पर अच्छा-खासा प्रकाश डाल सकते हैं। दूसरे, एक अवमानना बिल संसद के एक सदन से पारित कराया गया। इसके तहत मीडिया पर बेहद सख्त प्रतिबंध थोप दिए गए थे। सौभाग्य से, मीडिया के तीखे विरोध के चलते सरकार को इस पर पुनर्विचार के लिए मजबूर होना पड़ा। हालांकि इस विचार मात्र से ही दिमाग झन्ना जाता है कि इस प्रकार का कदम उठाया गया और मीडिया का गला घोंटने की पूरी तैयारी कर ली गई थी।
यह दिलचस्प होगा अगर समाचार चैनलों के एंकर पी. चिदंबरम से तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा प्रेस का गला घोंटने के पीछे के तर्क के बारे में पूछें। तीसरी घटना बोफोर्स तोप की खरीद पर प्रतिकूल रिपोर्ट तैयार करने वाले नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक टीएन चतुर्वेदी की साख पर बट्टा लगाने से जुड़ी है। इसी प्रकार की दुर्भावना और विद्वेष से भरा अभियान तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल सुंदरजी के खिलाफ भी चलाया गया था और यह प्रचारित किया गया कि वह निर्वाचित सरकार को अंधेरे में रखकर फैसले लेने की साजिश रच रहे थे। 1इसके अलावा वीपी सिंह की प्रतिष्ठा को धूमिल करने के लिए अशोभनीय प्रयास किए गए। मनगढं़त खुलासों से यह प्रचारित किया गया कि सेंट किट्स मामले में उनका बेटा मुद्रा के संदिग्ध लेन-देन में लिप्त हैं। वीपी सिंह के बेटे के अवैध लेन-देन में लिप्त होने संबंधी इंटरव्यू देने के लिए कुछ भाड़े के विदेशी लोगों को तैनात किया गया। नौकरशाही और मीडिया का एक वर्ग सरकार प्रायोजित इस जघन्य षडय़ंत्र का हिस्सा बना।1सौभाग्य से इन चालबाजियों में से किसी का भी कांग्रेस को लाभ नहीं मिला। 1984 में लोकसभा की चार सौ से अधिक सीटें जीतने के बाद अगले चुनाव में राजीव गांधी इस संख्या को दो सौ से नीचे ले गए और उनके कट्टर प्रतिद्वंद्वी वीपी सिंह प्रधानमंत्री बन गए। इससे लगता है कि भारतीयों ने लड़खड़ाती कांग्रेस सरकारों के हताशाभरे क्रियाकलापों से सबक लेते हुए चीजों को सही नजरिये से देखने की कला सीख ली।
कई रूपों में पीवी नरसिंह राव कांग्रेसियों में एक अलग किस्म के नेता थे। इसके बावजूद जब भी उनकी सरकार पर खतरा मंडराया, उनकी प्रतिक्रिया ठीक वैसी रही जैसी गांधी परिवार की रहती थी। यह उनके कुशल नेतृत्व का ही कमाल था कि बहुमत के लिए सांसदों के वोट खरीदने की परंपरा शुरू हुई। यही नहीं, चुनाव से ठीक पहले विपक्षियों की साख बिगाड़ने के लिए वह जैन हवाला मामले में इस्तेमाल करो और फेंको की नीति पर उतर आए। इसके बाद उन्होंने वही घिसापिटा जुमला दोहराया-कानून अपना काम करेगा। राव इतने चतुर थे कि कुछ कांग्रेस नेताओं को हवाला मामले में फंसाने में कामयाब हो गए थे। तमाम आरोपियों को दो साल बाद बरी कर दिया गया, लेकिन तब तक फैसला सुनाने वाले मीडिया ने घोषणा कर दी थी कि सभी आरोपी दोषी हैं। हालांकि 1996 में मतदाता और भी समझदार निकला और कांग्रेस की संख्या 140 सीटों पर सिमट गई। कांग्रेस मौजूद माहौल में भी कुछ ऐसा ही करती नजर आ रही है। गुजरात में तथाकथित फर्जी मुठभेड़ को लेकर नरेंद्र मोदी की छवि धूमिल किए जाने और पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह पर हमले को लेकर जनता में रोष है। राज्यसत्ता का दुरुपयोग करते हुए सरकार विपक्ष को दरकिनार करने में जुटी हुई है। इस तरह की राजनीतिक चालों को इसीलिए चला जा रहा है, क्योंकि अतीत में इस तरह के षड्यंत्र में शामिल रहे लोगों को शायद ही कभी दंडित किया गया। जिस दिन कोई सरकार अपने पूर्ववर्ती शासन में दोषी रहे लोगों के खिलाफ कार्रवाई करना शुरू करेगी उसी दिन से लोकतंत्र की सामान्य विशेषता के अनुरूप सरकारों में संभावित बदलाव भी दिखना शुरू हो जाएगा।
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