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भव्य भवन में प्रणबदा

जागरण मेहमान कोना
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23 जून, 1931 को वायसरॉय हाउस के पहले निवासी लॉर्ड इरविन ने इसमें कदम रखा और औपचारिक रात्रिभोज से पहले ही इसके सृजक लुटियन वायसरॉय को गुडबॉय कहे बिना ही वहां से खिसक लिए। वह अपनी रचना को अपलक निहार रहे थे। 340 कमरों वाली इस भव्य इमारत को बनाने में 17 साल से अधिक लगे और 1.4 करोड़ रुपये खर्च हुए। राष्ट्रपति भवन के निर्माता एडवर्ड लुटियन को इस लाजवाब इमारत के निर्माण के लिए 17 सालों का मेहनताना महज 5000 पाउंड दिया गया, किंतु इस अप्रतिम इमारत ने उन्हें विश्व प्रसिद्ध बना दिया। इस घटना के चार साल बाद 11 दिसंबर, 1935 को बंगाल के बीरभूमि जिले के मिराती गांव में प्रणब मुखर्जी का जन्म हुआ। उनके पिता कामदा किंकर मुखर्जी एक स्वतंत्रता सेनानी, अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य और बाद में विधायक रहे। प्रणबबाबू अब भी याद करते हैं कि जब वह माध्यमिक स्कूल के छात्र थे, तब हर रोज अखबार में संविधान सभा की बहस चला करती थीं। उन दिनों वह राष्ट्रीय राजनीति में आने को लालायित थे। स्कूल में इतिहास के टीचर ने उनके मन में इतिहास के प्रति गहरा लगाव पैदा कर दिया था। उन्होंने राजनीति विज्ञान और इतिहास से एमए किया। उनके पास एलएएबी की डिग्री भी है, वैसे यह बात अलग है कि उन्होंने कभी वकालत नहीं की। उनका दिल गांव से जुड़ा रहा और स्थानीय स्कूल और कॉलेज में ही उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी की। हालिया वर्षो में अपने पैतृक गांव में दुर्गापूजा में उनकी सक्रिय भागीदारी पूरे देश के मीडिया का ध्यान खींचती रही है। एक बार डोनाल्ड रम्सफेल्ड किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर भारत के रक्षामंत्री से बात करना चाहते थे। उन्हें यह जानकर बेहद हैरानी हुई कि वह गांव में पूजा में व्यस्त हैं। प्रणब मुखर्जी ने उन्हें बताया कि राजकाज से पहले दुर्गापूजा का क्या महत्व है। पढ़ाई पूरी करने के तुरंत बाद उन्होंने गांव के स्कूल में बच्चों को पढ़ाया। बाद में पोस्ट एंड टेलीग्राफ ऑडिट विभाग में आ गए।


1969 में वह राज्यसभा के लिए चुन लिए गए। उन दिनों बंगाल में कांग्रेस पर अतुल्य घोष की मजबूत पकड़ थी। घोष इंदिरा गांधी के खिलाफ सिंडिकेट के स्तंभ थे। विद्रोही कांग्रेस नेता अजय मुखर्जी बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष थे। बाद में वह कम्युनिस्टों के साथ गठबंधन में शामिल हो गए और सत्ता में आ गए। उस समय कम्युनिस्ट नेता ज्योति बसु उप मुख्यमंत्री थे। माना जाता है कि उन्होंने ही प्रणब बाबू को इंदिरा गांधी से मिलवाया था। जल्द ही नौजवान सांसद प्रणब मुखर्जी कांग्रेस में शामिल हो गए और 1973 में उपमंत्री बनने में सफल रहे। तब से वह करीब-करीब सभी महत्वपूर्ण मंत्रिपदों पर रह चुके हैं, सिवाय गृह मंत्रालय के। वह पढ़ने-लिखने के शौकीन हैं और उन्हें छोटी से छोटी बात भी तफ्सील से याद रहती है। उनके हर किसी से अच्छे संबंध हैं और बड़ी आसानी से मतभेदों को सुलझाकर स्वीकार्य मसौदा पेश करने में उनका सानी नहीं है। दिल्ली में प्रणब मुखर्जी का उत्थान और बंगाल में कांग्रेस का पतन करीब-करीब समानांतर चले। बंगाल में कांग्रेस की आखिरी उल्लेखनीय जीत 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सहानुभूति लहर के कारण मिली थी। वह दिल्ली में अपने स्थान से खुश थे। दिल्ली में रहते हुए उनकी बंगाल में वाम नेताओं के साथ गहरी दोस्ती थी। इसीलिए माकपा द्वारा प्रणब मुखर्जी को मिले समर्थन पर हैरानी नहीं हुई। 1985 से 2010 तक प्रणबबाबू ने पश्चिम बंगाल प्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्षता की। प्रणब मुखर्जी ने जमीनी राजनीति और चुनावी अभियानों में कभी सहजता महसूस नहीं की।


2004 में पहली बार वह लोकसभा के लिए चुने गए। 2009 में भी वह इसी सीट से दोबारा निर्वाचित हुए। राष्ट्रपति भवन अब तक कुल पांच वायसरॉय, दो गवर्नर जनरल (माउंटबेटन आखिरी वायसरॉय और पहले गवर्नर जनरल दोनों थे) और 12 राष्ट्रपतियों का निवास बन चुका है। इस भवन का नाम दो बार बदल चुका है। इसका मूल नाम वायसरॉय हाउस था। पहले नाम बदलकर गवर्नमेंट हाउस और बाद में राष्ट्रपति भवन किया गया। प्रणब मुखर्जी बेहद पढ़ाकू हैं। वह एक ही समय में कई-कई किताबें पढ़ते रहते हैं, जिनमें से कम से कम एक बांग्ला की जरूर होती है। उन्हें काम करने का जुनून है। वह रात का भोजन अक्सर 11 बजे के बाद ही लेते हैं। मछली और भात उनका पसंदीदा भोजन है। आधी रात के बाद सोने से पहले वह दिन भर की गतिविधियों को अपनी डायरी में लिखना नहीं भूलते। वह दशकों से इस काम को निरंतर अंजाम दे रहे हैं। इस डायरी में पिछले चार दशक से अधिक समय का सिलसिलेवार राजनीतिक घटनाक्रम है। निश्चित तौर पर भविष्य में इतिहासकार इस बेशकीमती रोजनामचे के लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार होंगे। अगर आप इंडिया गेट से रायसीना हिल्स के लिए चलें तो केवल एक जगह-विजय चौक से राष्ट्रपति भवन का गंुबद नजर नहीं आता। समसामयिक इतिहासकार उन्हें ऐसे सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री के रूप में स्मरण करेंगे जो भारत को कभी नहीं मिला। अब राष्ट्रपति भवन की मखमली घास पर वह सुबह-सुबह जब विचारों में खोए हुए चहलकदमी करते नजर आएंगे तो वह अपनी प्रमुख विरासत किसे मानेंगे? क्या उनके अंदर छिपा इतिहास का छात्र 1970 और 80 के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था के सामाजिक मोड़ का पुनर्मूल्यांकन करेगा? क्या उनके रोजनामचे से भारतीय राजनीति की अब तक की सर्वाधिक बिकने वाली पुस्तक निकलेगी?


अनिंद्य सेनगुप्ता भारतीय सूचना सेवा के अधिकारी हैं


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