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मेट्रो बनाम मोनो रेल

जागरण मेहमान कोना
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मेट्रो रेल भारतीय शहरी जीवन की जीवनरेखा बन गई है। तीस लाख से ज्यादा की आबादी वाले देश के आठ शहरों में मेट्रो रेल के दर्जन भर प्रोजेक्ट चल रहे हैं। दिल्ली-एनसीआर में आज मेट्रो के विस्तार का दायरा 200 किलोमीटर की परिधि पार चुका है। मुंबई में इसका ट्रायल शुरू हो चुका है तो देश की राजधानी में मेट्रो के साथ-साथ मोनो रेल के आगमन की तैयारी भी चल रही है। करीब 2300 करोड़ की लागत से यहां 11 किलोमीटर लंबे मोनो रेल रूट का निर्माण हो रहा है। इस पर 2017 से मोनो रेल दौड़ने लगेगी। सरकार बड़े शहरों में मेट्रो लाने के साथ ही छोटे और मझोले शहरों में मोनो रेल लाने की तैयारी में है। सरकार चाहती है कि हर शहर में सड़कों पर ट्रैफिक का बोझ कम किया जाए और लोगों को पब्लिक ट्रांसपोर्ट के लिए प्रोत्साहित किया जाए। शहरी विकास मंत्री कमलनाथ ने अपने मंत्रालय से कहा है कि वह मेट्रो की तरह मोनो रेल के लिए भी एक पॉलिसी तैयार करे। हालांकि सरकार के स्तर पर पहले तय किया गया था कि ज्यादा आबादी वाले शहरों में मेट्रो ही लाई जाएगी, लेकिन अब मोनो रेल को लेकर हो रही पहल को देखकर लगता है कि मोनो को मेट्रो के मुकाबले ज्यादा तरजीह दी जाएगी। समस्या यह है कि आज देश का हर बड़ा शहर मेट्रो रेल को अपने यहां देखने का इच्छुक है। इसकी अहम वजह यह है कि मेट्रो को अपने देश में आजमाया जा चुका है लेकिन मोनो का ऐसा टेस्ट होना बाकी है।

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पब्लिक ट्रांसपोर्ट के नाम पर अब लोगों को मेट्रो रेल से कम कुछ भी मंजूर नहीं होता। न तो वे सरकारी सिटी बसों की व्यवस्था चाहते हैं और न ही मेट्रो की जगह मोनो रेल से समझौता करना चाहते हैं। हो सकता है कि राजनीतिक कारणों से कुछ राज्यों की सरकारें मोनो का आना पसंद ना करें और मेट्रो को ही ज्यादा तरजीह दें। यहां अहम सवाल यह है कि विदेशी तकनीक पर आधारित जो रेल प्रणाली दिल्ली के लिए अपनाई गई है, क्या उसके स्थान पर कोई दूसरा परिवहन विकल्प इतना कारगर साबित हो सकता है कि वह न सिर्फ भीड़ का दबाव सहन कर सके, बल्कि रखरखाव के उन्हीं मानदंडों को छू सके, जिनका मेट्रो के मामले में कड़ाई से पालन किया जाता है। स्काई बस व स्काई रेल, मोनो रेल, रैपिड बस ट्रांजिट आदि पब्लिक ट्रांसपोर्ट जो दूसरे विकल्प हैं, वे अभी इतने कारगर नहीं दिखते हैं कि वे कहीं से भी मेट्रो का मुकाबला कर सकें, लेकिन मेट्रो स्थापना के बढ़ते खर्च के मद्देनजर ऐसे विकल्पों पर गौर करना जरूरी हो गया है क्योंकि मेट्रो के लिए सिर्फ ट्रैक बिछाने की लागत 267 करोड़ रुपये प्रति किलोमीटर तक पहुंच गई है। इधर, इसका एक विकल्प स्काई बसों के संचालन के रूप में सुझाया गया है और पहली स्काई बस आंध्र प्रदेश के मेरीपट्टम और उप्पल के बीच 20 किलोमीटर मार्ग पर चलाने की तैयारी हो रही है। दावा किया जा रहा है कि स्काई बस दिल्ली मेट्रो के मुकाबले अधिक सुरक्षित और सस्ती है। इसकी निर्माण लागत, रखरखाव व नियंत्रण भी कम खर्चीला बताया जा रहा है।

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गाड़ी नियंत्रण और चल स्टाफ सहित प्रतिघंटा 40 हजार यात्रियों को ढोने के लिए स्काई बस की निर्माण लागत सिर्फ 500 करोड़ है जो मेट्रो की लागत का एक चौथाई ठहरती है। यही नहीं, इसका निर्माण करने और संचालन शुरू करने में भी काफी कम समय लगने का दावा किया जा रहा है। मेट्रो की लागत और परिचालन से जुड़े खचरें और उसकी क्षमता को देखते हुए हर शहर में मेट्रो कारगर नहीं होगी। यही वजह है कि सरकार उन शहरों में मोनो रेल लाने की योजना बना रही है, जहां मेट्रो नहीं लाई जा सकती। मोनो रेल को सरकार इसलिए भी चाहती है, क्योंकि इसे बनाने की लागत मेट्रो के मुकाबले महज 50 से 60 फीसदी ही होती है। मेट्रो पर होने वाले भारी-भरकम खर्च के कारण ही सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था के दूसरे विकल्पों को आजमाना जरूरी हो गया है। पर इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि पहले उन विकल्पों को समय की पाबंदी, सुरक्षा और आरामदेह सफर की उन सभी कसौटियों पर कसा जाए जिन पर मेट्रो खरी उतरी है।

इस आलेख के लेखक अभिषेक सिंह  हैं


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Tags:  public policy, public policy in India, metro,  पब्लिक ट्रांसपोर्ट , मेट्रो, मोनो रेल

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