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गंगा पर कुछ भी लिखा जाए, वह कम है। शायद ही आज तक दुनिया की किसी दूसरी नदी पर इतना लिखा गया हो। वेदों, पुराणों, धार्मिक आख्यानों से लेकर विदेशी सैलानियों की डायरियों, शोधार्थियों के शोध पत्रों और पर्यावरण वैज्ञानिकों की चिंताओं में गंगा इस कदर शामिल रही है कि उसके बारे में विशद व्याख्यान और व्याख्याएं मौजूद हैं। गंगा सिर्फ नदी है, हिंदुस्तान के हिंदुस्तान होने का आधार है। गंगा महज संस्कृति नहीं है, हमारे अस्तित्व का ठोस आधार है। इसलिए गंगा पर भावुक चिंताएं बंद कीजिए। गंगा को धर्म, आस्था और महज संवेदनाओं की नजर से मत देखिए। गंगा को जिंदा रहने के सवाल के रूप में देखिए। शायद ही गंगा से बड़ा कोई दूसरा उदाहरण है, जो हमें बताता हो कि किस तरह झूठ और षड्यंत्र की कॉकटेल कितनी खतरनाक हो सकती है। गंगा की गंदगी को लेकर चिंताओं के तीन दशक बीत गए हैं। गंगा की सफाई अभियान को शुरू हुए दो दशक से ज्यादा बीत गए हैं। गंगा की सफाई के लिए खर्च हुई धनराशि इतनी बड़ी है कि अगर गंगा के समानांतर कोई मानवनिर्मित नदी बनाई जाती तो शायद उतनी रकम में वह भी संभव हो जाता। मगर गंगा की समस्या न सिर्फ वहीं की वहीं है, बल्कि हर गुजरते दिन के साथ खतरनाक होती जा रही है।
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आज गंगा में सामान्य रूप से अनेदखा किया जाने वाला प्रदूषण स्तर 2,000 फीसद बढ़ गया है। वर्ष 1987 के मुकाबले आज गंगा जल की जिंदगी महज 1/25 बची है। आज गंगा के पानी में 2,000 से ज्यादा जहरीले तत्व मौजूद हैं, जिनकी शुरुआत कानपुर से 200 किलोमीटर पहले से हो जाती है और संगम तक पहुंचते-पहुंचते वह स्थिति खतरे की किसी कल्पना से भी ऊपर तक पहुंच चुकी होती है। जिन लोगों ने 18वीं, 19वीं सदी का बंगाली साहित्य पढ़ा है, उस साहित्य में गंगा की मौजूदगी को जिस तरह महसूस किया है, वे लोग आज कोलकाता और हावड़ा में गंगा की असलियत देख लें तो रो पड़ें। आखिर हम क्या कर रहे हैं? हम पिछले तीन दशकों में गंगा और यमुना की सफाई के लिए हजारों नहीं, लाखों राजनीतिक बयान दे चुके हैं। दर्जनों योजनाएं शुरू कर चुके हैं। अनंत संकल्प ले चुके हैं। मगर गंगा और यमुना की उखड़ती सांसें एक बार भी स्थिर होने का नाम नहीं ले रहीं, बल्कि हर गुजरते दिन के साथ ये बेदम होती जा रही हैं। हम बार-बार बातों में कहते हैं, योजनाओं में दोहराते हैं कि गंगा हमारी मां है, गंगा हमारी जीवनदायिनी है। लेकिन गंगा को गंदा करना नहीं छोड़ते। बार-बार कड़े कानूनों की दुहाई देते हैं। मशीनरी निर्मित करते हैं। जुर्माना लगाने की बात करते हैं।
आधुनिक तकनीकी का आह्वान करते हैं, मगर सारी की सारी बातें सिर्फ कागजों में करते हैं। आखिर हम क्या चाहते हैं? महाकुंभ एक ऐसा मौका होता है, जिसका हिंदुस्तान चाहे तो बहुत अच्छा फायदा उठा सकता है। महाकुंभ वह मौका होता है, जब 60-70 लाख विदेशी कुंभ नगरी पहुंचते हैं और उस समय हिंदुस्तानी कला, संस्कृति, जीवनशैली और हमारे भावबोधों का पूरी दुनिया में प्रचार-प्रसार होता है। इसलिए महाकुंभ में कराहती गंगा की चिंता सिर्फ संतों और धार्मिक कर्मकांडों की नजर से नहीं होनी चाहिए। कुंभ के मौके पर गंगा की चिंता इसलिए होनी चाहिए, क्योंकि ऐसे मौकों पर भारत की वास्तविकता पूरी दुनिया की आंखों के सामने पहुंचती है। हमें महाकुंभ के इस मौके का फायदा उठाना चाहिए। एक बार सोवियत संघ के राष्ट्र प्रमुख ने पं. नेहरू से पूछा कि आप इतने लोगों को महाकुंभ में कैसे बुलाते हैं? क्या इसका प्रचार प्रसार करते हैं? जवाहर लाल नेहरू ने कहा, हमें कुछ नहीं करना पड़ता। हम तो उलटा दुआ करते हैं कि लोग कम आएं। फिर भी महाकुंभ में पूरा हिंदुस्तान उमड़ आता है।
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आज दुनिया ऐसे मौकों को तलाशती है। अरबों-खराबों डॉलर खर्च करके ऐसे मौके ढूंढ़ती है, जब उसके यहां दुनिया के तमाम लोग मौजूद हों ताकि विश्व पर्यटन के नक्शे में वह देश अपने अस्तित्व की मौजूदगी सुनिश्चित कर सके। हिंदुस्तान का यह सांस्कृतिक वैभव ही है कि हमें यह अवसर अक्सर में मिलता है और भरपूर मिलता है। महाकुंभ हमारा सबसे बड़ा संास्कृतिक दूत है। हमें आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं के इस दौर में इसका इस तरह से भी इस्तेमाल करना चाहिए। लेकिन यह तो दूर, हम इस अवसर की इतनी भी संवेदनात्मक परवाह नहीं करते कि दुनिया हमें क्या कहेगी? बहुत हो चुकी उपेक्षा, बहुत हो चुकी अनदेखी। अब और देरी की गई तो अलम्मा इकबाल का यह कथन सही साबित हो जाएगा कि ऐ हिंद वालो, अगर तुमने खुद की परवाह नहीं की तो तुम्हारा इस जहां से नामो निशां मिट जाएगा।
लेखिका वीना सुखीजा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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