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मझधार में केंद्र सरकार

जागरण मेहमान कोना
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प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर कोयले की कालिख पुतने के बाद अब कांग्रेस की नैया डोलते देख रहे हैं प्रदीप सिंह


भ्रष्टाचार की आंच प्रधानमंत्री के दरवाजे तक पहुंच गई है। प्रमुख विपक्षी दल भाजपा प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग पर अड़ा हुआ है। संप्रग की सबसे बड़ी राजनीतिक पूंजी दांव पर लगी है। कांग्रेस कभी बचाव करने की बात करती है और कभी आक्रमण की। आठ साल में पहली बार राजनीतिक पहल भाजपा के हाथ में है। भाजपा को 2014 पहले आता हुआ दिख रहा है। क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कोयले की काली कोठरी से निकल पाएंगे। बेदाग निकलने का समय तो निकल गया। मनमोहन सिंह को उन सवालों की आबरू की चिंता है जिन्हें वे बेमानी मामते हैं। उनकी खामोशी उन सवालों की आबरू बचा पाएगी या नहीं यह तो पता नहीं है, लेकिन उनकी सरकार की आबरू जरूर खतरे में है। संसद के गलियारे और देश का माहौल बोफोर्स घोटाले के दिनों की याद दिलाता है। ईमानदार प्रधानमंत्री राजीव गांधी सच को ढांपने की जितनी कोशिश कर रहे थे, वह उतनी ही बेरहमी से उनकी बेदाग छवि और सरकार की फजीहत करा रहा था। उस समय संसद में कांग्रेस का प्रचंड बहुमत था। फर्क यह है कि उस समय की तरह विपक्ष आज एकजुट नहीं है तो कांग्रेस के पास वैसा प्रचंड बहुमत भी नहीं है। विपक्ष में विश्वनाथ प्रताप सिंह नहीं हैं तो प्रधानमंत्री पद पर राजीव गांधी जैसा मजबूत जनाधार वाला और पार्टी का स्वाभाविक नेता नहीं है। कांग्रेस उस समय भी आज की ही तरह पहले बचाव और फिर आक्रमण की मुद्रा में थी। कोयला घोटाले के रूप में विपक्ष के हाथ बड़ा हथियार लग गया है। आरोप एक संवैधानिक संस्था (सीएजी) की रिपोर्ट के आधार पर लगा है।


भाजपा को लग रहा है कि पिछले आठ साल से वह जिस अवसर की तलाश कर रही थी वह उसके हाथ लग गया है। 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान लालकृष्ण आडवाणी ने मनमोहन सिंह को अब तक का सबसे कमजोर प्रधानमंत्री कहा था तो उनके दावे को देश के मतदाता का समर्थन नहीं मिला। पर पिछले तीन साल में बहुत कुछ बदल गया है। लोग मनमोहन सिंह से पूछ रहे हैं कि तू इधर उधर की न बात कर ये बता कि काफिला क्यों लुटा? क्योंकि सवाल रहजनों का नहीं मनमोहन सिंह की रहबरी का है। 2जी स्पेक्ट्रम के मामले की तरह कोयला घोटाले के बारे में भी वही तर्क दिए जा रहे हैं कि सरकार को कोई घाटा नहीं हुआ। ईमानदार प्रधानमंत्री सीबीआइ से जांच तेज करने को कहने की बजाय सीएजी पर हमला बोल रहे हैं। कांग्रेस और संप्रग के मंत्री अजीब तरह के तर्क दे रहे हैं। एक तरफ कहा जा रहा है कि कोयला खानों के आवंटन में कोई घोटाला नहीं हुआ है। यह भी कि नुकसान के जो आंकड़े सीएजी ने पेश किए हैं वे वास्तविक नहीं हैं और आवंटन में कोई घोटाला नहीं हुआ है। इसके साथ ही भाजपा पर आक्रमण करते हुए कांग्रेस के लोग कह रहे हैं कि भाजपा के मुख्यमंत्री फंस रहे हैं इसलिए पार्टी संसद में बहस से भाग रही है। सवाल है कि घोटाला या तो हुआ है या नहीं हुआ है।


