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मोदी की राजनीतिक दिशा

जागरण मेहमान कोना
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राजनीति का ऊंट किस करवट बैठेगा, यह पूर्वानुमान सिर्फ वही ज्योतिषी लगा सकता है जिसमें सबसे अधिक साहस हो। यहां तक कि सियासत में साफ दिखने वाली चीजें भी ऐतिहासिक घटना या दुर्घटनावश बदल सकती हैं। अप्रैल-मई में होने वाले 2014 के आम चुनाव के साथ भी ऐसा ही है। कुछ हफ्तों पहले कांग्रेस के हतोत्साहित नेता जयपुर चिंतन शिविर में आधिकारिक तौर पर पार्टी उत्तराधिकारी बनाए गए राहुल गांधी के एंग्री यंग मैन वाले रूप का जश्न मना रहे थे। करीब हफ्ते भर तक कांग्रेस मानती रही कि बड़ी भूमिका निभाने को अनिच्छुक राहुल गांधी आखिरकार लगातार मरणासन्न स्थिति की ओर अग्रसर पार्टी में नई ऊर्जा भरने के लिए खुद को झोंकने को तैयार हो गए। पार्टी की उम्मीदें इस भरोसे (जो किसी भी तरह आधारहीन नहीं है) पर और बढ़ गईं कि भाजपा अंतर्कलह से गुजर रही है और संगठन को अलग-अलग दिशाओं में खींचा जा रहा है। वास्तविकता को बदलने के लिए एक माह से भी कम समय में घटनाओं की साजिश रची गई। राहुल अभी सिद्धहस्त नहीं हैं। अपनी पार्टी की बुनियाद को सुरक्षित रखने के लिए अपनी दीर्घगामी योजनाओं का वह आज भी सिर्फ आकलन करने की ही हैसियत में हैं और इसमें सिद्धहस्त होना आने वाले समय में वह अपनी मां से सीखेंगे। बहरहाल, यह आईने की तरह साफ है कि कांग्रेस और इसके सहयोगी दल भारतीय मतदाता की पहली पसंद नहीं रह गए हैं।

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इसमें कोई दोराय नहीं कि राहुल को इंच-इंच पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से चुनौती का सामना करना पड़ेगा, जो अपनी लोकप्रियता से भाजपा के शीर्ष तक पहुंच गए हैं। यह मोदी के उत्थान की शैली है-वह उत्थान जो सियासी दास्तान को और दिलचस्प बनाता है। भाजपाई अनुक्रम में शीर्ष की बराबरी में पहले नेता के तौर पर उभरने वाले मोदी की राह में कुछ दुरूह बाधाएं जरूर हैं। पहली बाधा 2002 के गुजरात दंगे हैं, ऐसी घटना जो आज भी जनमत को प्रभावित कर रही है। उसके बाद आती है मोदी की हठधर्मिता वाली नेतृत्व शैली, जिसने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के एक धड़े को नाराज किया है और अंत में बौद्धिक धड़े का भावुक विरोध है, जिसे लगता है कि मोदी कुछ ज्यादा ही अतिवादी हैं और भारत के विचार को चुनौती देते हैं। ऐसा नहीं है कि मोदी ने ये सभी बाधाएं पार कर ली हैं। अभी उनकी राहों में और भी कई चुनौतियां बाकी हैं। हालांकि, एक काम उन्होंने सफलतापूर्वक कर लिया है और वह है अपने बहुत से आलोचकों का यह सच सामने लाना कि वे कागजी शेर से अधिक नहीं हैं, लेकिन शुरुआती उम्मीदों के विपरीत उन्होंने अभी तक खुद पर सवाल उठाने वाले लोगों से आमने-सामने का संघर्ष शुरू नहीं किया है। मोदी ने नए मतदाताओं से मुखातिब होकर एक तरह से अपने आलोचकों को नजरअंदाज कर आगे बढ़ने का काम किया है। तात्पर्य साफ है कि आलोचक अपनी बातें कहते रहें, मोदी अपनी राह पर डटे रहेंगे। एक प्रकार से राष्ट्र के नाम अपने पहले संबोधन के लिए उन्होंने राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली स्थित देश के सबसे प्रतिष्ठित कॉमर्स कॉलेज-श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स को चुना। भाजपा के फायर ब्रांड नेता मोदी इसके जरिये सिर्फ आधुनिकीकरण की पताका बुलंद करने के अपने मजबूत पहलू को ही नहीं भुना रहे थे, बल्कि वह उस काम को भी अंजाम दे रहे थे जिससे भारत के तकरीबन सभी राजनेता विमुख हैं और वह काम था-भारत के भविष्य को सर्वश्रेष्ठ छात्रों के जीवन से जोड़ना।

