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देश की अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी है और अब यह बात खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी मानने लगे हैं। प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम अपने संदेश में इस बात का भी जिक्र किया है कि कोई भी सरकार आम आदमी पर बोझ नहीं डालना चाहती और यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह राष्ट्रहित में काम करे और जनता के भविष्य को सुरक्षित रखे। सबसे बड़ा सवाल यह है कि संप्रग-1 और संप्रग-2 के अब तक के कार्यकाल के दौरान देश की अर्थव्यवस्था अगर चौपट हो चुकी है तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है? प्रधानमंत्री ने अपने संदेश में भी यह भी कहा है कि हमारी सरकार को दो बार आम आदमी की जरूरतों का ख्याल रखने के लिए चुना गया है। क्या खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश खोल देने के बाद ठेलों या टोकरियों में फल और सब्जियां बेचने वाले छोटे दुकानदार, खोमचा लगाने वाले, गली-मोहल्लों में अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए किराने की दुकानें चलाने वाले करोड़ों लोग और उन पर आश्रित तमाम लोग बरबाद नहीं हो जाएंगे? यही नहीं, कृषि क्षेत्र में सरकार की अनदेखी किसी से छिपी नहीं है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर नजर डालें तो पिछले 16 सालों में अब तक देश भर में ढाई लाख से ज्यादा किसान खुदकुशी कर चुके हैं। अगर 2003 से 2010 के आठ सालों का जिक्र करें तो इस दौरान एक लाख 35 हजार से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी की और सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि किसानों की आत्महत्या की ज्यादा घटनाएं महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में हुई हैं।
किसानों के बदतर हालात सिर्फ महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में ही नहीं, बल्कि दूसरे राज्यों में कमोबेश एक जैसे ही हैं और यही वजह है कि आज लोग खेती छोड़कर शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं। किसानों का सवाल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यह तर्क न तो आम आदमी और न ही अर्थशास्ति्रयों के गले उतर रहा है कि खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश के लिए दरवाजे खोल देने से किसानों के हालात में सुधार होगा और उन्हें उनकी फसलों के ज्यादा दाम मिलेंगे। क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बताएंगे कि ये विदेशी किराना दुकानें भारत की अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए आ रही हैं या फिर इनका मकसद भारतीय किसानों के बिगड़े हालात को सुधारना है? क्या किसान इन विदेशी किराना दुकानों की जरूरतों के हिसाब से ही अपनी फसलों का उत्पादन करेंगे? क्या एक बार विदेशी किराना दुकानों को फसलें बेच देने के बाद से खुद किसानों को ही अपने बेचे हुए माल को इन लोगों से ज्यादा कीमत देकर नहीं खरीदना होगा? यह बात हैरान करने वाली है कि देश की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह खोखला करने वाला कदम उठाकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह किस बात पर अपनी पीठ थपथपाने में जुटे हैं? राष्ट्र के नाम अपने संदेश में मनमोहन सिंह का यह भी कहना था कि संगठित खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश की अनुमति देने के लिए हमने जो नियम बनाए हैं, उसके मुताबिक जो विदेशी कंपनियां सीधा निवेश करेंगी, उन्हें अपने धन का पचास फीसद नए गोदामों, कोल्ड स्टोरेज और आधुनिक ट्रांसपोर्टर व्यवस्थाओं को बनाने के लिए लगाना होगा।
प्रधानमंत्री का मानना है कि इसका सबसे बड़ा फायदा यह भी होगा कि हमारे फलों और सब्जियों का तीस फीसद हिस्सा जो अभी तक स्टोरेज और ट्रांसपोर्ट में कमियों की वजह से खराब हो जाता है, उसका नुकसान नहीं होगा और यह सभी कुछ उपभोक्ताओं तक पहुंच सकेगा। इसके पहले भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस बात की वकालत कर चुके हैं कि खुदरा कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से आधुनिक टेक्नोलॉजी भारत में आएगी और किसानों को उनकी फसलों के सही दाम मिलेंगे। हैरानी इस बात पर होती है कि अंतरिक्ष से लेकर परमाणु विज्ञान के क्षेत्र में स्वदेशी टेक्नोलॉजी का दुनिया भर में लोहा मनवाने के बाद क्या हिंदुस्तान को खुदरा कारोबार के क्षेत्र में विदेशी टेक्नोलॉजी के लिए दूसरे देशों की तरफ मुंह ताकने की जरूरत है? कृषि उत्पादों की बर्बादी रोकने के लिए क्या हमें किसी वालमार्ट की जरूरत है? किसानों को फसल के वाजिब दाम मिलें, इसके लिए क्या हम कोई व्यवस्था विकसित नहीं कर सकते? क्या इसके लिए भी हमें विदेशी कंपनियों को भारत लाने की जरूरत पड़ेगी? