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आखिरकार पूरी भद्द पिटवाकर ही सही, लेकिन भारतीय जनता पार्टी उस मुश्किल से उबर गई, जो उसके लिए खुदकुशी की राह पर जाने जैसी हो गई थी। एक ऐसा राष्ट्रीय अध्यक्ष, जो राज्य स्तर पर भी कद्दावर नेताओं में नहीं गिना जाता था, वह भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष था। वजह यह कि देश या कहें कि दुनिया के सबसे बड़े सामाजिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आशीर्वाद पूरी तरह से उस राष्ट्रीय अध्यक्ष के साथ था। काया और माया (सबसे बड़ा रुपैया) से पार्टी चलाने की गडकरी नीति आखिरकार सफल नहीं हुई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पूर्ण आशीर्वाद की खबरों से दूसरे-तीसरे दर्जे वाले पार्टी नेता भले ही खुलकर नितिन गडकरी के खिलाफ बोलने से बचते रहे, लेकिन जो पहली कतार में बैठने के हकदार बने हुए हैं, वे खुलकर गडकरी के नेतृत्व पर तगड़े सवाल खड़े करते रहे। बार-बार यह कहा जाता रहा और अब भी जिस तरह से गडकरी ने जाते-जाते मुंबई एयरपोर्ट पर क्लीनचिट के बाद वापस लौटकर आने वाला बयान दिया, उससे लग यही रहा है कि संघ का पूर्ण आशीर्वाद अब भी उन्हीं के साथ है। लेकिन इस बार अध्यक्ष चुने जाने के भाजपा के पार्टी विद द डिफ्रेंस वाले नारे को उन्होंने ताकत दी है। अटल-आडवाणी-मुरली मनोहर जोशी के दौर तक भारतीय जनता पार्टी के पार्टी विद द डिफ्रेंस पर सवाल खड़े करने वाले भी कम ही थे, लेकिन धीरे-धीरे कमजोर अध्यक्षों के दौर और फिर संघ-भाजपा की रोज की खींचातानी की खबरों ने पार्टी विद द डिफ्रेंस के नारे को कमजोर कर दिया था। बड़े-बड़े भ्रष्टाचार के बावजूद कांग्रेस पार्टी भाजपा को बेहयाई से पलटकर यह जवाब देने लगी कि भाजपा की सरकारें भी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। एक लाख रुपये की बंगारू की बचकानी घूस वाली तस्वीर के बाद तो ये आरोप धारदार हो गए थे, जिसका इस्तेमाल भाजपा विरोधी पार्टियों के साथ कोई भी राजनीतिक विश्लेषक उस पर हमले के लिए करने लगा था।
फिर जब राजनाथ सिंह के ही पिछले कार्यकाल के बाद लालकृष्ण आडवाणी और उनकी चौकड़ी के कॉकस से निकालने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक राज्य स्तर के नेता नितिन गडकरी को राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए लेकर आया तो पार्टी विद द डिफ्रेंस का एक और भ्रम टूटा। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर रिमोट से सरकार चलाने का जो आरोप लगा था, उसका भी तोड़ मिल गया। मजबूती से यह जवाब आने लगा था कि अगर सोनिया गांधी बिना सरकार में हुए संप्रग की सुपर प्राइम मिनिस्टर हैं तो संघ भी तो भाजपा का सुपर प्रेसिडेंट है। वंशवाद का आरोप भी कांग्रेस पर उतना धारदार नहीं बैठ रहा था, क्योंकि राज्यों में भाजपा नेताओं के पुत्र-पुत्रियां भी उसी आधार पर आगे बढ़ने लगे थे। पार्टी विद द डिफ्रेंस की छवि भाजपा को संभालना इससे भी मुश्किल हो रहा था कि वहां गांधी नाम के बिना सर्वोच्च तक नहीं पहुंचा जा सकता तो यहां नागपुर का आशीर्वाद इसके लिए परम आवश्यक शर्त है। यह सच है कि नितिन गडकरी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सरसंघचालक मोहन भागवत के आशीर्वाद ने ही 11 अशोक रोड पर कुर्सी संभालने का मौका दिया, लेकिन सच यह भी है कि लालकृष्ण आडवाणी की बढ़ती उम्र से आने वाली विसंगतियों के बावजूद उनके नजदीकी भाजपा नेताओं से ही पार्टी की पहचान बनना भी भाजपा के हित में