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महत्वाकांक्षा नहीं, सोच का सवाल

जागरण मेहमान कोना
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मर्र्दो के बनाए इस समाज में स्ति्रयों का अस्तित्व भी उन्हीं की सहूलियत के हिसाब से तय किया गया है। जहां स्त्री की उड़ान वह तय करता है, जहां स्त्री तब तक कामयाब है, जब तक पुरुष चाहता है। एमडीएलआर की पूर्व डायरेक्टर गीतिका और वकील फिजा की मौत इसकी एक बानगी है। इनकी मौत की वजह महज महत्वाकांक्षा नहीं है, बल्कि पुरुषों की वह मानसिकता है जो यह मानकर चलती है कि स्ति्रयां पुरुषों के मनोरंजन के लिए घर से निकलती हैं। वे सोचते हैं कि जब तक स्ति्रयां उनके इशारे पर कठपुतली की तरह नाचती हैं तब तक फिजा में बहार रहेगी, लेकिन जब परिस्थितियां उनके अनुकूल नहीं रह जातीं तो गीतिकाओं से उनके जीने का हक भी छीन लिया जाता है। समाज द्वारा बनाए स्त्री विरोधी नियमों की धज्जियां उड़ाकर एक बेबाक जिंदगी जीने का फैसला लेने वाली स्ति्रयां क्यों अपनी जिंदगी खत्म कर देती हैं? आसमान की ऊंचाइयां छू लेने के बाद भी ऐसा क्या है, जो उन्हें मौत को गले लगाने के लिए मजबूर करता है? उनके लिए आत्महत्या ही आखिरी विकल्प क्यों रह जाता है? विवेका बाबाजी, नफीसा जोसेफ या कुलजीत रंधवा फैशन जगत के ऐसे सितारे जिनके पास पैसा, शोहरत, नाम सब था। फैशन की रंगबिरंगी दुनिया में उनकी पहचान थी।


लेकिन जिंदगी की तमाम सुविधाओं के बीच भी जीने की हसरत नहीं रह गई। आम राय है कि चकाचौंध अंधा करती है। लिहाजा, रैंप से उतरने के बाद की जिंदगी इन्हें रास नहीं आती। लेकिन फिजा और गीतिका का संबंध सतरंगी सपने दिखाने वाली रंग-बिरंगी दुनिया से नहीं था। फिजा पेशे से वकील थींऔर गीतिका एयरहोस्टेस और फिर एमडीएलआर की डायरेक्टर भी। अनुराधा उर्फ फिजा और चांद मोहम्मद उर्फ चंद्रमोहन दोनों ने एक-दूसरे के लिए अपना-अपना करियर छोड़ा। प्रेम विवाह किया लेकिन कुछ दिनों बाद चंद्रमोहन का प्रेम फिजा के लिए खत्म होने लगा। वह प्रेम अब पहली पत्नी के लिए जाग उठा। लिहाजा वह अपनी पत्नी के पास लौट गए। उनकी पत्नी ने उन्हें सहर्ष स्वीकार भी कर लिया, क्योंकि, हमारे समाज में पुरुष हमेशा ही संपूर्ण और निश्छल होता है। वह अपनी इसी छवि के भरोसे पर स्ति्रयों को छलता है। लेकिन अब फिजा के लिए रास्ते बंद हो गए। पुरुष हर गलती के बाद वापसी कर सकता है, मगर स्त्री के लिए उसकी पहली गलती ही आखिरी साबित होती है। फिजा की मौत अब भी अबूझ पहेली बनी हुई है।


