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आस्था के महाकुंभ संगम नगरी में श्रद्धालुओं का तांता लग गया है। जै गंगा मईया और हर-हर महादेव का उद्घोष गुंजायमान है। महाकुंभ की अद्भुत छटा अलौकिक है। भाषा, धर्म और जाति की सरहदें आस्था के महाकुंभ में विलीन हो गई हैं। सात-समंदर पार से आए लाखों श्रद्धालु पतित-पावनी गंगा में डूबकी लगा पुण्य अर्जन कर रहे हैं। 54 दिन तक चलने वाले इस महाकुंभ में एक करोड़ से अधिक श्रद्धालुओं का पहुंचना तय है। सरकार के लिए उनकी सुरक्षा और निर्मल जल की उपलब्धता एक बड़ी चुनौती है। खुफिया तंत्र ने महाकुंभ पर आतंकियों की नजर होने की आशंका जताई है। सुरक्षा एजेंसियों को अपने आंख-कान खुले रखने होंगे। साथ ही महाकुंभ में भगदड़ न मचे, इसका भी समुचित ध्यान रखना होगा। विगत कुछ सालों के दौरान धार्मिक स्थलों पर भगदड़ के दौरान लोग जान गंवा चुके हैं। फिलहाल केंद्र और राज्य सरकार की सुरक्षा एजेंसियों का सुरक्षा का दावा मजबूत है, लेकिन मौंजू सवाल मोक्षदायिनी गंगा के प्रदूषित जल को लेकर है, जो आचमन योग्य भी नहीं है। गंगा में जल की कमी भी महसूस की जा रही है।
सरकार ने दावा किया था कि मकर संक्रांति तक गंगा में प्रचुर जल की उपलब्धता होगी, लेकिन दावा खोखला सिद्ध हुआ है। आने वाले दिनों में गंगा का निर्मल जल श्रद्धालुओं को सराबोर करेगा, यह कहना कठिन है। एक अरसे से गंगा को प्रदूषण मुक्त करने का प्रयास चल रहा है, लेकिन सफलता अधूरी है। केंद्र और राज्य सरकारों की मनाही के बावजूद पतित-पावनी गंगा में टेनरियों का प्रदूषित जल गिर रहा है। अभी पिछले दिनों ही उत्तर प्रदेश के कानपुर में टेनरियों का प्रदूषित जल गिरता पाया गया। आश्चर्यजनक रूप से 33 ऐसी टेनरियां सक्रिय स्थिति में जहर उड़ेलती पाई गई, जिन पर प्रतिबंध लग चुका है। मतलब साफ है कि टेनरियों के संचालकों के मन में न तो कानून का खौफ है और न ही गंगा को लहूलुहान करने की शर्मिदगी है। यह स्थिति केवल कानपुर की ही नहीं, बल्कि गंगा तट पर बसे हर छोटे-बड़े शहरों की है, जो अपनी गंदगी गंगा में उड़ेल रही हैं। उनकी धृष्टता के आगे शासन-प्रशासन मूकदर्शक बना हुआ है। यह स्थिति बेहद खतरनाक और चिंताजनक है। हैरानी की बात यह कि अब जब महाकुंभ में श्रद्धालुओं ने गोता लगाना शुरू कर दिया है तो केंद्र की सरकार गंगा और यमुना के प्रदूषण को लेकर रोना रो रही है।
प्रधानमंत्री कार्यालय ने औद्योगिक इकाइयों को चेतावनी दी है कि वे प्रदूषित जल को गंगा में न बहाएं, लेकिन क्या इस चेतावनी मात्र से औद्योगिक इकाइयों का जहरीला पानी गंगा में गिरना बंद हो जाएगा? इसकी संभावना शून्य है। इस तरह की हिदायतें पहले भी दी जा चुकी हैं, लेकिन नतीजा सार्थक नहीं रहा। जब तक गंगा को प्रदूषित करने वाले लोगों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई नहीं होगी, स्थिति सुधरने वाली नहीं है। संत समाज एक अरसे से गंगा विमुक्ति का अभियान छेड़ा हुआ है। गंगा को प्रदूषित करने वालों के खिलाफ कड़े कानून की मांग कर रहा है। साथ ही गंगा पर बांध न बनाए जाने का भी आश्वासन चाहता है, लेकिन सरकार न तो कड़े कानून बनाने को तैयार है और न ही संत समाज को आश्वासन दे रही है। पिछले दिनों प्रख्यात पर्यावरणविद् और आइआइटी खड़गपुर के सेवानिवृत शिक्षक स्वामी ज्ञानस्वरूप सांनद (जीडी अग्रवाल) ने गंगा विमुक्ति का अभियान चलाया। सरकार की उदासीनता से नाराज होकर उन्होंने आमरण अनशन किया, लेकिन सरकार ने उनकी मांगों पर सकारात्मक रुख दिखाने के बजाय उनसे कठोरता का व्यवहार किया। उनके अनशन को जबरन तुड़वाने के लिए पाइप के जरिये उन्हें तरल आहार दिया गया।
