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फटकार की हकदार सरकार

जागरण मेहमान कोना
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कोयला घोटाले पर सीबीआइ द्वारा तैयार स्टेटस रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट में पेश करने से पहले कानून मंत्रलय और प्रधानमंत्री कार्यालय को दिखाने और उसमें संशोधन कराने से यह आरोप पुष्ट हो जाता है कि सरकार सीबीआइ के कामकाज में हस्तक्षेप कर रही है। पिछले कुछ सालों से तो सीबीआइ का नियंत्रण सरकार के हाथ से निकलकर सत्तारूढ़ दल के नेताओं के हाथों में चला गया है। सीबीआइ का गठन दिल्ली स्पेशल पुलिस (एस्टेबलिसमेंट) एक्ट 1946 के तहत किया गया था। मूल रूप से इसका गठन केंद्र सरकार की जांच एजेंसी के रूप में रूप में हुआ था। इसका प्रमुख कार्य केंद्र सरकार और अन्य सरकारी संस्थानों के अधिकारियों के भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करना था। नियुक्ति व तबादले की प्रक्रिया पर नियंत्रण और सीबीआइ के अधिकारियों को भविष्य के लिए प्रलोभन देकर सरकार ने सीबीआइ को स्वतंत्र और स्वायत्त बनाने के सभी प्रयासों को कुंठित कर दिया है।


भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में लोकपाल के गठन की आवाज उठने के बाद हमने सीबीआइ की स्वायत्तता और स्वतंत्रता सुनिश्चित करने को लेकर राज्यसभा की सेलेक्ट कमेटी को एक सुझावपत्र सौंपा था। इसमें दिए गए कुछ महत्वपूर्ण सुझाव इस प्रकार थे। हमने पहला गंभीर मुद्दा यह उठाया कि राजनीतिक दुरुपयोग के कारण सीबीआइ अपनी विश्वसनीयता गंवा चुकी है। इसलिए सीबीआइ अधिकारियों के तबादलों का अधिकार केंद्र सरकार के कार्मिक विभाग से लेकर लोकपाल को सौंप दिया जाए। इसके अलावा सीबीआइ को दो भागों में बांटने का सुझाव दिया गया था। सीबीआइ के निदेशक पर पूरे संगठन की जिम्मेदारी होने के साथ एक नया पद निदेशक अभियोजन सृजित किया जाए। सीबीआइ का जांच विभाग और अभियोजन विभाग स्वतंत्र रूप से कार्य करें। दोनों निदेशकों की नियुक्ति प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और लोकपाल के एक कोलेजियम द्वारा की जाए। दोनों निदेशकों का एक निश्चित कार्यकाल हो। रिटायरमेंट के बाद निदेशकों की किसी भी पद पर पुनर्नियुक्ति न की जा सके। लोकपाल द्वारा भेजे गए मामलों में सीबीआइ को दिशानिर्देश और अधीक्षण का अधिकार लोकपाल के पास हो। किसी मामले की जांच के दौरान सीबीआइ अधिकारी को हटाने से पहले लोकपाल से इसकी अनुमति ली जाए। सीबीआइ को सलाह और सुझाव देने वाले वकीलों का पैनल सरकारी दखल से स्वतंत्र हो। पैनल में वकीलों की नियुक्ति सीबीआइ के अभियोजन निदेशक द्वारा लोकपाल से अनुमोदन के उपरांत करनी चाहिए।

