- 1877 Posts
- 341 Comments
बराक ओबामा का अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में दोबारा पद संभालना और अपने देश में राहुल गांधी की कांग्रेस उपाध्यक्ष के रूप में पदोन्नति। हालांकि इन दोनों घटनाओं में ऊपरी तौर पर कोई साम्य नहीं है, लेकिन एक तो उनकी समसामयिकता और दूसरे उपाध्यक्ष बनने के बाद राहुल का वक्तव्य कि अब व्यवस्था में सुधार की नहीं, संपूर्ण बदलाव की जरूरत है, कुछ-कुछ बराक ओबामा के ही टोटल चेंज के नारे की तरह आया। अनेक विश्लेषकों ने राहुल के इस भाषण को शब्दाडंबर के रूप में लिया है।
Read:उम्मीद पैदा करते हैं नए अध्यक्ष
राहुल गांधी के इस नए अवतार को किस रूप में देखा जाए? उन्होंने जनता में व्यवस्था के खिलाफ उपजे असंतोष और आक्रोश को समझा और स्वीकार किया है। अहम बात यह है कि उन्होंने अन्य राजनीतिक दलों सहित कांग्रेस को भी कठघरे में खड़ा करने का साहस किया। साथ ही प्रचलित शासन प्रणाली और निर्णय लेने के केंद्रीकृत तौर-तरीके में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता को स्वीकारा है। खुद अपने दल की कमियां स्वीकार की हैं। किसी राजनेता की तरफ से यह ईमानदार स्वीकृति कि वर्तमान राजनीतिक, शासन-प्रशासन, शिक्षा, न्याय आदि सभी व्यवस्थाएं मुट्ठी भर लोगों के हाथ में सिमटकर रह गई हैं और व्यापक समाज हाशिये पर खड़ा है, अपने आप में अभूतपूर्व है।
ऐसी ईमानदारी किसी और राजनेता में आज दिखाई नहीं पड़ती। ये बातें राहुल गांधी की विश्वसनीयता बढ़ाती हैं। भारत के लिए राहुल के वक्तव्य के क्या मायने हैं? क्या इसे सिर्फ 2014 के चुनाव से जोड़कर देखा जाए? पिछले लगभग एक दशक में सत्ता का दर्प, चरम भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मुद्दे आगामी चुनाव में कांग्रेस के लिए अच्छे साबित नहीं होने वाले हैं। राहुल गांधी के वक्तव्य में चुनावी गणित से परे जाकर वर्तमान और भविष्य के भारत की आकांक्षाएं प्रतिध्वनित होती हैं। एक और तथ्य राहुल की प्रामाणिकता बढ़ाता है। वह है सीधे जनता के बीच जाना। राजनीति में प्रवेश के पहले महात्मा गांधी से कहा गया कि पहले वह देश को जानें, सीधे जनता के बीच जाएं और उनके दु:ख-दर्द, उनकी समस्याएं समझें।
गांधीजी पूरे देश में घूमे। राहुल गांधी ने भी राजनीति में कदम जमाने के लिए लोगों के बीच जा-जाकर उनके दु:ख दर्द को समझने की कोशिश की है और यह सिलसिला अब भी जारी है। यह बात इस तथ्य के आलोक में और भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि आजादी के पहले की तरह आज राजनीति समाजसेवा का मिशन नहीं रह गई है, बल्कि यह विशुद्ध रूप से सत्ता और उसके माध्यम से धन और वर्चस्व बढ़ाने का एक पेशा हो गई है। ऐसे में राहुल गांधी का गांवों, दलित बस्तियों, आदिवासी इलाकों और देश के सुदूर प्रदेशों में यात्रा करना, उनके यहां भोजन करना देश और जनता को समझने का ही एक उपक्रम है। कुछ लोगों को राहुल के ये क्रियाकलाप राजनीतिक हथकंडा लगते हैं, लेकिन यदि यह सब हथकंडा है तो क्यों नहीं वे लोग राहुल गांधी की तरह जनता के बीच जाते हैं? हमारे अधिकांश नेता जनता के बीच या तो चुनाव के समय जाते हैं या किसी उद्घाटन-समारोहों में। यह अलग बात है कि राहुल गांधी को अभी इसका राजनीतिक लाभ नहीं मिल पाया है, क्योंकि राजनीति आज भी जाति, मजहब आदि के जाल में उलझी हुई है। लंबे समय में राहुल गांधी को इसका लाभ अवश्य मिलेगा। हालांकि पिछले दो बड़े मौकों-जनलोकपाल आंदोलन और हाल में दिल्ली की सामूहिक दुष्कर्म की जघन्य घटना के बाद हुए आंदोलन के समय राहुल गांधी अनुपस्थित रहे। यह अच्छा मौका था जब उन्हें सामने आना चाहिए था। ऐसा कर वह जनता के दिलों में सीधे पैठ बना सकते थे, लेकिन राहुल ने यह अवसर गंवा दिया।
इसमें दो राय नहीं कि व्यवस्था परिवर्तन कर राहुल गांधी ने जनता को नया संदेश दिया है, लेकिन इसके लिए उन्हें पहले अपने दल के लोगों से ही लोहा लेना होगा। इसके अतिरिक्त आर्थिक निर्णयों और शासन में पारदर्शिता लाने के साथ ही सूचना के अधिकार को मजबूत करना, चुनाव सुधार, सार्वजनिक संपत्तियों का जनहित में उपयोग आदि सुनिश्चित करने की दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे। अनेक लोगों ने राहुल गांधी के भाषण को उनके पिता राजीव गांधी के उस भाषण से जोड़कर देखा, जिसमें राजीव गांधी ने सत्ता के दलालों को दूर करने की बात की थी। हालांकि इस कोशिश में वह कामयाब नहीं हो पाए थे, लेकिन आज समय का प्रवाह बदल चुका है।
Read:आत्महत्या को विवश हैं हमारे अन्नदाता
राहुल और सोनिया गांधी के भाषण में यह स्वीकारोक्ति कि आज की जनता, खास तौर से मध्यवर्ग और युवा 1985 के दौर या जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के युवाओं से ज्यादा समझदार और तकनीक से लैस और ज्यादा शिक्षित हैं। मीडिया के सौजन्य से उसके सामने अमेरिका के वाल स्ट्रीट आंदोलन से लेकर मिF के तहरीर चौक के संघर्ष की मिसालें मौजूद हैं और परंपरागत राजनीतिक ढांचे के बाहर सोशल मीडिया आदि के माध्यम से अपनी बात रखने और आंदोलन करने की स्थिति में भी है। कहने का तात्पर्य है कि जो काम पहले राजीव गांधी या पूर्व के अन्य नेता नहीं कर सके वह अब संभव लगने लगा है। कहा भी जाता है कि हर चीज, हर घटना का एक समय होता है और बदलाव का समय अब दस्तक दे रहा है। अपने भाषण में राहुल गांधी ने जनता की इसी बेचैनी, आक्रोश और इसके संभावित खतरे को बखूबी समझते हुए कहा कि जनता ज्यादा समय तक चुप नहीं बैठने वाली है। जनता ऐसे हर कदम पर सच्चे नेतृत्व के साथ खड़ी होगी। क्या राहुल गांधी इतिहास की धारा मोड़ने के लिए तैयार हैं?
लेखक डॉ. निरंजन कुमार दिल्ली विवि में प्रोफेसर हैं
Read Comments