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भूमिहीनों के हक का सवाल

जागरण मेहमान कोना
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कृषि भूमि वितरण कार्यक्रमों के अंतर्गत जिन ग्रामीण भूमिहीन परिवारों को जमीन दी जाती है, उनमें से अनेक परिवार इसका समुचित लाभ नहीं उठा पाते हैं। इसकी एक वजह तो यह है कि कई मामलों में गांव के दबंग उन्हें भूमि पर वास्तविक कब्जा करने से रोकते हैं। जहां यह समस्या नहीं है वहां भी मिट्टी और जल संरक्षण तथा सिंचाई की किसी सुविधा के अभाव में अनेक परिवार इस कृषि भूमि का उपयोग नहीं कर पाते हैं। भूमि वितरण कार्यक्रम चाहे सीलिंग की जमीन के हों या गांव समाज की जमीन के, प्राय: उनके अंतर्गत कम गुणवत्ता की या कम उपजाऊ भूमि ही वितरित होती है। कहीं ऊबड़-खाबड़ पथरीली जमीन होती है तो कहीं गांव से दूर की कोई जमीन दे दी जाती है। इस भूमि पर समतलीकरण, मेढ़बंदी का कार्य ठीक से हो तभी वह खेती योग्य बनती है। ऐसी जमीन के लिए लघु सिंचाई परियोजना की जरूरत बढ़ जाती है। इस लाभ के अभाव में जिन निर्धन परिवारों को भूमि वितरण होता है वे या तो कृषि कर नहीं पाते या बहुत कम उत्पादन ही कर पाते हैं।


यदि सिंचाई और वाटरशेड कार्यक्रमों से पहले भूमि-सुधार व वितरण का प्रयास न किया जाए तो इन परियोजनाओं से मिलने वाले सिंचाई या अन्य लाभ से प्राय: सबसे निर्धन परिवार तो वंचित ही रह जाते हैं। जब उनके पास भूमि है ही नहीं तो भला वे सिंचाई या मेढ़बंदी का लाभ कैसे उठाएं? उचित राह यह है कि दोनों तरह के काम साथ-साथ किए जाएं जिससे निर्धन, दलित व भूमिहीन परिवारों को न केवल भूमि मिल पाए, बल्कि वे इस भूमि पर अच्छा कृषि उत्पादन भी कर सकें। ऐसा ही एक सफल उदाहरण उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिले के पाठा क्षेत्र में सामने आया है, जो भूमि सुधार और वाटरशेड परियोजनाओं के मिलन से संभव हो पाया है। इसके अंतर्गत पहले के अनेक भूमिहीन परिवार अब सफलतापूर्वक खेती कर पा रहे हैं। यह सफलता बहुत हद तक अखिल भारतीय समाज सेवा संस्थान के प्रयासों से हासिल हुई है। लगभग 30-40 वर्ष पहले तक यहां के अनेक कोल आदिवासी व अन्य निर्धन भूमिहीन परिवार बंधुआ मजदूरी जैसी स्थिति में काम कर रहे थे, लेकिन स्थानीय प्रशासन उन्हें बंधुआ नहीं मान रहा था। इसलिए बंधुआ मजदूरों की रिहाई और पुनर्वास कानून के लाभ भी उन तक नहीं पहुंच पा रहे थे। इस स्थिति में सरकारी मान्यता प्राप्त संस्थान यूपी डेस्को ने क्षेत्र में बंधुआ मजदूरों का सर्वेक्षण कर जमीनी स्तर पर प्रमाण जुटाकर सामने रखे। इस रिपोर्ट से हड़कंप मचा और अब प्रशासन को भी अनेक बंधुआ मजदूरों की रिहाई कर उन्हें समुचित कानूनी सहायता उपलब्ध करवानी पड़ी।


