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भारत-चीन युद्ध के सबक

जागरण मेहमान कोना
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गौरव कुमार भारत को आजादी मिले अभी महज 14 साल ही हुए थे कि चीन के साथ युद्ध ने भारत को असंतुलित कर दिया। 20 अक्टूबर 1962 को चीन ने भारतीय सीमा पर विभिन्न मोर्र्चो से जिस तरह आक्रमण किया वह भारत के लिए सर्वथा अप्रत्याशित था। भारत न तो इस युद्ध के लिए तैयार था और न ही उसे इस हमले की आशंका थी, फिर भी भारतीय सेना का यह सकारात्मक पक्ष ही था जो 32 दिनों तक चले इस युद्ध में चीन को कड़ा जवाब देते रहे। 21 नवंबर को चीन ने भारत को पराजित कर दिया। नतीजतन हमारा महत्वपूर्ण भाग चीनी कब्जे में चला गया। आजादी की किशोरावस्था में ही हमने चीन का छिपा हुआ चेहरा देख लिया था, लेकिन अब हमारी तरक्की से प्रभावित चीन हमसे बेहतर संबंध बनाए रखना चाहता है। हाल ही में चीनी विदेश मंत्रालय ने कहा है कि वह भारत के साथ तमाम विवाद बातचीत से सुलझाने को प्रतिबद्ध है। हालांकि भारत को चीन की विस्तारवादी नीति का अनुभव 1950 से ही था।


1950 में चीन जिस तरह तिब्बत को अपने प्रभुत्व में रखने में सफल हुआ उसने भारत को चीनी नीतियों को समझने का अवसर प्रदान कर दिया था, लेकिन न जाने क्यों भारत सतर्क नहीं था। भारत यह भी न समझ सका कि जो चीन तत्कालीन शक्ति संपन्न रूस की जमीन हड़पने में नहीं हिचका, क्या उसकी नजर हमारी जमीन पर नहीं होगी। चीन की बढ़ती विस्तारवादी नीति का ही परिणाम था कि उसने लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश का लगभग 38 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र अपने हिस्से में मिला लिया था। मोतियों की माला की चुनौती चीन की रणनीति रही है कि वह भारत को चारों ओर से घेरकर उस पर दवाब बनाए। इसी का नतीजा है कि वह भारत के पड़ोसी देशों के साथ अपने संबंध निरंतर बढाता जा रहा है। इस क्रम में वह भारत के चारों ओर एक घेरा बना चुका है, जिसे सामरिक विशेषज्ञों ने मोतियों की माला नाम दिया है। इसके तहत चीन ने पाकिस्तान में ग्वादर, म्यांमार में हियांगयी, अक्याब या सितवे, क्यून, मरगुई और कोको द्वीपों, बांग्लादेश के चटगांव, थाइलैंड के लाएम चबांग, कंबोडिया के सिहानूकविले, श्रीलंका के हम्बनटोटा बंदरगाहों का निर्माण किया है। इस परिप्रेक्ष्य में भारत के सामने सबसे महत्वपूर्ण चुनौती यह है कि वह अपनी संप्रभुता और सामरिक हितों की रक्षा कैसे करे। कहींहमारे सामने 62 के युद्ध जैसी एक और चुनौती तो नहीं है।


वर्तमान में चीन की नीति आर्थिक हितों को प्रमुखता देने की है और वह इसी के लिए भारत को किसी भी कीमत पर आगे बढ़ने नहीं देना चाहेगा। दक्षिण एशिया में चीन हमेशा से शक्ति संपन्न रहना चाहता रहा है। चीन के साथ दक्षिण एशियाई देशों खास तौर पर पाकिस्तान, अफगानिस्तान, श्रीलंका के संबंधों ने नए समीकरणों को जन्म दिया है। भारत के साथ चीनी समीकरण को लेकर इस क्षेत्र में चीन की भूमिका हमारा ध्यान आकर्षित करती है। पिछले वर्ष तत्कालीन भारतीय सेना प्रमुख जनरल वी.के. सिंह ने चीन की ओर से भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ की बात भी स्वीकार की थी। उन्होंने यह माना कि वर्तमान में करीब 4000 चीनी सैनिक पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) में मौजूद हैं। इस स्वीकृति ने भारत की चिंता बढ़ाई है। गौरतलब है कि पीओके में करीब 45 प्रतिशत भाग भारत के कब्जे में है, जबकि 35 फीसद पाकिस्तान के और शेष 20 प्रतिशत पर चीन का कब्जा है। इसमें वह हिस्सा भी शामिल है, जिसे पाकिस्तान ने 1963 में चीन को दे दिया था। चीन इस क्षेत्र में व्यापक निर्माण कार्य करा रहा है। दक्षिण चीन सागर को लेकर विवाद भी पुराना नहीं हुआ है। ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध बनाने को लेकर भी इनके बीच विवाद चर्चा में है। इसके अलावा भारत के पूर्वोत्तर भागों में चीन की घुसपैठ की घटनाओं ने भी दोनों के रिश्तों में तनाव पैदा किया है।