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दूसरे शब्दों में कहें तो व्यर्थ बीते नौ वर्षो के खिलाफ मुहिम शुरू करने के लिए गुजरात से बाहर किसी सार्वजनिक मंच का इस्तेमाल करने के बजाय उन्होंने एक सकारात्मक राजनीतिक संदेश छोड़ा और वह संदेश था कि हम जितनी जल्दी प्रशासनिक समस्याओं के हल निकाल लेंगे उतनी जल्दी ही भारत उम्मीदों और अवसरों की जमीन बन जाएगी। निराशावाद और अवसाद के इस माहौल में मोदी ने युवाओं के लिए एक सपना बुनना बेहतर समझा। इसमें दो राय नहीं कि मोदी युवा महत्वाकांक्षाओं और सकारात्मक ऊर्जा का आ ान कर उस सबसे बहुत आगे निकल गए जब चुनावी लाभ के लिए किसी ने उन पर मौत के सौदागर का ठप्पा लगाया था। यह चतुराई भरा कदम निश्चित रूप से उनके विरोधियों (जिनमें संघ परिवार के कतिपय लोग भी शामिल हैं) की व्याकुलता बढ़ाने वाला है। यही कारण हो सकता है कि मोदी के विरोधी बदहवास से यह उम्मीद लगाए बैठे हैं कि प्रवीण तोगडि़या जैसे लोग नफरत फैलाने वाले भाषण देते रहें और मोदी का महत्वाकांक्षी एजेंडा पटरी से उतर जाए। मोदी खुद से नफरत करने वाले और खौफ खाने वाले, दोनों ही तरह के लोगों द्वारा बनाई गई अपनी छवि वाले दूसरे परिदृश्य को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते, जो किसी दु:स्वप्न की तरह है। आज या कल उन्हें उन लोगों के सामने आना ही होगा जो नफरत की राजनीति से आगे नहीं देख सकते। मोदी की अपील उनकी व्यावहारिक नेतृत्व शैली और तोगडि़याओं को भारत से अलग-थलग करने की उनकी क्षमता पर आधारित है। यदि संघ परिवार के भीतर से दरार डालने वाली ये आवाजें उठनी बंद नहीं हुईं तो मोदी के सामने अपने साथियों को अपने और अकबरुद्दीन ओवैसी के हिंदू समकक्षों में से किसी एक को चुनने का विकल्प देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचेगा। यह ऐसा रण है, जिसे वह हार नहीं सकते, क्योंकि उनके पास अपने पक्ष में जनमत है। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है इस रण का ऐसा होना जिससे बाहर रहने का खतरा वह उठा नहीं सकते। भारतीय जनमानस पर विजय पाने के लिए मोदी को अपने आदर्शवादी परिवार की छवि को अपनी छवि में पुनर्निर्मित करना होगा। कट्टरपंथी आवाजों को अप्रासंगिक बनाना मोदी की रेस कोर्स रोड की यात्रा को और आसान बनाने में मददगार साबित हो सकता है। भारत निश्चित रूप से यह बेहतर जानता होगा कि वह किस योग्य हैं। यह कुछ ऐसा है जो उन्हें चुनौती देने वालों के बारे में मुश्किल से ही कहा जा सकता है, जिनकी अपील विशेषाधिकार और अधिकारों पर आधारित है।

इस आलेख के लेखक स्वप्न दासगुप्ता हैं !


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Tags: India and politics, Narendra Modi, Narendra Modi and politics, नरेंद्र मोदी, मोदी राजनीति


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