पिछले दिनों ही गंगा विमुक्ति अभियान के तहत दिल्ली के जंतर-मंतर पर स्वामी स्वरूपानंद की अगुवाई में संत समाज द्वारा धरना-प्रदर्शन किया गया। सरकार को चेताया गया। धर्मनगरी वाराणसी सहित देश के तमाम स्थानों पर मानव श्रृंखला बनाकर गंगा को बचाने का आह्वान किया गया, लेकिन सरकार को एक कान से सुनने और दूसरे कान से निकालने की आदत बन चुकी है। उसके इस रुख से संत समाज आक्रोषित और उद्वेलित है। आमजन निराश है। गौर करने वाली बात यह है कि खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण के अध्यक्ष हैं। प्राधिकरण के गठन के बाद उम्मीद थी कि उनकी अगुवाई में गंगा प्रदूषण मुक्ति का अभियान तेज होगा, लेकिन नतीजा शून्य रहा। एक बार फिर गंगा को लेकर उनकी चिंता जाहिर करना सिर्फ यह दिखाना है कि सरकार गंभीर है। लेकिन हकीकत इससे इतर है। अगर सरकार गंभीर होती या उसकी मंशा साफ होती तो वह राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण की बैठक बुलाने में हीलाहवाली नहीं करती। न ही उसके रुख से खफा होकर कई सदस्यों को इस्तीफा देना पड़ता। अधिकरण की स्थापना गंगा कार्ययोजना के दो चरणों की असफलता के बाद हुई और उससे ढेर सारी उम्मीदें थी।
सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा प्रस्तुत कर सरकार ने विश्वास दिलाया कि गंगा मिशन के तहत सुनिश्चित किया जाएगा कि 2020 के बाद गैर शोधित सीवर और औद्योगिक कचरा गंगा में न गिरे, लेकिन इस दिशा में दो कदम भी आगे नहीं बढ़ा गया है। मतलब साफ है कि सरकार गंगा विमुक्ति का बस दिखावा कर रही है। सरकार के नकारात्मक रुख के कारण ही अदालतों को बार-बार पूछना पड़ा है कि ढाई दशक गुजर जाने के बाद भी गंगा प्रदूषण की समस्या का कोई प्रभावी हल क्यों नहीं खोजा जा सका है, लेकिन सरकार क्या जवाब देगी? पिछले दिनों इलाहाबाद हाईकोर्ट ने निर्देश दिया कि सरकार गंगा किनारे दो किलोमीटर के दायरे में पॉलिथीन और प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाए। सरकार ने आदेश के पालन का फरमान तो जारी कर दिया, लेकिन उस आदेश का कड़ाई से पालन नहीं करा रही है। नतीजा देश भर में गंगा के तट पर प्रदूषित करने वाली सामग्री अटी पड़ी है। प्रदूषण के कारण गंगा के जल में कैंसर के कीटाणुओं की आशंका प्रबल हो गई है। जांच में पाया गया है कि पानी में क्रोमियम, जिंक, लेड, आसेर्निक, मरकरी की मात्रा बढ़ती जा रही है।
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वैज्ञानिकों की मानें तो नदी जल में हैवी मेटल्स की मात्रा 0.01-0.05 पीपीएम से अधिक नहीं होनी चाहिए, जबकि गंगा में यह मात्रा 0.091 पीपीएम के खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है। सफाई अभियान के बावजूद गंगा के जल में कलर का मान 30 हैजेन तक बना हुआ है। आंकड़ों के मुताबिक गंगा बेसिन में प्रतिदिन लगभग 300 लाख लीटर गंदा पानी बहाया जाता है, जिसमें सीवेज और औद्योगिक कचरा मिला होता है। वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट में भी कहा जा चुका है कि प्रदूषण की वजह से गंगा नदी में ऑक्सीजन की मात्रा लगातार कम हो गई है, जो मानव जीवन के लिए बेहद खतरनाक है। वैज्ञानिकों ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि गंगा के पानी में ई-काइल बैक्टीरिया मिला है, जिसमें जहरीला जीन है। यह बैक्टीरिया मानव और जानवरों के मल की वजह से गंगा में आया है। ई-काइल बैक्टीरिया की वजह से ही सालाना लाखों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ रही है। गंगा भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की प्रतीक है। हजारों साल की आस्था और विश्वास की पूंजी है। गंगा मोक्षदायिनी है। इसकी महिमा युगों तक तभी अक्षुण्ण रहेगी, जब यह प्रदूषण मुक्त होगी।
लेखक अरविंद जयतिलक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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