गीतिका के चचेरे भाई गौरव की मानें तो कांडा की नौकरी छोड़ने के बाद वह अमीरात एयरलाइंस में नौकरी करने दुबई गई थी। वहां से उसकी नौकरी कांडा ने छुड़वाई और दोबारा अपनी कंपनी ज्वॉइन करने के लिए दबाव बनाया। महज 23 साल की उम्र में गीतिका को कंपनी के डायरेक्टर का पद दे दिया गया। गीतिका ने फिर उसकी कंपनी ज्वॉइन की और फिर छोड़ दी, लेकिन कांडा ने उत्पीड़न और दबाव जारी रखा। गीतिका ने उस पर भरोसा किया, पर वह छली गई। एक स्त्री का अकेलापन पुरुष के अकेलेपन से अलग होता है। चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक। उनका भावनात्मक जुड़ाव ही उन्हें प्रेम की ओर खींचता है। किसी से जुड़ने पर यह उनकी सबसे बड़ी ताकत होती है, लेकिन अलग होने पर यही भावनाएं उन्हें इतना मजबूर करती हैं कि वे बिखर जाती हैं। एक तो समाज का दोहरा व्यवहार, उस पर उनका अकेलापन उन्हें निगल जाता है। पुरुष के लिए विकल्प हमेशा खुले होते हैं। अगर वह पत्नी को छोड़कर प्रेमिका के पास जाना चाहे तो भी और प्रेमिका को दगा देकर पत्नी के पास लौटना चाहे तो भी। समाज उसे बिना किसी सवाल के स्वीकार कर लेता है। जबकि स्त्री के मामले में ऐसा नहीं है। समाज तो क्या, परिवार भी उसका साथ नहीं देता और वह नितांत अकेली पड़ जाती है। यही वजह है कि 2007 में अदालत गर्भवती मधुमिता शुक्ला की हत्या करवाने के मामले में उनके प्रेमी अमरमणि त्रिपाठी को आजीवन कारावास की सजा सुनाती है और उसी साल वह उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में महाराजगंज जिले से जीतता है। शेहला मसूद और शशि की मौत की कडि़यां भी ऐसी ही कहानियां पिरोती हैं।


गीतिका को गलत कहने वाले अपने तर्क को सही ठहराने के लिए कह रहे हैं कि इस तरह से आगे बढ़ने की चाहत रखने वाली लड़कियों का अंजाम ऐसा ही होता है। उनकी मानसिकता ऐसा कहकर किस ओर इशारा कर रही है यह सभी समझते हैं। गीतिका को गलत ठहराने में वे महिलाएं भी शामिल हैं जिन्हें लैंगिक गुलामी में कोई दोष नजर नहीं आता। दरअसल, हमारे समाज में समस्या ही यही है कि जहां मानसिकता बदलने की बात होती है, पुरुष महिला को नियंत्रित करने और उन पर पाबंदी लगाने में ज्यादा यकीन करते हैं। पुरुषवादी मानसिकता हमेशा ही स्त्री विरोधी रही है। उनकी नजर में स्त्री का अपना कोई अस्तित्व नहीं है। स्त्री पुरुष की इसी जड़ता को पहचान नहीं पाती, लिहाजा वह दासता की जंजीरों से बाहर नहीं निकल पाती। स्त्री संघर्ष की जो शुरुआत हुई है, उसके लिए समाज तैयार नहीं है। समाज महिला का पक्ष लेकर खड़ा नहीं हो सकता। स्ति्रयों का भावनात्मक होना, उनका मानसिक रूप से कमजोर होना उन्हें तोड़ देता है और सामाजिक रूढि़यां उन पर हावी हो जाती हैं। चुनौतियों से लड़ रही स्ति्रयों को ये रूढि़यां दबोच लेना चाहती हैं। जहां उनकी मानसिक दृढ़ता कमजोर होती है वहीं सामाजिक रूढि़यां हावी हो जाती हैं। फिर उनका मनोबल तोड़ने के लिए उन पर चारित्रिक दोष मढ़े जाते हैं, ताकि वे अपने साहसिक निर्णय से पीछे हट जाएं और रूढि़यों के आगे अपने हथियार डाल दें। बस यही समाज उन पर दोष मढ़कर आसानी से उन्हें नियंत्रित करने की कोशिश में लग जाता है। सामाजिक रूढि़यों से लड़ने के लिए साहस की जरूरत होती है, और डटे रहने के लिए दृढ़ता और आत्मबल की। संघर्ष के साथ डटे रहने के लिए हर स्त्री को अपनी कमजोरियों पर काबू पाते हुए नई इबारत रचनी होगी। शुरुआत हो चुकी है, बस इसे आगे बढ़ाने की जरूरत है। वरना, न जाने कितनी गीतिकाएं इसी तरह कांडाओं का शिकार होती रहेंगी।


लेखिका सीत मिश्रा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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