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असली लड़ाई की शुरुआत या अंत

जागरण मेहमान कोना
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ममता बनर्जी ने संप्रग छोड़ने के अपने फैसले में समझौते और बीच बचाव की गुंजाइश छोड़ी है और इसी के चलते कांग्रेस तुरंत सक्रिय हुई और जनार्दन द्विवेदी ने चिदंबरम और मनमोहन सिंह से अलग सुर में बात की, लेकिन फिलहाल बात बनती दिख नहीं रही। तृणमूल कांग्रेस के मंत्रियों द्वारा शुक्रवार को इस्तीफा देने का मतलब है भारत बंद का असर देख लेना, गैर-कांग्रेसी दलों का रुख देख लेना, संप्रग में शामिल और समर्थन दे रहे दलों का फैसला देख लेना। अगर द्रमुक जैसे दल भारत बंद का समर्थन करते हैं तो फिर सपा-बसपा का समर्थन कहां तक जाता है, यह भी देखना होगा? ममता के निर्णय बदलने की गुंजाइश कम लगती है। जिस भाषा मे उन्होंने सरकार और संप्रग की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाए हैं और जिन शब्दों में उदारीकरण की आलोचना की है उसके बाद घर वापसी तो आसान नहीं होगी, लेकिन यह एक ही पक्ष हुआ। अगर शुक्रवार तक कांग्रेस बाहर की हवा और आंतरिक असंतोष देखकर कुछ फैसले बदले या हल्के कर ले तो भी ममता की नाराजगी को कम या खत्म किया जा सकता है। सरकार के लिए अभी आंकड़ों का खेल सुविधाजनक लगता है।


तीन सौ पार के समर्थन में से एक बडा समूह टूटे भी तो बात नहीं बिगड़ेगी। कम से कम दो या तीन बडे दल अलग हों तब मुश्किल होगी। एक तो ममता जैसा एतराज सबको नहीं है और वैसा लडने का दम भी कम में है, लेकिन राव सरकार द्वारा बहुमत खरीदने और एटमी करार पर वाया अमर सिंह समाजवादी पार्टी का समर्थन हासिल करने वाला आसान खेल देखिए और राष्ट्रपति चुनाव में दिए समर्थन की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष लाभ से तुलना कीजिए तो खेल साफ होने में देर नहीं लगेगी। आप चाहे उसे लेन-देन कहिए या राजनीतिक सौदेबाजी, दिन ब दिन यह खेल महंगा होता जा रहा है। खेल को और साफ करना हो तो एनडीए शासन के समय तेलुगु देशम के बाहरी समर्थन के बदले आंध्र को मिली मदद या प्रणव बाबू को समर्थन पर यूपी-बिहार और बाद में बंगाल के पैकेज को याद कर लीजिए। आज कोई भी केंद्र को नाराज रखकर राज्य में चैन से राज नहीं कर सकता, लेकिन केंद्र के लिए भी गैर-राजनीतिकवजहों से समर्थन हासिल कर सकने की एक सीमा है।


ममता के फैसले से केंद्र सरकार दबाव में आई है और वित्तमंत्री चिदंबरम का यह कहना भारी पड़ रहा है कि हाल के फैसले वापस नहीं लिए जाएंगे, लेकिन शायद इससे भी भारी दबाव सरकार में शामिल या उसे बाहर से समर्थन देने वाले दलों पर आया है जो कीमतों में वृद्धि और खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश पर जुबानी जंग लड़ने में किसी से पीछे नहीं रहे हैं। इस जुबानी जंग के बाद ये समर्थन के लिए भारी सौदेबाजी करते रहे हैं या अपने ऊपर के बोझ को कम कराने का प्रयास करते हैं। हर ज्यादा मुश्किल के साथ इन जैसे खिलाडि़यों का महत्व बढ़ जाता है। इस बार जब ममता बनर्जी ने लगभग आर-पार का फैसला कर लिया है तो इन सभी दलों पर दबाव होगा। सिर्फ सांप्रदायिक शक्तियों को सत्ता से दूर रखने की मजबूरी का रोना बहुत समय तक रोया नहीं जा सकता। अगर गैस सिलेंडर की संख्या बढ़ाने या डीजल की कुछ कीमत वापस लेने जैसे कदम भी नहीं उठे तो ममता का कदम तो पक्का होगा ही, अन्य सहयोगी दल भी दूरी बनाएंगे। सरकार ने लंबे ऊहापोह के बाद एक साथ कई कदम उठाने की हिम्मत जुटाई है। पहले दिन प्रधानमंत्री की लड़ते हुए जाने की घोषणा तो यही संकेत दे रही थी कि सरकार ने अपनी ओर से मूड बना लिया है, अब बाकी जिसे जो फैसला लेना हो ले, लेकिन मनमोहन और चिदंबरम की साफ घोषणाओं के बीच भी सरकार ने सौदेबाजी या बातचीत के लिए रास्ता छोड़ा है। पहले दिन ही यह खबर भी आई कि सोनिया गांधी डीजल-रसोई गैस वाले फैसले से पूरी तरह सहमत नहीं हैं, फिर चुनाव की तैयारी में जुटी शीला दीक्षित ने रियायती दाम पर मिलने वाले गैस सिलेंडरों की संख्या गरीब परिवारों के लिए बढ़ाने की घोषणा भी कर दी।


अब अगर सरकार ममता के आगे झुकती है तो उसके पास मुंह छुपाने के बहाने हंैं, लेकिन उदारीकरण के दूसरे चरण का सवाल तब भी बना रहेगा। निश्चित रूप से कई फैसले काफी समय से अटके पडे हैं, लेकिन यह भी सच है कि अब उदारीकरण को लेकर गंभीर सवाल उठने लगे हैं। इसके परिणामों पर मतभेद हैं। ग्रामीण और आदिवासी इलाके तो बदहाल हुए हैं, लेकिन मध्य वर्ग का एक हिस्सा खुशहाल हुआ है। नई तकनीक, कुछ विदेशी पूंजी (इसका एक हिस्सा देसी कालाधन है) के आने और लालफीताशाही समाप्त या कम होने का लाभ अर्थव्यवस्था को हुआ है तो कई चीजों की लूट भी हुई है। हमारे नेता कितने भी गड़बड़ हों, जब वोटर जग जाए तो वे सोए नहीं रह सकते। तृणमूल और ममता का फैसला देखने में अकेला लगता है, लेकिन ऐसा है नहीं। इसके आगे और पीछे काफी कुछ है। आम चलन के अभ्यस्त हम सभी तृणमूल के मंत्री बाहर निकलने, मंत्रियों को काम पर जाने से रोक देने जैसे विकल्प तक की बात कर रहे थे, लेकिन ममता ने अगर प्रधानमंत्री की तरह जाना है तो लड़ते हुए जाने पर अमल भी कर दिया तो इसका उनको नुकसान ही होगा, यह भविष्यवाणी करना गलत होगा। संभव है कि नई आर्थिक नीतियों के विरोध में उठा यह पहला बड़ा कदम दूरगामी प्रभाव छोड़े। अगर कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियां सचमुच उदारीकरण को मुल्क और समाज के लिए एकमात्र समाधान मानती हैं तो उन्हें खुलकर एक-दूसरे का साथ देते हुए रुके आर्थिक फैसलों को लाने और आगे बढाने का काम करना चाहिए-मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू से काम नहीं चलेगा। अर्थनीति और राजनीति दो पहिए जरूर हैं, लेकिन साथ ही चलने चाहिए।


लेखक अरविंद मोहन वरिष्ठ पत्रकार हैं


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