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया का अर्थशास्त्र कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी या फिर समूची कांग्रेस पार्टी को समझ में आता होगा। वैसे भी देश में ज्यादातर लोगों को अर्थशास्त्र की बारीकियां समझने में मुश्किल होती है, लेकिन फिर भी आम आदमी को अर्थशास्त्र की इतनी बात जरूर समझ में आती है कि शहरों में 28 रुपये 65 पैसे और गांवों में 22 रुपये 42 पैसे प्रतिदिन खर्च करने वाले लोगों को योजना आयोग गरीब क्यों नहीं मानता? उसे इतना तो समझ में आता है कि पांचवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया था, लेकिन अब तक गरीबी दूर नहीं हुई तो सरकार गरीबों को ही हटाने के लिए अर्थशास्त्र के नए-नए पैंतरे चलने में जुटी है।
देश के आम आदमी को सरकार का यह अर्थशास्त्र भी समझ में आता है कि एक तरफ तो सरकार फिजूलखर्ची रोकने की बात करती है तो दूसरी तरफ देश की तरक्की की योजना बनाने वाले योजना आयोग में दो शौचालयों की मरम्मत पर 35 लाख रुपये का खर्च आता है। योजना आयोग के उपाध्यक्ष की विदेश यात्रा के दौरान भी हर दिन का खर्च दो लाख रुपये से ज्यादा का आता है। तरक्की के बहाने आए दिन पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की बढ़ती कीमतों ने आम आदमी की कमर तोड़कर रख दी है और देश के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह लोगों को यह भरोसा दिलाने में जुटे हैं कि विदेशी किराना दुकान खोलने के बाद ही देश तरक्की के रास्ते पर आगे बढ़ेगा। देश में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों को इतना अर्थशास्त्र जरूर समझ में आता है कि सरकार भले ही आम आदमी के साथ खड़े होने की बात करे, लेकिन उसके बच्चे दो वक्त भरपेट भोजन भी नहीं कर पाते। अगर गांव-देहात में इलाज की बात करें तो प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र खुद बीमार हैं। शिक्षा कर्मियों के भरोसे चल रहे स्कूलों के हालात किसी से छिपे नहीं है। देश के लिए योजना बनाने वाले लोगों को न ही गांव वालों की तकलीफों के बारे में जानकारी है और न ही इन्हें शहर में रहने वाले गरीबों की मुश्किलों का पता है। यही वजह है कि योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया मानते हैं कि ग्रामीण इलाकों में आर्थिक संपन्नता बढ़ने की वजह से देश में खाने-पीने की चीजों के दाम बढ़ रहे हैं। देश में योजना आयोग के उपाध्यक्ष और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्र को सही ढंग से समझने वाले मोंटेक सिंह अहलूवालिया का यह भी कहना है कि गरीब लोग भी अब पौष्टिक आहार लेने लगे हैं। इसी वजह से खाद्य पदार्थो की कीमतों में इजाफा हो रहा है।
कुल मिलाकर सरकार का अर्थशास्त्र आम आदमी की समझ से बाहर है और देश के प्रधानमंत्री खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश की वकालत करते नजर आ रहे हैं। देश की आर्थिक नीति हमारे मौजूदा प्राकृतिक संसाधनों और मानव संसाधनों पर आधारित होनी चाहिए। इसमें कोई दो मत नहीं कि 1991 में औद्योगिक सुधार की शुरुआत का कई क्षेत्रों में सकारात्मक असर भी दिखाई दिया है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज भी देश में अमीरी और गरीबी के बीच का फासला घटने की बजाय बढ़ा ही है। जरूरत इस बात की है कि सरकार देश में औद्योगिक निवेश का बेहतर माहौल बनाने की कोशिश करे ताकि देश में सकल घरेलू उत्पाद की दशा सुधारकर हम अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत बना सकें। प्रधानमंत्री का यह कहना ठीक है कि पैसे पेड़ पर नहीं लगते, लेकिन प्रधानमंत्री को यह भी सोचना होगा कि कोयला खदानों से या फिर 2जी स्पेक्ट्रम या कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन से कैसे धन की बरसात होती है और यह काला धन किस तरह लोगों की तिजोरियों में पहुंचता है। अगर कांग्रेस की अगुवाई वाली संप्रग सरकार इस काले धन को लेकर सही कदम उठाए तो उसे किसी विदेशी किराना दुकान वालों के आगे कटोरा लेकर खड़ा नहीं होना पड़ेगा।
लेखक शिव कुमार राय स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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