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भंवर में केंद्र सरकार

जागरण मेहमान कोना
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केंद्र की संप्रग सरकार से द्रमुक के समर्थन का मसला उतना आसान नहीं है जितना कि बुधवार को तीन केंद्रीय मंत्रियों ने प्रेस कांफ्रेंस करके बताने की कोशिश की। तमिल में बोलते हुए केंद्रीय वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने यहां तक कह दिया कि हाल के कुछ दिनों में ऐसा क्या हुआ कि द्रमुक को यह फैसला लेना पड़ा। वहां मौजूद ज्यादातर संवाददाताओं को मालूम था कि उस दिन के ही कई अखबारों में यह खबर छपी है कि संयुक्त राष्ट्र में पेश श्रीलंका संबंधी अमेरिकी प्रस्ताव की भाषा को भारत के कहने से बदला गया था और इस कारण वह प्रस्ताव फीका हो गया था। कुछ ऐसा ही प्रस्ताव संसद में लाकर तमिलों और द्रमुक के गुस्से को शांत करने का प्रयास सरकार भी करना चाहती थी जो द्रमुक की तीन मांगों में एक थी। पर विपक्षी दलों के साथ राष्ट्रवादी कांग्रेस और अपने कुछ मंत्रियों तक की आपत्ति के बाद इस मामले में खास प्रगति नहीं हुई और अंतत: सरकार अल्पमत में और बाहरी समर्थन के भरोसे रह गई। केंद्रीय सरकार का इकबाल कम हो और क्षेत्रीय सूरमा नोच-खसोट में न लगें ऐसा हो नहीं सकता। संख्या का गणित उलटना एक मुद्दा है और नैतिक बल और इकबाल दूसरी चीज। कोई भी दल आज कांग्रेस को नैतिकता या आदर्शो के चलते सहयोग नहीं कर रहा है। और बाहर से समर्थन दे रहे सपा-बसपा के लिए तो और भी डर का मसला है। मजा यह भी कि इस पर भी केंद्र के एक मंत्री इन दोनों दलों के नेताओं को सार्वजनिक रूप से काफी कुछ कह गए। जब तक सरकार की मजबूती दिखी सपा भी संसदीय कार्य मंत्री कमलनाथ के खेद से संतुष्ट हो गई लगी पर जैसे ही हवा बदली बेनी प्रसाद वर्मा को माफी मांगनी पड़ी। और इतने पर भी जान बचेगी यह कहना मुश्किल है क्योंकि सपा उनको मंत्रिमंडल से हटाने की मांग पर अडिग नजर आ रही है। अब बेनी प्रसाद वर्मा भी मुलायम सिंह यादव के पुराने साथी हैं।