चीन के लिए अहम है अर्थनीति भारत के पास अपनी संप्रभुता को गुटनिरपेक्षता के अहिंसात्मक विचार के साथ सुरक्षित रखने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। वैश्विक स्तर पर भारत के प्रति विश्वास का कारण भी यही है। दक्षिण एशियाई राजनीति में 1962 के भारत-चीन युद्ध और पाकिस्तान के साथ 1999 तक के कारगिल युद्ध ने भारत के प्रति इस विश्वास को कम किया है। विकास और आर्थिक नीति के संदर्भ में देखा जाए तो उसकी आर्थिक सफलता के पीछे यही नीति है कि वह भारत या किसी भी देश के साथ अपने आर्थिक संबंधो को राजनीतिक संबंधो से प्रभावित नहीं होने देता। निर्यात संकट के बावजूद चीन ने 2009 में 6 प्रतिशत वृद्धि दर प्राप्त की थी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने जुलाई 2010 की अपनी रिपोर्ट में उसके प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण प्रकट किया था। अभी इस वर्ष उसका लक्ष्य 10 प्रतिशत वृद्धि दर प्राप्त करने का है। चीन के आर्थिक विकास को यदि भारत के साथ समन्वय बनाकर बढ़ाया जाए तो बेहतर परिणाम मिल सकते हैं। दक्षिण एशिया में व्याप्त आतंकवाद, गरीबी, बेरोजगारी, ऊर्जा संकट, खाद्य संकट आदि के प्रति एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण और सहयोग की आवश्यकता है। चीन-भारत दोनों एक बड़ी आबादी वाले देश हैं।


भारत कृषि प्रधान देश है तो चीन उत्पादक अर्थव्यवस्था वाला। खाद्य सुरक्षा और ऊर्जा स्त्रोतों के प्रति साझा रणनीतिक सहयोग की संभावना है। नदी जल बंटवारे के विवाद को सुलझाते हुए ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति में इसका उपयोग साझी रणनीति का अहम हिस्सा हो सकता है। दक्षिण एशिया जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला क्षेत्र है। सभी सार्क सदस्यों को मिलकर कार्बन उत्सर्जन कम करने को प्रमुख मुद्दा बनाना होगा। चीन इसमें बेहतर सहयोग कर सकता है, क्योंकि वह कार्बन उत्सर्जन करने वाले देशों में काफी आगे है। आज यह साफ हो चुका है कि 1962 और 1999 के युद्ध ने समस्याएं सुलझाई नहीं, बल्कि विवाद बढ़ाए ही हैं। दक्षिण एशियाई देशों के विवादों में बाहरी मध्यस्थता कम करने की कोशिश करते हुए अपनी क्षेत्रीय एकता को बढ़ाने की जरुरत है। 1962 के युद्ध के बाद से भारत- चीन का संबंध परस्पर गहरे अविश्वास के दौर से गुजर रहा है। तिब्बत के प्रति भारतीय नीति को भी चीनी संदेह की नजर से देखा जाता रहा है। चीन जिंगजिआन और तिब्बत का एकीकरण इन चाहता है। पाकिस्तान और नेपाल दोनों इस काम के लिए उसके प्रति क्षेत्रीय भावना का निर्माण कर सकते हैं। यह भी एक कारण है कि चीन इन दोनों देशों के साथ अपने संबंधों को विस्तार देना चाहता है। इसलिए भारत को 1962 के युद्ध से सबक सीखते हुए आगे की रणनीति बनानी चाहिए। भारत को अपनी नीति में परिवर्तन लाते हुए चीन के प्रति प्रतिक्रियात्मक व पूर्वाग्रह आधारित दृष्टिकोण के बदले द्विपक्षीय संबंधों के प्रति उन्मुख होना होगा। साथ ही हमें ध्यान रखना होगा कि भारत-पाक रिश्तों और द्विपक्षीय वार्ता पर चीनी कारकों का प्रभाव न पड़े।



लेखक गौरव कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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