नहीं था। इसीलिए मोहन भागवत को किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत हुई, जो संघ के व्यक्ति निर्माण के एजेंडे को भाजपा में सलीके से लागू कर सके और पुराने निर्मित व्यक्ति उसको अपने पैमाने पर कसकर तोड़ न सकें। काफी हद तक यह काम नितिन गडकरी ने किया भी, लेकिन गडकरी की मुश्किल यह थी कि वह जमीनी नेता कभी रहे नहीं। महाराष्ट्र में भी वह विधान परिषद के जरिये ही सत्ता सुख ले पाते थे। सबसे बड़ी बात यह कि देश में क्या नब्ज चल रही है, इसे भांपने का कोई यंत्र वह तैयार ही नहीं कर सके। तैयार कर सके तो सिर्फ अपनी कारोबारी बुद्धि से सर्वे के जरिये देश को जानने का फॉर्मूला। देश सर्वे-पोल से जाना जा सकता तो देश के नेता कोई और ही होते तो गडकरी कैसे सफल होते। नहीं सफल हुए। दुखद यह कि शुद्ध संघ आशीर्वाद से राष्ट्रीय नेतृत्व का मौका पाने वाले गडकरी ने स्वयंसेवक के पैमाने पर भाजपा की राजनीति को कसने के बजाय अवसरवादी पैमाने पर कसा। अवसरवादी पैमाना यह कि कैसे भी करके उत्तर प्रदेश में ढेर सारी सीटें लाओ।
अवसरवादी पैमाना था तो पार्टी विद द डिफ्रेंस भाजपा कैसे उस पर सफल हो पाती। असफल हो गई। भाजपा एक और वजह से पार्टी विद द डिफ्रेंस थी। दरअसल, बिना संसाधन के पार्टी चलती थी। संघ-भाजपा व्यक्ति चरित्र निर्माण करते थे। संसाधन अपने आप जुट जाते थे। नितिन गडकरी नई परिभाषा लेकर आए। वह उसी तरह पार्टी चलाना चाहते थे, जैसे कांग्रेस चलती है। यानी सत्ता मिली रहे तो संसाधन मिले रहते हैं और पार्टी भी मजबूत होती रहती है। कांग्रेस का फॉर्मूला है यह काम भी करता है कि पार्टी जमीन पर भले कमजोर रहे, सत्ता और संसाधन से मजबूत हो ही जाती है। गलती से पार्टी विद द डिफ्रेंस भाजपा भी कांग्रेसी फॉर्मूले को आजमाने लगी। यहां भी गडकरी गड़बड़ा गए। अब राजनाथ सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष चाहे जिन परिस्थितियों में चुना गया हो, लेकिन इससे पार्टी विद द डिफ्रेंस वाला भाजपा का टैग फिर से उसे वापस मिलता दिख रहा है। या कहें कि पार्टी इसे फिर से पूरी ताकत से इस्तेमाल कर सकती है। गडकरी से नाराजगी दिखाने वाले शत्रुघ्न सिन्हा का बयान आया कि अगर गडकरी पहले ही चुनाव लड़ने से मना कर देते तो पार्टी की छीछालेदर होने से बच जाती, लेकिन मुझे लगता है कि यह अच्छा हुआ। बेहद नाराज यशवंत सिन्हा का बयान इस मामले में काफी अहम है। जब उनसे पूछा गया कि क्या वह गडकरी से अभी भी नाराज हैं तो उन्होंने कहा कि जो हुआ, उससे वह बेहद खुश हैं। इस तरह अध्यक्ष के चयन ने भाजपा की ताकत और कांग्रेस की कमजोरी जाहिर कर दी है। यशवंत सिन्हा ने आगे बढ़कर कहा कि कांग्रेस चमचों की पार्टी है और वह खुली चुनौती दे रहे हैं कि अगर कोई कांग्रेस में सोनिया गांधी या राहुल गांधी के किसी फैसले के खिलाफ बोल पाए। यही भाजपा की असल ताकत है। संघ और भाजपा एक-दूसरे के पूरक हैं। कई गैर स्वयंसेवक भी अब भाजपा के बड़े नेता हैं और बनेंगे, क्योंकि वे संघ-भाजपा जैसा ही सोचते और करते हैं। इसका संतुलन भी काफी बेहतर हो रहा है। इस बार राजनाथ सिंह की बतौर पार्टी अध्यक्ष ताजपोशी में यह दिखा भी। अब इसी पार्टी पार्टी विद द डिफ्रेंस के वापस मिले टैग को भाजपा अपने पक्ष में इस्तेमाल कर सके तो 2014 उसके अनुकूल हो सकता है और इस टैग को बरकरार रखने का सबसे बड़ा जिम्मा आम सहमति से अध्यक्ष बने राजनाथ सिंह पर है।
लेखक हर्षवर्धन त्रिपाठी टीवी पत्रकार हैं
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