कांग्रेस इस समय हवा में चारों तरफ तीर चला रही है कि कोई तो निशाने पर लगेगा। मौजूदा स्थिति के लिए कांग्रेस और संप्रग अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है। वह जो करती है दूसरे दल उसकी नकल करते हैं। राजग के कार्यकाल में कांग्रेस ने तहलका मामले पर एक महीने तक संसद नहीं चलने दी। दो साल तक तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फनरंडीज का सदन में बहिष्कार किया। जिस काफिन घोटाले पर फनरंडीज का बहिष्कार किया उस मामले पर पिछले आठ साल में एफआइआर तक दर्ज नहीं हुई। 2जी पर मनमोहन सिंह लगातार ए राजा का बचाव करते रहे। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी और संसद में हंगामे के बाद ही राजा का इस्तीफा हुआ। 2010 में संसद का शीतकालीन सत्र हंगामे की भेट चढ़ने के बाद ही 2जी पर जेपीसी का गठन हुआ। 2जी पर संसद की लोक लेखा समिति की रिपोर्ट सत्तारूढ़ दल ने पेश नहीं होने दी। प्रधानमंत्री ने संसद को आश्वासन दिया कि कामनवेल्थ गेम्स घोटाले पर शुंगलू कमेटी की रिपोर्ट आने पर कार्रवाई होगी। पिछले आठ सालों में भ्रष्टाचार के हर मुद्दे को सरकार ने दबाने की भरसक कोशिश की है। जो भी कार्रवाई हुई है वह अदालतों के दखल और संसद में विपक्ष के दबाव में। कोयला घोटाले पर भारतीय जनता पार्टी प्रधानमंत्री के इस्तीफे पर अड़ी हुई है। संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही ठप है। गतिरोध को तोड़ने की सरकार की कोई मंशा नजर नहीं आती। सदन के अंदर और बाहर पार्टी, सरकार और सोनिया गांधी के आक्रामक रुख से साफ है कि किसी बीच के रास्ते की गुंजाइश कम ही है। कांग्रेस दो मोचरें पर लड़ रही है। एक मुख्य विपक्षी दल भाजपा और दूसरे सीएजी जैसी संवैधानिक संस्थाओं से।


कांग्रेस की कोशिश है कि गैर संप्रग दल संसद की कार्यवाही चलाने का दबाव बनाएं। पर भाजपा पहली बार संसद और उसके बाहर अलग-थलग पड़ने के डर से बैखौफ है। उसे लग रहा है कि उसके लिए यह स्वर्णिम अलगाव होगा। कोई पीछे हटने को तैयार नहीं है। सरकार फैसले नहीं ले पा रही। नीतिगत फैसलों की तो बात ही छोडि़ए प्रशासनिक स्तर पर भी कामकाज नहीं हो पा रहा। यह बात अर्थशास्त्री, उद्योग जगत के लोग, संवैधानिक संस्थाएं, अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां और अब रिजर्व बैंक भी कह रहा है। सरकार संसद ठप होने की दुहाई दे रही है पर संसद के बाहर जो काम होने हैं वह क्यों नहीं हो रहे इसका जवाब देने वाला कोई नहीं। प्रधानमंत्री को अपनी खामोशी स्वर्णिम लग रही है। जनतंत्र में जनता सवालों के जवाब चाहती है। खामोश रहकर प्रधानमंत्री अपनी जवाबदेही और उत्तरदायित्व से कैसे बच सकते हैं। क्योंकि वह चुप रहेंगे तो मतदाता के बोलने का समय 2014 से पहले आ जाएगा। संसद में चल रहा गतिरोध धीरे-धीरे उसी ओर बढ़ रहा है। जब संसद में होने वाली चर्चा सड़क पर होने लगे तो जनता और राजनीतिक कार्यकर्ता दोनों समझ जाते हैं कि उनके सक्रिय होने का समय आ रहा है। कांग्रेस और भाजपा दोनों अपने कार्यकर्ताओं से कह रहे हैं कि जनता के बीच जाएं। मुलायम सिंह यादव और ममता बनर्जी जिनके समर्थन पर सरकार टिकी है अपने कार्यकर्ताओं से कह रहे हैं कि लोकसभा चुनाव के लिए तैयार रहें। सारे संकेत एक ही दिशा में इशारा कर रहे हैं।


प्रदीप सिंह वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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