- 1877 Posts
- 341 Comments
एशिया की सबसे बड़ी चुनौती आज हठधर्मी चीन से निपटने की है। चीन से निकलकर दूसरे देशों में बहने वाली नदियों पर बांध बनाने की योजना ने उपमहाद्वीप में चिंता बढ़ाई है। बीजिंग ने भारत, म्यांमार, थाईलैंड और वियतनाम में बहने वाली नदियों पर बांध बनाने का फैसला किया है। पड़ोसी देशों की चिंताओं को दरकिनार कर नए बांध बनाने के चीन की कैबिनेट के फैसले से पता चलता है कि एशिया में असल चुनौती चीन को पड़ोसियों के साथ संस्थागत सहयोग के लिए राजी करना है, न कि पड़ोसी देशों को जो पहले ही चीन के उत्थान को स्वीकार कर उसे सहयोग कर रहे हैं। बांध बनाने की यह योजना सलवीन नदी के दर्रे के लिए भी खतरा पैदा करती है।
यह दर्रा यूनेस्को की विश्व विरासत में शामिल है। इसके अलावा ये बांध नदियों से गुजरने वाले संवेदनशील क्षेत्रों के लिए भी खतरा हैं। ये तीनों अंतरराष्ट्रीय नदियां तिब्बती पठार से निकलती हैं, जिनका मुक्त प्रवाह चीनी योजनाकारों के लिए चुंबक सरीखा बन गया है। चीन एशिया का भौगोलिक केंद्र है, जिसकी भौगोलिक और समुद्री सीमा 20 देशों से लगती है। चीन को साथ लिए बिना एशिया में नियम आधारित क्षेत्रीय व्यवस्था कायम करना असंभव है। लिहाजा, बड़ा सवाल यह है कि चीन को साथ कैसे लिया जाए। यह चुनौती एशिया में अंतरदेशीय नदियों के मामले में और बढ़ जाती है, जहां चीन ने जलविद्युत श्रेष्ठता स्थापित कर ली है। चीन ने बांध-निर्माण कार्यक्रम के लिए अपना ध्यान बांधों से भरी आंतरिक नदियों से हटाकर अंतरराष्ट्रीय नदियों पर लगा लिया है।
चीन में अंतरदेशीय नदियों की संख्या विश्व में सबसे अधिक है। चीन के ज्यादातर बांध बहुउद्देश्यीय हैं। उनसे न सिर्फ बिजली उत्पादन होता है, बल्कि विनिर्माण, खनन, सिंचाई आपूर्ति की जरूरतें भी पूरी होती हैं। आज दुनिया में बड़े बांधों की सबसे अधिक संख्या चीन में ही है। 230 गीगावाट क्षमता के साथ दुनिया का सबसे बड़ा जलविद्युत उत्पादक देश भी यही है। अब चीनी कैबिनेट ने यह क्षमता 120 गीगावाट और बढ़ाने की मंशा जाहिर की है। इसके लिए 2015 की संशोधित ऊर्जा योजना में निर्माणाधीन बांधों के अलावा 54 नए बांध बनाने का लक्ष्य रखा गया है। नए बांधों में से ज्यादातर जैवविविधता बहुल क्षेत्र दक्षिण-पश्चिम में हैं, जहां प्राकृतिक पारिस्थितिकी और स्थानीय संस्कृतियों पर खतरा लगातार बढ़ता जा रहा है। पर्यावरण पर गंभीर खतरे को देखते हुए चीन दो साल तक अपने बांध-निर्माण कार्यक्रम को कुछ धीमा करने के बाद अब नई पीढ़ी के बड़े बांध बनाने की ओर बढ़ रहा है। इसका मतलब है कि ऐसे समय में जब बांध-निर्माण पश्चिम में धीरे-धीरे बंद हो गए हैं और भारत एवं जापान जैसे दूसरे लोकतांत्रिक देशों में इनका विरोध हो रहा है, चीन इकलौता ऐसा देश है जो बड़ी बांध परियोजनाओं पर काम कर रहा है।
