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फिर सजा-ए-मौत, फिर बहस

जागरण मेहमान कोना
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एडुअर्डो साचेरी का चर्चित उपन्यास द क्वेश्चन इन दियर आइज, जिस पर 2010 में अर्जेटीना के जॉन जोज केम्बेनेला ने ऑस्कर पुरस्कृत फिल्म द सीक्रेट इन दियर आइज बनाई थी। इसकी कहानी कुछ इस प्रकार है कि बेंजमिन एसपोस्टो को फेडरल सेवाओं से अवकाश ग्रहण किए हुए 25 वर्ष हो गए हैं, लेकिन एक अनसुलझा अधूरा केस उन्हें परेशान किए हुए है। केस यह है कि एक 23 वर्षीय लड़की लिलयाना कोलोटो की दुष्कर्म के बाद हत्या कर दी जाती है। तब कोलोटो का पति घर से काम करने बाहर गया था। इस मामले की जांच एसपोस्टो को दी जाती है, लेकिन एक साल के बाद ही केस को बंद कर दिया जाता है। फिर भी एसपोस्टो के कहने पर इस केस को खोलने के लिए 25 साल बाद मुकदमा दायर किया जाता है। मुकदमे के दौरान पीडि़त महिला का पति रिकार्डो मोरल्स एसपोस्टो से मालूम करता है कि अगर दुष्कर्मी हत्यारा गिरफ्तार कर लिया जाता है तो उसके साथ क्या किया जाएगा? एसपोस्टो जवाब देता है कि उसे आजाद घूमने नहीं दिया जा सकता, उसे मृत्युदंड दिया जाएगा। मोरल्स को यह सजा लग्जरी प्रतीत होती है। वह कहता है, दुष्कर्मी हत्यारे को मृत्युदंड नहीं, एक ऐसा जीवन देना चाहिए, जिसमें उसके लिए करने को कुछ न हो। वह अपने अपराध को याद करता हुआ पल-पल मौत का इंतजार करता रहे। फिल्म का यह दृश्य मृत्युदंड पर अपने देश में फिलहाल चल रही बहस के एक दृष्टिकोण को उजागर करता है, जिसके तहत दुर्लभ में भी अति दुर्लभ मामले में फांसी की सजा न दिए जाने और जीवनभर अपराधी को सलाखों के पीछे रखने की वकालत की जा रही है। दूसरी ओर एक राय यह भी है कि पीडि़त परिवार को न्याय तभी मिल सकता है, जब अपराधी को फांसी के फंदे पर लटका दिया जाए। इसके अलावा इस वर्ग का यह भी कहना है कि जब फांसी जैसी सख्त सजा दी जाएगी, तभी जाकर बढ़ते अपराधों पर अंकुश लग सकेगा। इसलिए इस वर्ग ने न सिर्फ आतंकी गतिविधियों में लिप्त पाए गए अजमल कसाब व अफजल गुरु को दी गई फांसी का स्वागत किया है, बल्कि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने मृत्युदंड प्राप्त सात अन्य अपराधियों की दया याचिका खारिज की है, उसकी भी सराहना की है।

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बीते साल 16 दिसंबर को दिल्ली में गैंगरेप की जो घिनौनी वारदात हुई थी, उससे आम जनता इतनी दुखी थी कि वह इस जुर्म के अपराधियों को फांसी से कम सजा स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। फिर केंद्र सरकार ने अजमल कसाब और अफजल गुरु को फांसी पर लटकाया तो इस वजह से भी फांसी की सजा पर बहस तेज हो गई है। फांसी को लेकर कुछ चौंका देने वाले आंकड़े भी सामने आने लगे हैं। वर्ष 2001 से 2011 तक 1455 अपराधियों को भारत में फांसी की सजा सुनाई गई थी। इसी दौरान 4321 लोगों की फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदला गया। इन 4321 में से 2462 लोगों की फांसी की सजा आजीवन कारावास में अकेले दिल्ली में ही बदली गई। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े यह भी बताते हैं कि दिल्ली में फांसी को आजीवन कारावास में बदलने के 99 प्रतिशत मामले मात्र तीन वर्षो (2005-2007) में ही हुए, जब क्रमश: 919, 806 व 726 फांसी की सजाओं को आजीवन कारावास में बदला गया। दिल्ली के अलावा जिन राज्यों में निचली अदालतों ने फांसी की सजा सुनाई थी और फिर जिन्हें अपील में आजीवन कारावास में बदल दिया गया, उनमें शामिल हैं उत्तर प्रदेश (458) बिहार (343), झारखंड (300), महाराष्ट्र (175) आदि राज्य। इन आंकड़ों से जाहिर हो जाता है कि सत्र न्यायालय बहुत निरंतरता से मृत्युदंड की सजा सुना रहे हैं, जिसे अक्सर अपील के दौरान उच्च न्यायालय आजीवन कारावास में बदल देते हैं। इसका कारण सत्र न्यायालयों में दुर्लभ में अति दुर्लभ की परिभाषा को सही से न समझ पाना भी हो सकता है। लेकिन यहां सवाल यह है कि अपने देश में मृत्युदंड पर उस समय बहस क्यों नहीं होती है, जब अदालतें यह सजा सुनाती हैं?

