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आम तौर पर जब भी आप यह पूछना शुरू करते हैं कि क्या कांग्रेस ने अपनी राजनीतिक सूझबूझ खो दी है, यह पार्टी कोई न कोई अप्रत्याशित कदम उठा बैठती है, जैसाकि उसने परमाणु करार को सफलतापूर्वक समर्थन देकर किया था। इस राजनीतिक कौशल का परिचय एक बार फिर देखने को मिला जब राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा को अलग-थलग कर दिया और ममता बनर्जी को अपमान का घूंट पिला दिया। एक बार फिर आर्थिक फैसलों के जरिये कांग्रेस ने हवा के रुख को बदल डाला। इसके बाद जैसे ही एक निजी व्यक्ति रॉबर्ट वाड्रा पर आरोप लगे अचानक वह फिर से खंदक में उतर गई और अंधाधुंध गोलीबारी शुरू कर दी। 2004 और 2009 के चुनाव इस बात के साक्ष्य हैं कि कांग्रेस में सूझबूझ की कमी नहीं है, पर इसे क्या कहा जाए कि जैसे ही गांधी परिवार के सदस्य पर हमला किया गया, यह अपनी राजनीतिक सूझबूझ, विवेक, समझ सभी कुछ गंवा बैठी।
उसने राजनीतिक दल की तरह व्यवहार करना बंद कर दिया। उसके वरिष्ठतम नेताओं और कैबिनेट मंत्रियों, जिनके पास सार्वजनिक जीवन का लंबा अनुभव है, ने परिपक्वता दिखाने के बजाय राजनीतिक गैंग्स ऑफ हस्तिनापुर के बौखलाए निशानेबाजों की तरह व्यवहार करना शुरू कर दिया। सवाल है कि यह आत्मघाती प्रत्याक्रमण किया क्यों गया? अगर गांधी परिवार में विवाह के बावजूद वाड्रा एक निजी व्यक्तित्व हैं और गैरराजनीतिक हैं तो फिर उनके बचाव में कांग्रेस क्यों कूद पड़ी और वह भी मूर्खतापूर्ण अंदाज में। अगर आपको लगता है कि हम कुछ अधिक ही कटु हो रहे हैं, तो कुछ प्रमुख कांग्रेसियों के बयानों पर गौर फरमाएं। सबसे पहले सलमान खुर्शीद ने इस उम्मीद के साथ गांधी परिवार के लिए अपनी जान देने की पेशकश की कि वह इससे प्रभावित होगा। तब उन्होंने बेसिरपैर का सवाल दागा कि प्रशांत भूषण को केस कहां से मिलते हैं? आप पहले टीम केजरीवाल पर राजनीतिक न होने का आरोप लगाते हैं और फिर खेल के नियम तोड़ते हुए गलत जगह वार करते हैं। भला वाड्रा के खिलाफ लगाए गए आरोपों का इस बात से क्या संबंध है कि भूषण को केस कैसे मिलते हैं! कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने बड़ी मशक्कत के बाद विद्वजनों की भीड़ में अपनी आवाज ऊंची करते हुए घोषणा की कि केजरीवाल भाजपा की बी टीम है।
राजीव शुक्ला ने बड़ी तेजी से उद्घोषणा की कि इस मामले में किसी पक्ष को कोई फायदा नहीं पहुंचाया गया। इतनी जल्दी वह यह कैसे जान गए? इसके बाद उन्होंने हिमाचल प्रदेश में प्रशांत भूषण को मिली जमीन में घोटाले को उजागर किया। और सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी? उन्होंने कहा कि अपनी छवि चमकाने के लिए केजरीवाल ने आरोप लगाए हैं। क्या यह राजनीति में अपराध है? उन्होंने टीवी चैनलों पर इन आरोपों के प्रसारण का आरोप मढ़ा। पीछे न रहते हुए वीरप्पा मोइली भी भटक गए। उन्होंने केजरीवाल को जर्मन नाजी गोएबल्स की तरह झूठा बताया और कहा कि भारत जर्मनी नहीं है। हमारा लोकतंत्र परिपक्व है। वह किस जर्मनी की बात कर रहे हैं? एचआर भारद्वाज भी गांधी परिवार के बचाव में उतर आए। कर्नाटक के राज्यपाल हंसराज भारद्वाज वही शख्स हैं जिन्होंने कानून मंत्री के अपने कार्यकाल में क्वात्रोची के बैंक खातों पर रोक हटवाने में मदद करके गांधी परिवार की स्थायी शर्मिदगी पर विराम लगा दिया था। जयंती नटराजन एक टीवी स्टूडियो में गुस्से से तमतमा उठीं और इसे बेशर्मी और शर्मनाक करार दिया। उन्होंने अपना गुस्सा इतने प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया कि इसी चर्चा में शामिल सलमान खुर्शीद इस डर से चुपचाप खिसक लिए कि कहीं उन्हें अपेक्षाकृत उदार न समझ लिया जाए। यह ऐसा स्वत:स्फूर्त तूफान था कि एके एंटनी भी अपनी स्थायी शांति को भंग करने पर विचार करने को मजबूर हो गए होंगे।