बंधुआ मजदूर रखने वाले कुछ बड़े भूस्वामियों के खिलाफ कार्रवाई हुई तो बंधुआ मजदूरी की प्रथा अपने आप टूटने लगी। साथ ही कोल आदिवासियों और अन्य निर्धन भूमिहीन परिवारों को भूमि वितरण के लिए समाज सेवा संस्थान ने अपनी पूरी ताकत लगा दी। ऐसे अनेक परिवारों की भूमि शक्तिशाली दबंगों ने छीन ली थी और भूमिहीनों को आवंटित जमीन से उन्हें खदेड़ दिया था। वर्षो के अथक प्रयास से ऐसी हजारों एकड़ भूमि इन भूमिहीन परिवारों को मिल सकी। अगला कदम यह था कि इस भूमि-सुधार प्रयास के एक बड़े क्षेत्र में वाटरशेड कार्यक्रमों के लिए छोटे बांध और तालाब बनाकर, पुराने तालाबों की मरम्मत कर, मेढ़बंदी कर और जल-संरक्षण के अन्य कार्यो से भूमि सुधार के अनेक लाभार्थियों को कम लागत पर बेहतर खेती के अवसर भी उपलब्ध करवाए गए। भूमि सुधार और लघु सिंचाई, मिट्टी व जल संरक्षण को जोड़ने के उत्साहव‌र्द्धक परिणाम आज मानिकपुर ब्लॉक की मनगंवा पंचायत में देखे जा सकते हैं। इस पंचायत की लगभग 90 प्रतिशत आबादी कोल और मवैया आदिवासियों की है। लगभग 25 वर्ष पहले तक इनमें से लगभग 15 प्रतिशत परिवार ही अपनी खेती कर पाते थे। इनमें से कुछ परिवारों के पास भूमि थी ही नहीं, जबकि अनेक अन्य परिवारों को भूमि के जो पट्टे दिए गए थे वे उन पर कब्जा नहीं कर सके थे। लिहाजा, उस भूमि को जोत भी नहीं सके। प्रशासन की ओर से पैमाइश और भूमि की सही पहचान का काम उपेक्षित पड़ा था। इस वजह से यदि कोई आदिवासी बहुत कठिनाई से ऊबड़-खाबड़ पथरीली भूमि के पट्टे को खेती योग्य बनाता भी था तो प्राय: कोई बड़ा भूस्वामी लेखपाल को पैसा देकर इस अच्छी भूमि को अपने नाम करवा लेता था और आदिवासी परिवार को फिर कहीं पथरीली जमीन दे दी जाती थी। इस वजह से आदिवासी परिवारों का खेती करने का उत्साह भी धीरे-धीरे कम होता जा रहा था।


एक अन्य वजह यह थी कि अनेक आदिवासी परिवारों को बड़े भू-स्वामी मजबूर करते थे कि वे पहली प्राथमिकता उनके यहां मजदूरी करने को दें। इसके बाद आदिवासियों के लिए अपनी खेती का समय कम ही बचता था। अनेक परिवार विभिन्न मजबूरियों के चलते बड़े भूस्वामियों के कर्ज में फंसे हुए थे। 100 रुपये का छोटा-सा कर्ज भी ऊंची दर के ब्याज से जुड़कर ऐसी मजबूरी बन जाता था कि आदिवासी को इसके बदले में सालभर भूस्वामी की मजदूरी करनी पड़ती थी। अधिकांश आदिवासी परिवारों द्वारा खेती न करने की अंतिम वजह यह थी कि उन्हें प्राय: पथरीली और असिंचित ऐसी भूमि दी जाती थी जिस पर समतलीकरण, बंधीकरण व लघु सिंचाई की सहायता के बिना खेती करना संभव नहीं था।


इस स्थिति में समाज सेवा संस्थान ने जहां एक ओर बंधुआ मजदूर प्रथा खत्म करने के लिए जोर लगाया, वहीं दूसरी ओर ऐसा व्यापक भूमि-वितरण अभियान चलाया जिससे प्रशासन ने लेखपालों के दल गठित कर जगह-जगह भूमि की पहचान व पैमाइश कर आदिवासी परिवारों को उनके भूमि-हक सुनिश्चित किए। समाज के कमजोर तबकों को एकजुट किया गया ताकि वे अपने नए हासिल किए गए भूमि-अधिकारों की रक्षा कर सकें, लेकिन सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट से सहायता प्राप्त वाटरशेड परियोजना के तहत इन खेतों में समतलीकरण, बंधीकरण व लघु सिंचाई की व्यवस्था का काम न किए जाने तक ये कदम अपर्याप्त ही रहे। विभिन्न खेतों में किए गए सुधार कार्य के अतिरिक्त पूरे वाटरशेड क्षेत्र में जल और नमी संरक्षण तथा हरियाली बढ़ाने के जो व्यापक काम किए गए, उससे ऐसी स्थितियां बनीं कि कम वर्षा होने पर भी खाद्य-सुरक्षा की स्थिति दिखाई देने लगी। मनगवां पंचायत के अनेक आदिवासी परिवारों ने बताया कि खेती का क्षेत्र भी तेजी से बढ़ा है और उत्पादकता भी। इसका प्रमाण ये आंकड़े खुद हैं, जहां 25 वर्ष पहले मात्र 15 प्रतिशत आदिवासी अपनी जमीन पर खेती करते थे, वहां अब 90 प्रतिशत से अधिक आदिवासी परिवारों की फसल लहलहा रही है। जहां पहले एक दिन मजदूरी न करने पर भूखा रहने की स्थिति आ जाती थी, वहां अब इन परिवारों के लिए खाद्य-सुरक्षा की स्थिति काफी मजबूत हो गई है।



लेखक भारत डोगरा स्वतंत्र टिप्पणीकार है



Tag:land,सिंचाई ,ग्रामीण,भूमिहीन ,कृषि ,बंधुआ मजदूरी , villager,rural

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