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मौके पर फिर नाकामी

जागरण मेहमान कोना
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vk aggrawalएक ऐसे समय जब रेलवे की दशा सुधारने के लिए बहुत कुछ किया जा सकता था तब रेल मंत्री पवन बंसल ने अपने पहले रेल बजट में कुल मिलाकर निराश ही किया है। अगले एक साल के लिए रेलवे की योजनाओं का जो खाका सामने आया वह यही बताता है कि जोखिम उठाने से बचा गया। यह कहना कठिन है कि पवन बंसल की निगाह में अगले आम चुनाव थे या नहीं, लेकिन जिस तरह यात्री किराये में सीधे-सीधे वृद्धि की घोषणा नहीं की गई उससे यही संदेश देने की कोशिश की गई कि रेल बजट में आम आदमी का ख्याल रखा गया है। यह बात अलग है कि परोक्ष रूप से यात्रियों को अपनी रेल टिकट के लिए कुछ अधिक खर्च करना होगा। खासकर डीजल सरचार्ज के एलान का सीधा मतलब है कि रेलयात्रियों को साल में कम से कम दो बार किराये में बढ़ोतरी के लिए तैयार रहना चाहिए। मेरा अपना विचार यह है कि रेलवे की सबसे बड़ी समस्या क्षमता की है।

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रेलवे भारत की लाइफ लाइन है-एक तरह से देश की क्षमता, दक्षता और शक्ति मापने का एक ठोस पैमाना। इस लिहाज से जिसमें रेलवे का हित है उसी में लोगों का हित भी है और सरकार का भी। रेलवे विकास के लिए ही नहीं, बल्कि पर्यावरण के लिहाज से भी सबसे महत्वपूर्ण है। स्पष्ट है कि रेलवे जितनी मजबूत होगी, क्षमता से संपन्न होगी उतना ही देश मजबूत होगा और उतना ही पर्यावरण भी। दुर्भाग्य से इस दृष्टिकोण से रेलवे को नहीं देखा जा रहा है। इतने वर्षो बाद भी रेलवे की क्षमता बढ़ाने के लिए कोई ठोस उपाय नजर न आना इसका प्रमाण है। हमारे नीति-नियंताओं को सबसे पहले इस पर ध्यान देना चाहिए कि रेलवे की क्षमता कम क्यों हैं अथवा इसमें लगातार गिरावट क्यों आ रही है? एक समय था जब माल ढुलाई से लेकर यात्रियों तक रेलवे का हिस्सा 50 से 60 प्रतिशत था, लेकिन अब यह घटकर 15 से 25 प्रतिशत पर आ गया है। ऐसा इसीलिए हुआ, क्योंकि रेलवे की क्षमता बढ़ाने के लिए प्रयास नहीं किए गए। सच्चाई यह है कि न तो आधुनिकीकरण की दिशा में सही तरह आगे बढ़ा गया और न ही कौशल विकास की ओर। ममता बनर्जी जब रेल मंत्री थीं तब विजन 2020 की चर्चा सामने आई थी। यह बिल्कुल सही विचार था। विजन 2020 के तहत रेलवे के विकास के लिए दस वर्षो में 14 लाख करोड़ रुपये की जरूरत थी यानी 1.4 लाख करोड़ रुपये प्रति वर्ष। अब जब रेलवे की कुल आमदनी एक लाख करोड़ रुपये तक मुश्किल से पहुंच पा रही हो तब इतनी बड़ी राशि रेलवे के विकास के लिए कैसे खर्च की जा सकती है? ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि केंद्र सरकार रेलवे की मदद के लिए आगे आए। रेलवे को उसके हाल पर छोड़ देना उचित नहीं है। सच तो यह है कि जिस तरह प्रधानमंत्री ग्राम सड़क परियोजना के माध्यम से देश में सड़कों के निर्माण और उनके कायाकल्प की योजना चलाई जा रही है उसी तरह एक प्रधानमंत्री रेल विकास योजना बननी चाहिए और इसके तहत एक हजार किलोमीटर रेलवे लाइन प्रति वर्ष बननी चाहिए। रेलवे की दशा सुधारने के लिए सरकार की मदद इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि रेलवे के संसाधन-आमदनी सीमित है और खर्च बढ़ता ही जा रहा है। स्थिति यह है कि रेलवे की आमदमी का पचास प्रतिशत हिस्सा स्टॉफ पर खर्च होता है और बीस प्रतिशत ईंधन पर। सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए कि आमदनी और खर्च में जो असंतुलन नजर आ रहा है वह दूर हो। डेडीकेटेड फ्रेट कॉरिडोर का ही उदाहरण लें।