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कुछ वर्ष पहले जब कोलकाता में दुष्कर्मी हत्यारे धनंजय चटर्जी को फांसी दे दी गई थी, तब इस विषय पर बहस छिड़ी थी। अब जब संसद पर हमले के षड्यंत्रकारी अफजल गुरु को फांसी पर लटका दिया गया है, तब इस पर बहस हो रही है। कहने का अर्थ यह है कि जब भावनाएं भड़की हुई होती हैं, उस समय इस गंभीर विषय पर बहस की जाती है। इससे कोई सही नतीजा नहीं निकल पाता है। जरूरत इस बात की है कि जब अवाम के जज्बात संयम की स्थिति में हों, तब इस महत्वपूर्ण विषय पर बहस होनी चाहिए कि क्या बदलते आधुनिक समाज में मृत्युदंड देना सही है? क्या इससे अपराधों पर अंकुश लगना संभव है? आज चारों तरफ यह चर्चा हो रही है कि जब अफजल गुरु को फांसी दे दी गई है तो फिर राजीव गांधी और बेअंत सिंह के कातिलों को फांसी क्यों नहीं दी जा रही है। फिर दिल्ली गैंगरेप के अपराधियों को भी फांसी की सजा देने की मांग की जा रही है। ऐसे माहौल में यह कैसे संभव है कि उन लोगों के विचारों और तर्को पर शांति से गौर किया जा सकेगा, जो मृत्युदंड को अपराधों पर अंकुश लगाने के सही सजा नहीं समझते हैं। अपने देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो मृत्युदंड को न्याय नहीं समझते हैं। उनके अनुसार मृत्युदंड से तो अपराधी एक अर्थ में सजा से छुटकारा पा जाता है। जीवन न रहने के कारण उसे अपने किए पर अफसोस होगा ही नहीं, जबकि वह अगर बिना पेरोल के अपने जीवन के बाकी दिन सलाखों के पीछे बिना किसी अर्थ के गुजारने के लिए मजबूर होगा तो वह स्वयं भी पश्चाताप करेगा और दूसरे भी उसे देखकर सबक लेंगे। एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दा यह भी है कि मृत्युदंड का इस्तेमाल अपराधों को रोकने और न्याय की दृष्टि से कम, राजनीतिक कारणों से अधिक होता है। वर्ष 1999 में सुप्रीम कोर्ट ने राजीव गांधी की हत्या की साजिश में शामिल मुरुगन, संथम व पेरारी वल्लन को मृत्युदंड दिए जाने की पुष्टि की थी, लेकिन उन्हें बचाने के के लिट्टे के कॉडर व समर्थकों ने मृत्युदंड विरोधी मानवाधिकार समूहों के साथ मिलकर इसका विरोध करना आरंभ किया और अब इन तीनों अपराधियों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की हुई है कि सजा को लागू करने में जो असामान्य देरी हुई है, उसे ध्यान में रखते हुए मृत्युदंड को आजीवन कारावास में बदल दिया जाए। आरटीआइ कार्यकर्ता एससी अग्रवाल को आरटीआइ के तहत प्राप्त कागजात से मालूम होता है कि राजीव गांधी के हत्यारों को अंतरराष्ट्रीय व घरेलू दबावों के कारण अब तक फांसी पर नहीं लटकाया गया है। इसी प्रकार बेअंत सिंह के कातिल रजोआना ने तो दया याचिका दायर करने से भी इन्कार कर दिया था। फिर भी पंजाब विधानसभा ने उसके मृत्युदंड को आजीवन कारावास में बदलने का प्रस्ताव पारित किया और सजा लागू होने से एक रात पहले ही मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल अपने सहयोगियों के साथ प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति से मिले। इस राजनीतिक दबाव का नतीजा यह हुआ कि रजोआना अब तक जिंदा है। बहरहाल, फांसी की सजा पर संसद और पूरे देश में बहस की जरूरत है। अपराध चाहे कितना ही घिनौना क्यों न हो, आधुनिक सभ्य समाज का तकाजा यही है कि अपराधी को प्रायश्चित, सुधार आदि के लिए एक अवसर जरूर मिलना चाहिए। यह तभी संभव है, जब फांसी पर लटकाने के बजाय अपराधी को जीवन की अंतिम सांस तक सलाखों के पीछे रखा जाए।

इस आलेख  के लेखक शाहिद ए चौधरी हैं


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Tags:hang the rapist, hang them till death,  फांसी की सजा, अजमल कसाब, अफजल गुरु, मृत्युदंड

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