इस तरह की गतिविधियां चीन की जल-नीति की ओर ध्यान खींचती हैं। कम जनसंख्या वाले सीमायी इलाकों में बांध परियोजनाओं के जरिये चीन नदियों के पानी को उनके Fोत से निकलने से पहले ही इस्तेमाल कर लेना चाहता है। प्रति व्यक्ति ताजा जल उपलब्धता के मामले में दुनिया के सबसे सूखे एशिया महाद्वीप को नियम आधारित व्यवस्था की जरूरत है। यह नियम आधारित व्यवस्था जल प्रवाह के प्रबंधन के लिए, आर्थिक विकास की तीव्र गति को बनाए रखने के लिए और पर्यावरण की रक्षा के लिए जरूरी है। फिर भी चीन संस्थागत जल बंटवारे को लेकर अडि़यल रुख अपनाए रहता है। नदियों की प्राकृतिक जल धारा के धनी इस देश को जल प्रबंधन अथवा अन्य तरह की सहयोगात्मक संस्थागत प्रक्रिया के लिए राजी करने के प्रयास अभी तक तो असफल ही रहे हैं।
चीन अपने किसी भी पड़ोसी देश के साथ जल बंटवारे संबंधी संधि पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर चुका है, क्योंकि यह अंतरदेशीय नदियों पर अपनी सामरिक पकड़ ढीली नहीं करना चाहता है। इसकी बांध निर्माण परियोजनाएं प्रदर्शित करती हैं कि ऊर्ध्व प्रवाह जल के विनियोग की ओर इसका झुकाव बढ़ता जा रहा है। यह अन्य देशों के लिए चिंता का विषय है। चीनी कैबिनेट ने जिन नई बांध परियोजनाओं को मंजूरी दी है उनमें पांच सलवीन नदी पर, तीन ब्रंापुत्र पर और दो मेकोंग नदी पर बनाए जाने हैं। चीन मेकोंग पर पहले ही छह बड़े बांध बना चुका है। मेकोंग नदी दक्षिण पूर्वी एशिया के लिए संजीवनी की तरह है। इस क्रम में सबसे नया विशालकाय बांध 254 मीटर ऊंचा नुओझादु है। इसमें करीब 22 अरब क्यूबिक मीटर पानी रखा जा सकता है। कैबिनेट के फैसले के बाद तिब्बत से निकलने वाली और यूनान होते हुए म्यांमार एवं थाईलैंड में मिलने वाली सलवीन नदी से भी उसका प्रवाह छीन लिया जाएगा। कैबिनेट ने इस नदी पर पांच बांधों के निर्माण को हरी झंडी दे दी है। तिब्बत में 4200 मेगावाट की सोंगटा बांध परियोजना पर जल्द ही काम शुरू हो जाएगा।
2004 में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठी बहस के बाद प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ ने इस पर काम रोक दिया था। सलवीन नदी पर बांध का निर्माण शुरू किए जाने की तर्ज पर ही यांगचे नदी पर भी देर-सवेर यह काम शुरू हो सकता है। बीजिंग ने हाल ही में हुए जनांदोलन को शांत करने के लिए अस्थायी रूप से इसके निर्माण कार्य पर रोक लगा दी थी। इस बीच, भारत और बांग्लादेश की प्रमुख नदी ब्रंापुत्र पर तीन नए बांध बनाने की घोषणा पर भारत ने चीन को यह सुनिश्चित करने को कहा है कि इससे पड़ोसी देशों को कोई नुकसान नहीं होना चाहिए। भारत-चीन के संबंधों में पानी नए विभाजन तत्व के रूप में उभरकर सामने आया है। चीन के भूकंप के प्रति संवेदनशील क्षेत्र में बांध बनाने के फैसले के साथ सुरक्षा के सवाल भी जुड़े हैं। तथ्य यह है कि 2008 में तिब्बती पठार के पूर्वी इलाके में भयंकर तबाही मचाने वाले भूकंप का मूल कारण बांध ही था। इस हादसे में 87,000 लोगों की जान चली गई थी। चीनी वैज्ञानिकों ने इसके लिए तब नवनिर्मित जिपिंगु बांध को जिम्मेदार ठहराया था। वैज्ञानिकों के मुताबिक इस विशालकाय बांध में भरे पानी के वजन के चलते ही भूकंप आया था। राजनीतिक रूप से भी चीन का नए बांध बनाने का फैसला एशिया में जल संसाधन की प्रतिद्वंद्विता को बढ़ाएगा और पहले से धीमी पड़ी क्षेत्रीय सहयोग की गति को और धीमा ही करेगा।
लेखक ब्रह्मा चेलानी वरिष्ठ स्तंभकार हैं
Tag:Brahmaputra river,india, एशिया , भारत, चीन ,नदियों , यूनेस्को
Read Comments