संभव है ठोस आधार पर आरोप लगा रहे हों। अगर ऐसा नहीं है तो उनका चले जाना ही बेहतर है। पर मुख्य मसला यह नहीं है। सच कहें तो मुख्य मसला द्रमुक के तमिल प्रेम का भी नहीं है। मुख्य बात तो चुनाव पास देखकर संप्रग से बाहर आना ही है क्योंकि द्रमुक को उसके साथ होने का कोई लाभ नहीं दिखता। हां कुछ घाटा जरूर हो जाएगा। फिर तमिल मसला उठाकर राज्य की राजनीति में वापसी करने का मौका भी मिल गया है। समर्थन और अपने मंत्री हटाकर द्रमुक तमिलनाडु में शहादत के अंदाज में जा सकती है। पिछले विधानसभा चुनाव में जिस तरह उसकी धुनाई हुई थी उसमें इस भावनात्मक मुद्दे के सहारे वापसी न भी हो तो स्थिति को सुधारा तो जा ही सकता है। तीसरा मुद्दा है अपमान का बदला लेना। कांग्रेस ने जिस तरह से 2-जी मामले में ए राजा और द्रमुक के अन्य नेताओं को फंसाकर अपना पल्लू झाड़ लिया और सारा दोष द्रमुक के नेताओं और पार्टी सुप्रीमो की दुलारी बेटी के मत्थे डाल दिया वह सिर्फ प्रतिष्ठा के नुकसान का ही नहीं राज्य की सत्ता के नुकसान का मसला भी साबित हुआ। अब सवाल यह है कि मनमोहन सरकार का क्या होगा? साफ दिख रहा है कि सरकार बाहरी समर्थन पर निर्भर रह गई है। पर यह भी तय है कि मायावती हों या मुलायम अभी तुरंत सरकार को गिराना नहीं चाहेंगे। मायावती की रुचि तो तुरंत चुनाव में है भी नहीं पर चुनाव के लिए तैयार बैठे मुलायम सिंह यादव भी सरकार के खिलाफ तभी वोट करने का निर्णय लेंगे जब सरकार का गिरना तय हो। वह न तो भाजपा के साथ दिखना चाहेंगे न ही अपना वोट देने के बाद भी सरकार को बचते देखना चाहेंगे। जाहिर है, यह सूरत अभी नहीं है। जो कोई भी बिहार के लिए स्पेशल पैकेज देगा वह जद (यू) के समर्थन का अधिकारी होगा, यह घोषणा नीतीश कुमार पहले ही कर चुके हैं। वह अभी सरकार में शामिल हो जाएंगे और साल भर सरकार को कोई कष्ट नहीं होगा यह सब भविष्यवाणी करना मुश्किल है, पर इतना तय है कि नीतीश कुमार की यह घोषणा और हाल के दिनों में कांग्रेस और नीतीश के करीब आने के संकेत से केंद्र सरकार कुछ हद तक निश्चिंत हो सकती है। पर क्या कांग्रेस अपनी पहल पर मध्यावधि या समय पूर्व चुनाव की पहल कर सकती है? इस बात की संभावना दूर-दूर तक नजर नहीं आती। कर्नाटक और दिल्ली जैसे राज्यों में विधानसभा चुनाव में दमदार जीत मिले तो कांग्रेस एक बार चुनाव में उतरने का मन बना सकती है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में खतरा है। पर इससे भी बड़ी बात यह है कि कांग्रेस हिंदी फिल्म की मां की तरह अपने हीरो बेटे के जवान होने तक सब अपमान सह रही है क्योंकि उसे उदारीकरण के दूसरे दौर के अपने फैसलों के नतीजे आने के साथ ही खाद्य सुरक्षा बिल और कैश ट्रांस्फर योजना लागू कराने का इंतजार है।


इस बीच कांग्रेस की साख और शासन के इकबाल में जो कमी होगी उसकी चिंता किसे हो यह सवाल हवा में ही है। फिर भी इतना साफ है कि देश की जनता ने कांग्रेस ही नहीं, भाजपा को भी बढ़त देकर साफ संकेत दिया, पर गठबंधन की राजनीति की मजबूरी के नाम पर इन दोनों ने जिस तरह के समझौते किए, उससे केंद्रीय सत्ता और सिद्धांतों का मान गिरा है। भारत सरकार ने श्रीलंका में तमिलों के साथ हो रहे दु‌र्व्यवहार पर अमेरिकी प्रस्ताव का समर्थन करके कितना बड़ा संकट खड़ा कर दिया है, इसका भी अंदाजा होना चाहिए। यह फैसला द्रमुक सहित तमिलनाडु के विभिन्न दलों के राजनीतिक दबाव में हुआ था। श्रीलंका ने साफ-साफ बदले की कूटनीति से भारत को परेशान करने की धमकी दी है। अगर कल को कश्मीर या किसी भी मसले पर ऐसा प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र में आए और श्रीलंका या कोई पड़ोसी देश उसके समर्थन में खड़ा हो तो हमारी क्या स्थिति होगी? द्रविड आंदोलन जबसे शुरू हुआ है उस पर देश तोड़ने वाला होने का आरोप लगता रहा है। इस आरोप में सत्यता जांचने के लिए पांच-छह दशक का समय कम नहीं होता पर एक प्रदेश के चलते एक पड़ोसी देश से संबंध बनाने-बिगाड़ने का खेल महंगा है। यह आरोप कश्मीर के आंदोलन पर ही नहीं पंजाब और पूर्वोत्तर के आंदोलनों पर भी लगता रहा है। यह पूरी तरह गलत ही हो यह भी नहीं कहा जा सकता। पर आज राज्यों की राजनीति के मजबूत हो जाने के बाद इस किस्म का विदेशी जुड़ाव और संबंध देश की एकता के लिए खतरा है।

इस आलेख के लेखक अरविंद मोहन हैं

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