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उत्तर-पूर्व के राज्यों के प्रति शेष देश के दृष्टिकोण में नादानी और असंवेदनशीलता देख रहे हैं शेखर गुप्ता
पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान मुझे एक सम्मानीय टीचर ने तीन उदाहरण के नियम के बारे में पढ़ाया था। इसलिए पिछले सप्ताह के दौरान अच्छे-बुरे कारणों से चर्चा में रहे उत्तरपूर्व के संबंध में मैंने तीन घटनाएं चुन लीं। पहली दो घटनाएं मणिपुरी मुक्केबाज मैरी कॉम की सफलता को लेकर हिंदी सिनेमा की प्रतिक्रिया से जुड़ी हैं। आश्चर्य नहीं कि शाहिद कपूर ने मैरी कॉम के नाम की स्पेलिंग गलत लिख दी। इसके बाद काफी वरिष्ठ, बेहद पढ़ाकू और समझदार अमिताभ बच्चन ने उन्हें असम का बता दिया। हालांकि बाद में उन्होंने गलती को सुधार भी लिया। तीसरी घटना एक टीवी शो के दौरान हुई जहां उत्तर-पूर्व में लंबे समय तक कार्यरत एक प्रशासकीय अधिकारी से मेरी हल्की बहस हुई। यहां विमर्श का विषय था कि क्या मैरी कॉम की सफलता उत्तरपूर्व के प्रति हमारा नजरिया बदल देगी? वह इस बात से नाखुश थे कि उत्तरपूर्व से आने वाले बहुत से युवक-युवतियां पूरे भारत में सेवा उद्योग-रेस्तरां, एयरलाइंस और अस्पताल आदि में ही कार्यरत हैं। वे और महत्वपूर्ण काम क्यों नहीं कर रहे हैं? हममें से हरेक उत्तरपूर्व के प्रति अनभिज्ञता, असंवेदनशीलता और मुख्यधारा को महत्व देने के दृष्टिकोण के पहलुओं को रेखांकित करता है। आप समझ सकते हैं कि शाहिद कपूर अपनी पसंदीदा बॉक्सर का नाम सही नहीं लिख पाए, किंतु सीनियर बच्चन? पुरानी पीढ़ी का कोई व्यक्ति जैसे कि मैं नागा, मिजो, खासी या गारो को गलती से असमिया समझ ले तो समझ में आता है। नागालैंड, मिजोरम और मेघालय पुराने असम के ही जिले थे। किंतु मणिपुर? यह तो भारत के सबसे पुराने और विशिष्ट राज्यों में से एक है। हमारे उत्तरपूर्व राज्यों की जनसांख्यिकी किसी को भी चकरा सकती है।
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मणिपुर के पहाड़ों पर रहने वाले सभी आदिवासियों जैसे नागा, मिजो, कुकी और मैरी कॉम के कॉम के संबंधी पड़ोसी देश म्यांमार में भी रहते हैं। इसलिए आप सीनियर बच्चन के मुगालते को समझ सकते हैं। इन तीनों में से सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण पूर्व प्रशासनिक अधिकारी का था। अपनी चिंता के दोनों कारणों कि उत्तरपूर्व से आने वालों को केवल सेवा क्षेत्र में ही रोजगार मिलता है तथा उत्तरपूर्व के लोगों के शेष भारत से मेलमिलाप के लिए और अधिक प्रयास की आवश्यकता है, में उन्होंने यह रेखांकित किया कि उस क्षेत्र के सत्ता प्रतिष्ठान का कुलीनतावादी नजरिया पिछले कुछ दशकों से बदला नहीं है। यह अभी भी दूरदराज का और कटा हुआ क्षेत्र है, और इसके भारतीयकरण की आवश्यकता है। इस प्रयास में मैरी कॉम जैसे स्टार हमारी और उनकी सहायता कर सकते हैं। उन्होंने आगे कहा कि उत्तरपूर्व के लोग दुर्भाग्यशाली हैं और अब दिल्ली जैसे बड़े शहरों में उनके खिलाफ गैरकानूनी जातीय कटाक्ष किए जा रहे हैं। इस क्षेत्र का भारतीयकरण में रूपांतरण तभी हो सकता है जब यहां के लोग अधिक महत्वपूर्ण कामों में लगें। यह बयान आर्थिक गतिशीलता की नासमझी का नमूना है।