यहां सवाल उठता है कि हिमाचल में भूषण को मिलने वाली जमीन पर सवाल उठाते समय नोएडा में मायावती द्वारा उन्हें पक्के तौर पर गलत तरीके से दिए गए फार्म हाउस के मामले को दरकिनार क्यों कर दिया गया? इस संबंध में खुद शांति भूषण स्वीकार कर चुके हैं, मैं सहमत हूं कि इस स्कीम में जरा भी पारदर्शिता नहीं थी.. पर हमें इसे चुनौती क्यों दें?..इस तरह की स्कीम को रद कर दिए जाने का केस जरूर चलना चाहिए। कांग्रेसियों द्वारा इस प्रकरण पर उंगली क्यों नहीं उठाई गई? क्या इसलिए कि कुछ वरिष्ठ कांग्रेसियों को भी इस सिद्धांत का पालन करते हुए वहां जमीन मिली है कि रामनाम की लूट है..? आश्चर्यजनक रूप से जयराम रमेश और दिग्विजय सिंह इस प्रकरण में कहीं नजर नहीं आए। कुल मिलाकर यह गुस्से का यह अकस्मात विस्फोट उसी पार्टी का प्रचलित विचार हो सकता है, जहां लंबे समय से चापलूसी की परंपरा जारी हो। यह ऐसा था जैसे शाही अदालत में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की होड़ लगी हो। और उम्मीद के मुताबिक सबसे गुस्साई आवाजें उन लोगों की रहीं जो पार्टी के राज्यसभा के दरबारी थे। निश्चित तौर पर रॉबर्ट वाड्रा के पास अपने बचाव में कुछ होगा। हर सूरत में जब तक दोषी न ठहरा दिए जाएं वह निर्दोष होने के सामान्य विशेषाधिकार के हकदार हैं। किंतु उन्हें अपना बचाव खुद करना चाहिए था, यह खासतौर पर इसलिए भी जरूरी था, क्योंकि वह मात्र एक नागरिक हैं। बचाव तथ्यों, जवाबों और स्पष्टीकरण पर आधारित होना चाहिए था, न कि जवाबी गाली-गलौच तथा गुस्से की भाषा में। साफ-साफ कहें तो अगर उनके पास बचाव था भी तो इसे उनकी ससुराल वालों की पार्टी के चापलूसों ने बुरी तरह नुकसान पहुंचाया है। अगर अब वह यह दलील देते हैं कि वह सार्वजनिक जीवन में नहीं है और उन्हें इस तरह सुर्खियों में नहीं रखा जाना चाहिए तो जनमत इसे स्वीकार नहीं करेगा।
कांग्रेसियों ने अपनी मूर्खतावश उनकी टोपी उछाल दी है और साथ ही अपनी भी। बड़ा मुद्दा यह है कि कांग्रेस को परिपक्व होने की आवश्यकता है। केजरीवाल और भूषण ने 1980 के बाद का यह राजनीतिक समझौता तोड़ दिया है कि राजनीतिक परिवारों के बच्चों पर हमले नहीं किए जाएंगे। 2007 में सोनिया गांधी के मौत के सौदागर बयान के बाद नरेंद्र मोदी के गाय-बछड़ा वाले बयान और इस तरह के कुछ और अपवादों को छोड़ दें तो विपक्ष ने गांधी परिवार को निशाने पर नहीं लिया है। वाम दलों ने मनमोहन सिंह और पी चिदंबरम पर तो हमले किए, लेकिन गांधी परिवार को बख्श दिया। अब समीकरण बदल गए हैं। कांग्रेस को इसी के अनुरूप अपनी राजनीति में बदलाव करना चाहिए। अगर यह पिछले सप्ताह की तरह प्रत्युत्तर देगी तो अपनी लोकतंत्र विरोधी संस्कृति को ही उजागर करेगी और पार्टी में यही मानसिकता पुष्ट होती रहेगी कि मैं अन्य से बड़ा वफादार हूं।
लेखक शेखर गुप्ता इंडियन एक्सप्रेस के संपादक हैं
Tag: कांग्रेस,गांधी परिवार, रॉबर्ट वाड्रा, टीम केजरीवाल
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