यह निराशाजनक है कि इतनी बड़ी महत्वपूर्ण परियोजना उस तरह आगे नहीं बढ़ पा रही है जिस तरह उसे बढ़ना चाहिए। अगर केंद्र सरकार इस योजना की 50 प्रतिशत धनराशि का बोझ उठा ले तो दोहरे-तिहरे लाभ देने वाली इस योजना को गति दी जा सकती है। यह समय की मांग है कि यात्री ट्रेनों वाले मार्ग से माल ढोने वाली ट्रेनें हटें। यथार्थ यह है कि यह काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था। देश में जब भी रेलवे की चर्चा होती है तो लोगों के दिमाग में केवल यात्री ट्रेनें होती हैं। उन्हीं की सुविधाओं-असुविधाओं के आधार पर हम रेलवे की दशा का आकलन करते हैं, लेकिन कोई इस पर ध्यान नहीं देता कि जब रेलवे लाइनों पर ट्रैफिक बढ़ता ही जा रहा है तब यात्री ट्रेनों के लिहाज से सुविधाओं का स्तर कैसे सुधारा जा सकता है? फिर प्रत्येक बजट में नई ट्रेनों की घोषणाएं भी होती हैं। नई ट्रेनों के एलान के औचित्य पर सवाल नहीं उठाया जा सकता, क्योंकि इनकी जरूरत भी होती है और सरकारों की राजनीतिक बाध्यताएं भी। नई ट्रेनों का एलान नहीं होगा तो भी सवाल उठेंगे। इसलिए यह जरूरी है कि ऐसी कोई राह निकाली जा सके जिससे यात्रियों का भी हित हो और रेलवे का भी। अब जब रेलवे को शहरों में यातायात के एक महत्वपूर्ण माध्यम के रूप में देखा जा रहा है तब केंद्र सरकार को मेट्रो रेल प्राधिकरण के गठन पर भी विचार करना चाहिए ताकि मेट्रो रेल में एकरूपता रहे और सभी जगह इस दिशा में तेजी से काम हो सके। पवन बंसल के इस बजट के संदर्भ में केंद्र सरकार के प्रतिनिधि यह दावा कर सकते हैं कि यात्री किरायों में कोई वृद्धि नहीं की गई है, लेकिन सच्चाई यह है कि इस बजट में विकास का कोई पहलू नजर नहीं आता। ऐसा लगता है कि रेलवे के विकास का विजन फिलहाल हाशिये पर डाल दिया गया है। अब समय आ गया है जब हाई स्पीड ट्रेनों की सिर्फ बातें ही न हों, बल्कि लोगों को यह भरोसा दिलाया जाए कि अमुक समय पर हाई स्पीड ट्रेनों की शुरुआत कर दी जाएगी। यह बहुत मुश्किल काम नहीं है। मौजूदा ढांचे में ही यह संभव है। डेटीकेटेड फ्रेट कॉरिडोर का काम पूरा हो, रेल लाइनों पर मालगाडि़यों का बोझ खत्म किया जाए और फिर मौजूदा ट्रैक पर ही तीन मीटर ऊंची फेंसिंग कर सेमी हाई स्पीड ट्रेन चलाई जा सकती है। हाई स्पीड ट्रेनों का इंतजार अब खत्म होना ही चाहिए-भले ही यह दो सौ किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से ही चले। ट्रेनों में सुरक्षा का सवाल एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू है जिस पर कोई ठोस उम्मीद नहीं बंधती। आरपीएफ में महिला सुरक्षाकर्मियों की संख्या बढ़ाने से बात बनने वाली नहीं है। जब तक केंद्र और राज्य सरकारें यह नहीं सोचेंगी कि यात्रा कर रहे एक यात्री के सूटकेस चोरी होने का मतलब बीच सफर में उसका सब कुछ लुट जाना है अथवा एक महिला भी यात्रा में खुद को असुरक्षित महसूस करे तो सुरक्षा पर संतोष नहीं जताया जा सकता तब तक स्थिति सुधरने वाली नहीं है।


इस आलेख के लेखक वीके अग्रवाल हैं


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Tags: आरपीएफ, रेलवे, भारत, रेलवे, रेलयात्रियों

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