दरअसल, लोग उन्हीं नौकरियों और पेशों में आगे आते हैं, जिनमें उनकी विशिष्ट योग्यता होती है। इसके अलावा, श्रम की गरिमा और जातिविहीन, वर्गविहीन समतामूलक समाज, जिनमें कबीलाई समाज रहता आया है और आज भी इन मूल्यों को सहेजे हुए है, भी इस कार्यविभाजन का जिम्मेदार है। इस गैरवर्णक्रम वाले जीवन से मेरा पहला साबका तब हुआ था जब मैंने उत्तरपूर्व की अपनी शुरुआती यात्राओं में देखा कि ड्राइवर, चपरासी, पुलिसकर्मी भी मंत्री के बगल में बैठ कर ढाबों में खाना खाते थे। यह दृश्य देखकर मैं हैरान रह गया था। उस समय मेरे मित्र शिक्षा मंत्री फनाई मालस्वमा को उनके ड्राइवर ने टेबिल टेनिस में बुरी तरह धोने के बाद कहा कि जबसे वह मंत्री बने हैं तबसे आलसी और ढीले-ढाले हो गए हैं। वहां खड़े अन्य लोग जिनमें अधिकांश ड्राइवर और कनिष्ठ कर्मचारी थे, इस बात पर खुश होकर ताली बजा रहे थे। शेष देश में मुझे एक ड्राइवर दिखाएं जो अपने मंत्री को किसी भी खेल में हरा सकता हो। या फिर कोई ऐसा मंत्री जो इस हार का भी मजा ले। यह तो आदिवासियों के जातिविहीन समतावाद, श्रम की गरिमा का नतीजा है कि उत्तरपूर्व के लोगों ने बड़े शहरों में तेजी से बढ़ते सेवा क्षेत्र में अपनी अहमियत तलाश ली।
मुक्केबाजी, तीरंदाजी तथा वेटलिफ्टिंग के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी उनमें जबरदस्त प्रतिभा भरी हुई है। रेस्तरांओं और बार में बड़ी तादाद में उत्तरपूर्व के गायक और संगीतकार मिलेंगे। क्या हमें उन्हें दंभपूर्ण दया के साथ देखना चाहिए? ये भयभीत लोग उत्तरपूर्व के हमवतनों की पहली पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जो मुख्यभूमि में गरिमा के साथ जिंदगी बिता रही है। हमारी जिम्मेदारी है कि उन्हें सम्मान और सुरक्षा का अहसास कराएं। बहुत से लोग तो यह भी नहीं जानते कि ये अल्पसंख्यक कितनी छोटी तादाद में हैं। नागाओं की संख्या महज 15 लाख है, मिजो दस लाख से भी कम हैं और मणिपुर के तमाम आदिवासी दस लाख भी नहीं हैं। इसमें दस लाख की आबादी वाले खासिस और गारोस जोड़े जा सकते हैं। अरुणाचल प्रदेश में केवल दस लाख आदिवासी हैं, जबकि बोडो की संख्या बस 15 लाख है। हमारे शहरों में उनकी बढ़ती उपस्थिति तथा अपरिहार्यता उनकी विलक्षण प्रतिभा को दर्शाती है, जबकि इसके बदले में उन्हें मिलती है हमारी अवहेलना। हमारी यह अवहेलना या नादानी ही उनके प्रति सम्मान के अभाव का कारण है साथ ही हमारे यह समझ पाने की विफलता कि उन्हें गुस्सा क्यों आता है? हमारे आलसी नजरिए का नवीनतम और सबसे दुखद उदाहरण है मुख्यभूमि के सांप्रदायिक, चुनावी राजनीति के चश्मे से बोडो हिंसा को देखना। पहचान, जातीयता, जीविकोपार्जन और अस्तित्व की जिद्दोजहद उत्तरपूर्व के बेहद जटिल मुद्दे हैं। ये मूल स्थान की विशिष्टताओं से संचालित हैं, न कि हमारे हिंदू-मुस्लिम प्रतिमान से।
अधिकांश बोडो परंपरागत रूप से हिंदू तक नहीं हैं। बहुत से अपनी खुद की आस्था में विश्वास रखते हैं और काफी बड़ी संख्या ईसाइयों की भी है। ये घुसपैठियों पर हमला इसलिए नहीं कर रहे हैं कि ये मुसलमान हैं, बल्कि मुसलमानों, बांग्लाभाषियों पर इसलिए हमला कर रहे हैं, क्योंकि ये घुसपैठिए हैं। बेहतर होगा कि इन गंभीर और जटिल गुत्थियों पर फिर किसी दिन विचार किया जाए। फिलहाल तो हमें इनका सही नाम बोलने और इनके प्रदेश का सही नाम बताने तक में कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। 31 साल पहले जब मैं रिपोर्टर के तौर पर उत्तरपूर्व गया था तो हमारे कैशियर ने पूछा था कि आपको किस मुद्रा में वेतन चाहिए। पिछले दस दिनों की घटनाएं यह बताने के लिए काफी हैं कि इस बीच हम जरा भी नहीं बदले।
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शेखर गुप्ता इंडियन एक्सप्रेस के संपादक हैं
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