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सेलेक्ट कमेटी ने हमारे कुछ सुझावों को ही अपनी सिफारिशों में शामिल किया और वह भी इन्हें काफी हलका करते हुए। ये सिफारिशें इस प्रकार हैं। सीबीआइ में एक अलग अभियोजन सेल बनाया जाएगा, जो सीबीआइ के निदेशक के अधीन काम करेगा। सीबीआइ का निदेशक ही पूरे संगठन का मुखिया होगा। सीबीआइ के निदेशक की नियुक्ति प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और भारत के मुख्य न्यायाधीश मिलकर करेंगे। सीबीआइ के अभियोजन निदेशक की नियुक्ति केंद्रीय सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) द्वारा की जाएगी। दोनों निदेशकों का निश्चित कार्यकाल होगा। लोकपाल द्वारा भेजे गए मामलों में सीबीआइ की कार्रवाई का संचालन और निर्देश देने का अधिकार लोकपाल को होगा। लोकपाल द्वारा भेजे गए मामलों की जांच कर रहे सीबीआइ अधिकारियों के तबादले लोकपाल से अनुमति लेने के बाद किए जाएंगे। लोकपाल के मामलों के संदर्भ में सीबीआइ सरकारी वकीलों से अलग पैनल बना सकती है। इसके लिए उसे पहले लोकपाल से अनुमति लेनी होगी।कैबिनेट ने सेलेक्ट कमेटी की सिफारिशों में बड़े बदलाव करते हुए इन्हें कमजोर कर दिया। कैबिनेट ने फैसला लिया कि किसी नौकरशाह के खिलाफ शिकायत दर्ज करने से पहले लोकपाल को उसे नोटिस जारी करना होगा। लोकपाल की अनुमति के बिना ही जांच अधिकारियों का तबादला किया जा सकता है। भविष्य में सीबीआइ अधिकारियों को फिर से कोई पद सौंपा जा सकता है।


कुल मिलाकर सरकार लोकपाल के विधेयक को लेकर गंभीर नहीं है। हमारे द्वारा दिए गए सुझाव उचित हैं और इनसे संस्थान की स्वायत्तता तथा स्वतंत्रता में बढ़ोतरी होगी। अपने सुझावों में हमने वकीलों के पैनल को सरकार के दखल से मुक्त रखने और इनकी नियुक्ति लोकपाल की सलाह से निदेशक अभियोजन द्वारा कराने की बात कही थी। उस समय अटॉर्नी जनरल और एडिशनल सॉलिसिटर जनरल के बीच होने वाला भद्दा संघर्ष हमारे सामने नहीं आया था। फिर भी हमें यह भान था कि अनेक संवेदनशील मामलों में सरकार का राजनीतिक प्रबंधन कानून मंत्रलय के अधिकारियों का इस्तेमाल कर रहा है। इससे कानून अधिकारियों की प्रतिष्ठा धीरे-धीरे धूमिल होने लगी। इन्हें बार-बार समझौते करने पड़े। सरकार या न्यायालय के संवैधानिक सलाहकार होने के बजाय ये सरकार की ओर से कानूनी-राजनीतिक प्रबंधन के औजार बनकर रह गए। संप्रग सरकार द्वारा नियुक्त अनेक कानून अधिकारियों ने कर्तव्यों का पालन न करके अपने पद की गरिमा गिराई है। कुछ ईमानदार अधिकारियों ने समझौते करने के बजाय पद छोड़ना उचित समझा। वर्तमान विवाद जितना सीबीआइ की स्वतंत्रता और स्वायत्तता का मुद्दा उठाता है उतना ही कानून अधिकारियों की स्वतंत्रता और निष्पक्षता का।


चूंकि हम एक ऐसे युग में रह रहे हैं जिसमें संस्थान धीरे-धीरे निष्प्रभावी होते जा रहे हैं, ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि जब तक हम इन संस्थानों का पुनर्निर्माण न कर लें और इनकी प्रतिष्ठा पुनस्र्थापित न कर दें तब तक सीबीआइ को सलाह व सहयोग देने के लिए सरकारी वकीलों के बजाय स्वतंत्र वकीलों का पैनल बनाया जाना चाहिए। इन वकीलों की नियुक्ति अभियोजन निदेशक द्वारा लोकपाल की पूर्वानुमति लेकर करनी चाहिए। बहुत से मामलों में, जिनमें सरकारी अधिकारी आरोपी होते हैं, सरकार अभियोजकों का चुनाव नहीं कर सकती। संप्रग सरकार ने कानून अधिकारियों के संस्थान की गरिमा गिराई है। यह विफल होता संस्थान ही आज संप्रग सरकार की छीछालेदर का जिम्मेदार है। इस मुद्दे पर सरकार को सुप्रीम कोर्ट की जो झाड़ पड़ी है वह उसकी ही हकदार थी। दोषी अधिकारियों को सजा मिलनी ही चाहिए। इस मौके पर कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार जिम्मेदारी का परिचय दे और हम सभी की ओर से लोकपाल विधेयक के संदर्भ में सेलेक्ट कमेटी को जो सुझाव दिए थे उन्हें स्वीकार करे।


इस लेख के लेखक अरुण जेटली हैं


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